१. श्रीगणेशजन्म की कथा
१ अ. पार्वती का अपने मैल से गणेश बनाना
एक बार शिवजी किसी कार्य से बहुत समय तक अपने स्थान से बाहर रहे । तब लक्ष्मीजी, पार्वतीजी से कहती हैं, आप अपने मैल से पुत्र बनाइए । इससे आपका अकेलापन दूर होगा और संसार का कल्याण भी होगा । तब, पार्वतीजी अपने मैल से एक बालक की मूर्ति बनाकर उसमें प्राण डालती हैं । आगे, वे ही सबके कल्याणकारी श्रीगणेश नाम से प्रसिद्ध हुए । अबतक वे अपने पिता को नहीं जानते थे । एक बार जब पार्वतीजी को पता चला कि शिव आनेवाले हैं, तब वे मंगलस्नान करने कुटिया के भीतर गईं । जाते समय गणेश को द्वार पर बैठाकर कहा, जबतक मैं स्नान कर बाहर नहीं आती, तब तक तुम किसी को भीतर नहीं आने देना । गौरीनंदन गणेश माता की आज्ञा शिरोधार्य करते हैं और किसी को भीतर नहीं जाने देते ।
१ आ. शंकर ने गणेश का सिर धड से अलग किया
उसी समय शंकर वहां आते हैं । वे पार्वतीजी से मिलने के लिए कुटिया के भीतर जाने लगते हैं, तब गणेश उन्हें रोकते हैं । बार-बार समझाने पर भी गणेश शंकर जी को भीतर नहीं जाने देते । तब शिवभक्त, अनेक ऋषि तथा स्वर्ग के देवता भी शिवजी को भीतर जाने देने के लिए गणेश से विनती करते हैं; परंतु वे नहीं मानते । उलटे, अपनी शक्ति के अहंकार से शिवजी को तुच्छ समझते हैं और युद्ध के लिए ललकारते हैं । वे देवताआें को बांध देते हैं और ऋषि-मुनियों को कष्ट देते हैं । किसी का भी कहा नहीं मानते । तब शिवजी उन्हें पुनः समझाते हैं । परंतु, वे उनका अपमान करते हैं और उन पर अपना शस्त्र फेंकते हैं । विवश होकर शिव उनका सिर त्रिशूल से काट देते हैं । इस घटना से सभी भयभीत होते हैं । जब पार्वतीजी को इस घटना के विषय में पता चलता है, तब वे पुत्र को जीवित करने के लिए शिव से हठ करती हैं । शिव कहते हैं कि ऐसा करना असंभव है । इस पर पार्वतीजी रौद्र रूप धारण करती हैं । तब, देवी-देवता सृष्टि की रक्षा हेतु गणेश को जीवित करने की शिव से प्रार्थना करते हैं । गणेश को मूलरूप में जीवित करना असंभव होने के कारण शिव किसी दूसरे का सिर गणेश के धड से जोडने के लिए कहते हैं । वे कहते हैं कि सूर्यास्त से पहले जो प्राणी पहले दिखाई दे और वह अपनी इच्छा से सिर अर्पित करेगा, तभी गणेश को जीवित किया जा सकेगा ।
१ इ. हाथी का सिर गणेश के धड से जोडा जाना
उसके अनुसार एक हाथी अपना सिर प्रसन्नतापूर्वक अर्पित करने के लिए तैयार होता है । यह हाथी, गजासुर था । पहले उसने अनेक वर्ष तप कर, शिव को प्रसन्न कर लिया था । प्रसन्न शिव ने जब उससे वर मांगने के लिए कहा, तब उसने उनसे वर मांगा कि आप सदैव मेरे पेट में निवास करें । परंतु, ब्रह्मा और विष्णु उस असुर से वैसा वर न करने के लिए मना लेते हैं । पश्चात विष्णु उसे वरदान देते हैं कि शरीरत्याग के पश्चात तुम्हारा निवास शिव के पास होगा । इस महाज्ञानी गजासुर को मिला वह वरदान आज सफल होने का अवसर मिला, तो वह बहुत आनंदित हुआ और अपना सिर सहर्ष अर्पित करने को तैयार हो गया ।
२. शंकासमाधान न होने से कथा काल्पनिक लगना
बचपन से हम गणेशजी की जन्मकथा सुनते आ रहे हैं कि पार्वतीजी अपने मैल से गणेश का निर्माण करती हैं और शंकरजी उसका वध करते हैं । पश्चात हाथी का सिर लगाकर उन्हें जीवित करते हैं । उस समय अनेक प्रश्न मन में उठते थे । शरीर के मैल से सजीव मूर्ति कैसे बन सकती है ? छोटी-सी बात पर एक पिता अपने पुत्र का वध कैसे कर सकता है ? पुनः उसे जीवित क्यों करता है ? वह भी पहले का मूल सिर न जोडकर, हाथी का सिर क्यों जोडता है ? यह सब कैसे संभव है ? इस प्रकार, यह पूरी कथा काल्पनिक लगती थी । पश्चात, समय-समय पर पढी हुई अनेक कथाआें, बच्चों के प्रश्नों से जागृत जिज्ञासा तथा शंकानिरसन से उसका परोक्ष अर्थ समझा; परंतु उसका शास्त्रीय अर्थ, साधना आरंभ करने पर ही समझ में आना आरंभ हुआ । गुरुदेव के चरणों पर कोटि-कोटि कृतज्ञता-अर्पण । क्योंकि, उन्हींने हमें जिज्ञासु बनाकर, प्रश्नों के उत्तर ढूंढना सिखाया है ।
३. कथा का भावार्थ
३ अ. मैल से शक्तिशाली पुत्र बनानेवाली आदिशक्ति
आदिशक्ति पार्वती ही जगज्जननी हैं । उन्हीं से समस्त प्रकृति की उत्पत्ति होती है । उनकी प्रचंड शक्ति से ही शिव को शक्ति मिलती है । उनके बिना शिव शवसमान हैं । पंचमहाभूतों से बने शरीर को मर्यादाएं होती हैं । परंतु, साधना के बल पर पार्वतीजी पंचमहाभूतों से बने शरीर की मर्यादाएं लांघ चुकी थीं । इसलिए, वे ईश्वर से एकरूप हो सकी । इस आदिशक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं है । इसलिए, वे अपने मैल में स्थित चैतन्य से पुत्र का निर्माण कर सकीं ।
परात्पर गुरु परम पूज्य डॉक्टरजी ने अपने हाथ पर स्थित दैवी कणों को दूसरे हाथ से नीचे गिराया । उन दैवी कणों को हम सबने देखा है । एक पंचमहाभूत पर अधिकार पाने से उनके कक्ष और वातावरण में हुआ परिवर्तन, आज के विज्ञान को इसका रहस्य उजागर करने की चुनौती दे रहा है । अतः, दैत्यासुरमर्दिनी आदिशक्ति पार्वती के मैल से महाशक्तिशाली पुत्र का निर्माण संभव है ।
३ आ. विश्व का कल्याण करने के लिए अहंकारी पुत्र को मृत्यदंड देनेवाले जगत्पिता शिव !
