१. व्यष्टि साधना : यह व्यक्तिगत जीवन से संबंधित होती है । इस साधनामार्ग में धार्मिक विधि, पूजा-अर्चना, पोथीपठन, नामजप, मंत्रजप, भाव की स्थिति में रहना इत्यादी साधनाएं होती हैं ।
२. समष्टि साधना : यह साधना समष्टि अर्थात समाजजीवन से संबंधित होती है । कालमहिमानुसार समाजपर जो अनिष्ट परिणाम होनेेवाले होते हैं, उनकी तीव्रता न्यून करने हेतु अथवा उन्हें टालने हेतु यह साधना होती है । इसमें यज्ञयाग, प्रेताग्नि उपासना, किसी ज्योतिर्लिंग अथवा स्वयंभु स्थानपर जल का अथवा दुध का अभिषेक करना इत्यादी कर्मकांड होते हैं । कई लोग कर्मकांडों की ओर तुच्छता की दृष्टि से देखते हैं । भगवान श्रीकृष्णजीने गीता में कहा है, यज्ञानाम् जपयज्ञोऽस्मि । अर्थात मैं जप में व्याप्त जपयज्ञ हूं, यह उदाहरण भी कुछ लोग देते हैं । उनके ध्यान में यह नहीं आता कि, ईश्वर ने व्यष्टि साधना के संदर्भ में वैसा कहा है । ऋषी-मुनि सुखा, भूकंप एवं अन्य प्राकृतिक आपदाआें को टालने हेतु, साथ ही आक्रामक असुरों का निर्मूलन करने हतेु यज्ञयागादी समष्टि साधना करते हैं ।
– (परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले