१. व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र श्रेष्ठ होता है । इसलिए, राष्ट्र जीवित रहने पर ही समाज जीवित रहता है और समाज जीवित रहने पर व्यक्ति जीवित रहता है ।
२. व्यक्तिगत स्वतंत्रताका अर्थ स्वैराचार नहीं अथवा मैं जो चाहूं करूं अथवा वैसा ही वर्तन करूं, यह भी नहीं !
३. व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं धर्म के हित में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उपयोग उचित है, तो सज्जनों का अनादर करनेवाली, राष्ट्र की अखंडता को हानि पहुंचानेवाली, लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत करनेवाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता अनुचित है । इसका समर्थन कभी नहीं किया जाना चाहिए ।
४. समलैंगिकता, लिव इन रिलेशनशिप आदि विकृतियोंको व्यक्तिगत स्वतंत्रताके नामपर महिमामंडित करना, धर्म द्रोह है ।
५. प्राय: स्वयंकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता संरक्षित रखनेवाले दूसरेकी व्यक्तिगत स्वतंत्रताको बाधित करते हैं, अनेक अनुभवोंसे ऐसा सिद्ध हुआ है ।
६. व्यक्तिगत स्वतंत्रतासे जो सुख और आानंद प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक सुख संयम एवं त्यागसे मिलता है ।
७. आनंदमय होनेके लिए व्यक्तिस्वतंत्रता नहीं वरन धर्माचरण, नैतिकताके बंधनमें रहना आवश्यक होता है ।