गणेश महापराक्रमी थे । जिसकी शक्ति में सात्त्विकता, अर्थात शिव नहीं होते, उसका अहंकार बढता है । अहंकारयुक्त शक्ति सदा विनाशकारी होती है । इसके अतिरिक्त, पुत्र-जन्म के समय पार्वतीजी का एक स्वार्थी विचार यह था कि मेरा पुत्र मेरी आज्ञा माननेवाला हो । स्वार्थ के लिए बनाई गई कलाकृति में सात्त्विकता नहीं होती । इसलिए, माता की आज्ञापालन करते समय गणेश विवेक से काम नहीं ले पाए । उन्हें करुणा, दया, क्षमा का बोध नहीं था । रज-तम गुणों से प्रभावित शक्ति अधिक तमोगुणी होती है । गणेश के विषय में भी यही हुआ । आदिशक्ति के मैल से निर्मित गणेश में प्रचंड शक्ति थी । परंतु बुद्धि मलिन और रज-तम गुणी थी । वास्तविक, इन पार्वतीनंदन का अवतार विश्व के कल्याण हेतु, उसे मंगलमय करने हेतु ही हुआ था । परंतु, त्रिकालज्ञानी शिव जानते थे कि मलिन बुद्धिवाले गणेश विश्व का कल्याण नहीं, अकल्याण ही करेंगे । अहंकारी पुत्र से विश्व का जीवन अंधकारमय न हो जाए, इसके लिए उसकी मलिन बुद्धि नष्ट करना आवश्यक है । यह सोचकर शिव ने गणेश का सिर धड से अलग करने का निर्णय लिया । धन्य है वह पिता, जो विश्वकल्याण के लिए अपने पुत्र का सिर काटता है ।
भारतीय संस्कृति ने हमारे सामने कितना उच्च आदर्श रखा है ! छत्रपति शिवाजी ने अपने पुत्र संभाजी राजा के अपराध के लिए उन्हें दंड देने का निर्णय लेकर, ऐसा ही आदर्श हमारे सामने रखा था । पुत्रमोह के बंधन से मुक्त होकर इतना कठोर निर्णय शिवाजी महाराज इसलिए ले पाए; क्योंकि उन पर राजमाता जिजाबाई ने बचपन में ही हिन्दू संस्कृति के अनुसार संस्कार किया था । कितनी महान है हमारी हिन्दू संस्कृति ! आज दुर्भाग्यवश हम अपने भारत देश में, पुत्रों के कुकर्म छिपानेवाले और उनका समर्थन करनेवाले अहंकारी राज्यकर्ताआें को गली-गली में देख रहे हैं । उसका राष्ट्रघाती परिणाम भी हम सब भोग रहे हैं ।
३ इ. शिव का गणेश को महाज्ञानी गजासुर का सिर लगाकर उनकी मलिन बुद्धि को शुद्ध, अर्थात शिवमय करना
गजासुर का सिर लगाने से गणेश की मलिन बुद्धि शिवमय होती है । गजासुर शिव की कठोर तपस्या से महाज्ञानी बना था । इसलिए, इस असुर का सिर लगने से गणेश के पास बचपन से ही सब प्रकार का ज्ञान था । इस ज्ञान के कारण ही, शक्ति (पार्वती) के मैल से बनी बुद्धि, शिव अर्थात सात्त्विक बन सकी ।
उपर्युक्त कथा और उसका विश्लेषण सुनकर, परम पूज्य डॉक्टरजी की बताई हुई अहं-निर्मूलन प्रक्रिया का महत्त्व हम सब साधकों को अब विशेषरूप से अनुभव हो रहा है । जबतक हमारी बुद्धि मलिन रहती है, हममें अहंकार और स्वभावदोष रहते हैं; तब तक हम सात्त्विक नहीं बन सकते और जबतक हम सात्त्विक नहीं बनते, तबतक सत्त्वगुणी ईश्वर की ओर नहीं जा सकते; गुणातीत होना तो बहुत दूर की बात है ! ईश्वर के गुण अपने भीतर लाने के लिए मानवीय देह की सब मर्यादाएं लांघनी पडती हैं । ऐसा करने के लिए, तम-रज गुण से सत्त्वगुण की ओर जाना और सत्त्वगुण से गुणातीत (गुणों के परे) होना पडता है । हम सब साधक यह कर पाएं, इसके लिए हमारी गुरुमाऊली (गुरुमां) कितना प्रयत्न करती हैं ! समय आने पर वे कठोर भी होती हैं । परंतु, उनकी यह कठोरता शिव की ही भांति हमारे कल्याण के लिए होती है । यह बोध आपने हमें कराया, इसके लिए कोटि-कोटि कृतज्ञता !
