आनंद
अनुक्रमणिका
१. परिभाषा
२. समानार्थी शब्द
३. आनंद और शांति
४. आनंद पाने की इच्छा क्यों होती है ?
५. आत्मा (जीव) आनंदरूप होने पर भी, उसे आनंद की अनुभूति क्यों नहीं होती ?
६. जीव आनंद से क्यों नहीं ऊबता ?
७. सप्तलोक तथा आनंद
८. समय (काल) और आनंद
१. आनंद : परिभाषा
१ अ. आनंद अर्थात ज्ञानेंद्रियों, मन तथा बुद्धि का उपयोग किए बिना जीवात्मा अथवा शिवात्मा को होनेवाली अनुकूल संवेदना
१ आ. यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणाप्यविचाल्यते । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक २२
अर्थ : महाभयंकर दुःख की स्थिति में भी आनंदमय रहना, आत्मानंद है ।
१ इ. सुखमात्यन्तिकं यत्तत् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक २१, २२
अर्थ : जिसे प्राप्त करने के उपरांत अन्य कुछ पाने की इच्छा नहीं होती, जो इंद्रियों से नहीं उत्पन्न होता तथा पवित्र बुद्धि से ग्रहण किया जाता है, उसे आत्मानंद कहते हैं ।
१. ई. जब चित्त सदैव संतुष्ट रहने लगे, तब उसमें जो वृत्ति उभरती है, उसे आनंद’ कहते हैं । जब संपूर्ण चित्त सात्त्विकता से भरा हो और किसी रज-तमयुक्त घटना से यह सात्त्विकता न घटे, तब चित्त पर आत्मानंद का प्रतिबिंब पडता है । परंतु, ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि वास्तविक आनंद अभी भी सात्त्विकता से दूर है ।
२. आनंद : समानार्थी शब्द
पारमार्थिक आनंद, आध्यात्मिक सुख, नित्य सुख ।
३. आनंद और शांति
सच्चिदानंद (सत्-चित्-आनंद) यह भी ब्रह्म का सच्चा स्वरुप नहीं है । क्योंकि, सच्चिदानंद भाव चित्तवृत्तिजन्य है । ब्राह्मण, अर्थात निवृत्ति, अर्थात शांति । केवल विषय को ठीक से समझने के लिए ब्रह्म को आनंदावस्था तथा परब्रह्म को शांति की अवस्था’ कह सकते हैं । निर्विकल्प समाधि में शांति की अनुभूति होती है । शांतं उपासितम्’ यह उपनिषद का वाक्य है । इसका अर्थ यह है कि ‘साधना से प्राप्त शिवदशा में आनंद की तथा शिवात्मा दशा में शांति की अनुभूति होती है ।’
४. आनंद पाने की इच्छा क्यों होती है ?
भावार्थ : आनंद हममें पहले से भरा है; साधना करने से हमें इसकी अनुभूति होती है । शरीररूपी सरोवर में आनंदरूपी तरंगे उठती हैं । संपूर्ण शरीर में केवल आनंद अनुभव होता है । अपने में आनंद की अनुभूति होने के उपरांत, चराचर में स्थित आनंद की अनुभूति होती है । आनंद, जीव तथा विश्व का स्थायीभाव, स्वभाव और स्वधर्म है । इसलिए, जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति अपना मूलरूप आनंद प्राप्त करने की होती है । जब उसे यह मूलरूप (आनंद) मिल जाता है, तब वह इसे स्थायी बनाना चाहता है ।
५. आत्मा (जीव) आनंदस्वरूप होने पर भी उसे आनंद की अनुभूति क्यों नहीं होती ?
यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ।। – श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ३, अध्याय ७, श्लोक १७
अर्थ : विश्व में दो ही प्रकार के लोग आनंदित रहते हैं – १. संपूर्ण अज्ञानी तथा २. बुद्धि की सीमा लांघे हुए ज्ञानी । बीच की अवस्था के लोग दुख भोगते हैं ।
६. जीव आनंद से क्यों नहीं ऊबता ?
क्योंकि, आनंद जीव का स्वभाव है । जिस प्रकार, चीनी का स्वभाव मधुर है, उसी प्रकार यह है ।
७. सप्तलोक तथा आनंद
एक लोक का आनंद दूसरे लोक के आनंद का एक करोड गुना होता है । उदाहरणार्थ, भुवलोक में साधना करनेवाले जीव को मिलनेवाला आनंद, भूलोक के जीव को मिलनेवाले आनंद का एक करोड गुना होता है ।
८. समय (काल) और आनंद
काल (समय) तथा आनंददुख में देहभान रहता है; इसलिए उसका समय लंबा जान पडता है । इसके विपरीत, सुख में देहभान नहीं रहता; इसलिए, उसका समय छोटा जान पडता है । अर्थात, देहभान के कारण हमें समय दीर्घ लगता है । वास्तविक, काल-वाल कुछ नहीं होता ।’ – परम पूज्य काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.
८. अ. ग्रह तथा सुख-दुख
कर्मभोग भोगने के लिए ही व्यक्ति अनुकूल ग्रह-दशा में जन्म लेता है । इसलिए, ग्रहों के कारण व्यक्ति सुख-दुख भोगता है, यह कहना उचित नहीं ।
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ, ‘शाश्वत आनंदप्राप्ति, अर्थात ईश्वरप्राप्ति का शास्त्र’