जिस व्यक्ति को साधना के दृष्टिकोण अच्छी तरह से परिचित है, जिसकी कुछ भी अपने पास रखने की अपेक्षा दूसरे को ज्ञान देने की निरपेक्ष वृत्ति है तथा मार्गदर्शक सूत्रों के अनुसार जो प्रथम स्वयं अच्छी तरह से साधना करता है, उस व्यक्ति को ही अन्य लोगों को साधना के संदर्भ में मार्गदर्शन करने का अधिकार है । अतएवं ऐसा कहा जाता है कि, ‘बोले तैसा चाले, त्याची वंदावी पाऊले ।’ उपर्युक्त गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति के वक्तव्य में चैतन्य निर्माण होता है तथा वह वक्तव्य सुननेवाले के चित्त पर भी साधना का संस्कार दृढ होता है । इस के विपरित उपर्युक्त गुणों का अभाव होनेवाले व्यक्ति के मार्गदर्शन में सीखाने की वृत्ति तथा अहं निर्माण होने का धोखा रहता है ।
-(पू.) श्री. संदीप आळशी