४. गणेशोत्सव का महत्त्व
४ अ. श्रीगणेश का अशिष्ट (बेढंगा) चित्र और मूर्ति बनानेवाले उनकी अवकृपा (क्रोध) के पात्र बनते हैं !
अनेक बार हम कुछ धर्मविरोधियों के बनाए हुए श्रीगणेश के अशिष्ट चित्र अथवा मूर्तियां देखते हैं । इस विषय में एक सिद्धांत यह है कि जो जिस रूप में देवता का ध्यान करता है, उसे उसी रूप में वे दिखाई देते हैं । रामचरितमानस में भी संत तुलसीदास ने लिखा है, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन जैसी । जिस रूप में देवता दिखाई देते हैं, उसी रूप में व्यक्ति उन्हें गढता अथवा बनाता है । सात्त्विक व्यक्ति को ध्यान में गणेश का सात्त्विक रूप ही दिखाई देगा और वह वैसा ही चित्र अथवा मूर्ति बनाएगा । उदा. मोरया गोस्वामी की बनाई हुए श्रीगणेशमूर्तियां ! तमोगुणी व्यक्ति अपने गुणों के अधीन रहकर श्रीगणेश के विषय में सोचता है । इसलिए, उसके हाथों से बनी मूर्ति असात्त्विक होती । उस मूर्ति में श्रीगणपति की विशेषताएं और स्पंदन नहीं, विकृति ही अधिक होती है । इसलिए, हिन्दू संस्कृति में बच्चों पर बचपन से ही श्रीगणेश के विषय में आदर और श्रद्धा बढानेवाले संस्कार किए जाते हैं । जहां ऐसी संस्कृति का अभाव है, अपने देवताआें के विषय में अज्ञान है और श्रद्धा के स्थान पर अंधश्रद्धा है, वहीं धर्मद्रोही लोग देवतों का अनादर करने में सफल होते हैं । यह अनादर वे कभी कला के नाम पर, कभी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर, तो कभी सत्ता के बल पर करते हैं ! परंतु, वे यह भूल जाते हैं कि जो जगत्पिता भक्तों की रक्षा, विश्व के कल्याण तथा पुत्र की अमंगलकारी एवं अहंकारी वृत्ति नष्ट करने के लिए, उसका वध कर सकता, है वह एक दिन हमें भी दंड दे सकता है !
४ आ. मंगलदायी श्रीगणेश का महत्त्व जानिए !
श्रीगणेश त्रिगुणातीत, शक्तित्रयात्मक, शुभदायी, संकटहर्ता, बुद्धिदाता और कार्य को सफल बनानेवाले देवता हैं । वे गणनायक, उत्तम नेता, महाशक्तिशाली, परम परमदयालु और विश्व का मंगल करनेवाले देवता हैं । इसीलिए, कोई भी कार्य आरंभ करते समय सबसे पहले श्रीगणेश की पूजा की जाती है । छोटे बच्चे की विद्या का आरंभ उसके हाथ से श्री लिखवा कर किया जाता है । हिन्दू धर्म में प्रथम श्रीगणेश की पूजा करने के पश्चात ही, अन्य देवताआें की पूजा की जाती है । श्रीगणेश का आवाहन (बुलाना) करने पर ही अन्य देवता पूजास्थान पर आते हैं । श्रीगणेश का महत्त्व आज की पीढी को पता होना चाहिए ।
५. हिन्दुओ, हिन्दू संस्कृति की महानता समझाओ और अपनी भावी पीढी को महान बनाओ !
