यदि किसी विषय का अभ्यास उस विषय की पद्धति के अनुसार न कर कोई उसके संदर्भ में निश्चित रूपसे कहता है कि मेरा ही कहना उचित है, तो उसपर कोई गम्भीरता से ध्यान नहीं देता । यही स्थिति है बुद्धिप्रामाण्यवादियों की । अध्यात्म का अभ्यास अर्थात बिना साधना किए वे इस संदर्भ में भाष्य करते रहते हैं; इसलिए उनके जीवनभर के कार्य की फलनिष्पत्ति शून्य होती है !’