अनेक बार अभिभावक अपने बच्चों को श्रीगणेशोत्सवों में विभिन्न प्रकार की गणेशझांकियां और चलचित्र दिखाने के लिए बढे उत्साहपूर्वक अनेक स्थानों पर ले जाते हैं । कुछ वर्ष पहले, सार्वजनिक गणेशोत्सवों में विविध धार्मिक कथाआें की झांकी दिखाई जाती थी । यह सब दिखाने के लिए हम भी अपने बच्चों को लेकर जाते थे । उस समय बच्चे हमसे जिज्ञासा से अनेक प्रश्न करते थे । ऐसे समय उन प्रश्नों के उत्तर हमें नहीं पता होंगे, तो हम उन्हें क्या बताएंगे ? यदि वे हमारे उत्तर से संतुष्ट नहीं होंगे, तो उन्हें वह कथा काल्पनिक लगेगी । आगे, पाठ्यपुस्तकों में भी इस विषय में जानकारी नहीं मिलती । तब, यह पीढी धर्मशिक्षा के अभाव में अपनी संस्कृति से दूर चली जाती है । इसलिए, जब अन्य पंथों के लोग अथवा श्रद्धाहीन, (कु)बुद्धिवादी, ढोंगी बुद्धिमान और कुछ अतिसुधारवादी जब हमारे बच्चों से पूछते हैं कि आपके धर्म में बंदर, हाथी, सांप जैसे प्राणियों की पूजा की जाती है । फिर भी हिन्दू धर्म और संस्कृति महान कैसे है ? तब, उनके पास ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं होते ।
६. हिन्दुओ, साधना कर देवताआें की कृपा
प्राप्त करें और उसके बल पर आपातकाल का सामना करें !
हिन्दुओ, अपने त्योहारों का महत्त्व जानो । लाखों वर्ष पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने अनेक प्रकार से इन देवी-देवताआें का जो गुणगान, स्तवन, जप-तप-व्रत किया था तथा परंपरागत त्योहारों-उत्सवों का महत्त्व बताया था, उसे समझो । उन ऋषि-मुनियों ने देवताआें का ध्यान और उपासना कर, उन्हें प्रसन्न कर लिया था और विश्वकल्याण के लिए उनसे वर प्राप्त किया था । उन्होंने अनेक वर्ष कठोर साधना कर, अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त किया था और वह ज्ञानभंडार मानवजाति के लिए लिखकर रखा था । उनका यह उपकार कभी न भूलें । आइए, हम सब उपासना कर, भक्त बनकर, देवताआें की कृपा प्राप्त करें ! आज की मानवजाति संस्कृतिविहीन होकर स्वार्थपूर्ति के लिए पूरी सृष्टि को ही नष्ट करने के लिए तत्पर है । विनाश के कगार पर खडे आज के संसार को विज्ञान नहीं, अध्यात्म, धर्म और देवता ही बचा सकते हैं । परंतु, इसके लिए साधना करनी आवश्यक है । हिन्दुओ, साधना करने के लिए धर्मशिक्षा लीजिए । स्वयं धर्माचरण करें और दूसरों को इसके लिए समझाएं । धर्म और संस्कृति की रक्षा करें ! राष्ट्र को बचाएं ! श्रीगणेश और श्रीकृष्ण की कृपा अर्जित कर धर्मबल बढाएं, हिन्दू राष्ट्र स्थापित करें और रामराज्य का सुप्रभात देखने के लिए तत्पर रहें !
गुरुदेव, आज के दैनिकपत्र में श्रीगणेश का अनादरयुक्त चित्र देखकर मन को बहुत कष्ट हुआ । उस कष्ट से आपने ही मुझे बाहर निकाला और उपर्युक्त विचार सुझाया । इसलिए, यह लेख आपके चरणों पर कृतज्ञतापूर्वक समर्पित करती हूं ।
– श्रीमती रजनी साळुंके, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (२९.८.२०१४)
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात