सारणी
१. कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाका ऐतिहासिक महत्त्व
५. मार्गपाली बंधन एवं नगरप्रवेश विधि
१. कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाका ऐतिहासिक महत्त्व
यह विक्रम संवत कालगणनाका आरंभ दिन है । ईसा पूर्व पहली शताब्दीमें शकोंने भारतपर आक्रमण किया । वर्तमान उज्जयिनी नगरीके राजा विक्रमादित्यने, मालवाके युवकोंको युद्धनिपुण बनाया । शकोंपर आक्रमण कर उन्हें देशसे निकाल भगाया एवं धर्माधिष्ठित साम्राज्य स्थापित किया । इस विजयके प्रतीकस्वरूप सम्राट विक्रमादित्यने विक्रम संवत् नामक कालगणना, आरंभ की । ईसा पूर्व सन् सत्तावनसे यह कालगणना प्रचलित है । इससे स्पष्ट होता है कि, कालगणनाकी संकल्पना भारतीय संस्कृतिमें कितनी पुरानी है । ईसा पूर्व कालमें संस्कृतिके वैभवकी, सर्वांगीण सभ्यताकी और एकछत्र राज्यव्यवस्थाकी यह एक निशानी है ।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा वर्षके साढेतीन प्रमुख शुभ मुहूर्तोंमेंसे आधा मुहूर्त है । इसलिए भी इस दिनका विशेष महत्त्व है । कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाके दिन कुछ विशेष उद्देश्योंसे विविध धार्मिक विधियां करते हैं । प्रत्येक विधि करनेका समय भिन्न होता है ।
२. बलिप्रतिपदा मनानेकी पद्धति
बलिप्रतिपदाके दिन प्रातः अभ्यंगस्नानके उपरांत सुहागिनें अपने पतिका औक्षण करती हैं । दोपहरको भोजनमें विविध पकवान बनाए जाते हैं । इस दिन लोग नए वस्त्र धारण करते हैं एवं संपूर्ण दिन आनंदमें बिताते हैं । कुछ लोग इस दिन बलिराजाकी पत्नी विंध्यावलि सहित प्रतिमा बनाकर उनका पूजन करते हैं । इसके लिए गद्दीपर चावलसे बलिकी प्रतिमा बनाते हैं । इस पूजाका उद्देश्य है, कि बलिराजा वर्षभर अपनी शक्तिसे पृथ्वीके जीवोंको कष्ट न पहुंचाएं तथा अन्य अनिष्ट शक्तियोंको शांत रखें । इस दिन रात्रिमें खेल, गायन इत्यादि कार्यक्रम कर जागरण करते हैं । अब तक हमने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाका महत्व तथा इस दिन करनेयोग्य विधियोंकी जानकारी प्राप्त की । बलिप्रतिपदाके उपरांत आती है यमद्वितीया अर्थात भाईदूज ।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, बलिप्रतिपदा के रूपमें मनाई जाती है । इस दिन भगवान श्री विष्णुने दैत्यराज बलिको पातालमें भेजकर बलिकी अतिदानशीलताके कारण होनेवाली सृष्टिकी हानि रोकी । बलिराजाकी अतिउदारताके परिणामस्वरूप अपात्र लोगोंके हाथोंमे संपत्ति जानेसे सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई । तब वामन अवतार लेकर भगवान श्रीविष्णुने बलिराजासे त्रिपाद भूमिका दान मांगा । उपरांत वामनदेवने विराट रूप धारण कर दो पगमेंही संपूर्ण पृथ्वी और अंतरिक्ष व्याप लिया । तब तीसरा पग रखनेके लिए बलिराजाने उन्हें अपना सिर दिया ।
वामनदेवने बलिको पातालमें भेजते समय वर मांगनेके लिए कहा । उस समय बलिने वर्षमें तीन दिन पृथ्वीपर बलिराज्य होनेका वर मांगा । वे तीन दिन हैं – नरक चतुर्दशी, दीपावलीकी अमावस्या और बलिप्रतिपदा । तबसे इन तीन दिनोंको `बलिराज्य’ कहते हैं । धर्मशास्त्र कहता है कि बलिराज्यमें `शास्त्रद्वारा बताए निषिद्ध कर्म छोड़कर, लोगोंको अपने मनानुसार आचरण करना चाहिए । शास्त्रकी दृष्टिसे अभक्ष्यभक्षण अर्थात मांसाहार सेवन, अपेयपान अर्थात निषिद्ध पेयका सेवन एवं अगम्यागमन अर्थात गमन न करने योग्य स्त्रीके साथ सहवास; ये निषिद्ध कर्म हैं । इसका योग्य भावार्थ समझकर हमें बलिप्रतिपदा मनानी चाहिए । इसीलिए पूर्वकालमें इन दिनों लोग मदिरा नहीं पीते थे ! शास्त्रोंसे स्वीकृति प्राप्त होनेके कारण परंपरानुसार लोग मनोरंजनमें समय बिताते हैं । परंतु आज इसका अतिरेक होता हुआ दिखायी देता है । लोग इन दिनोंको स्वैराचार अर्थात स्वेच्छाचार के दिन मानकर मनमानी करते हैं । बडी मात्रामें पटाखे जलाकर राष्ट्रकी संपत्तिकी हानि करते हैं । कुछ लोग जुआ खेलकर पैसा उडाते हैं । खान-पान, रात्रि देर तक जागने व चलचित्र, नाटक देखनेमें अधिकांश समय व्यतीत करते हैं ।
३. गोवर्धनपूजन
भगवान श्रीकृष्णद्वारा इस दिन इंद्रपूजनके स्थानपर गोवर्धनपूजन आरंभ किए जानेके स्मरणमें गोवर्धन पूजन करते हैं । इसके लिए कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाकी तिथिपर प्रात:काल घरके मुख्य द्वारके सामने गौके गोबरका गोवर्धन पर्वत बनाते हैं । शास्त्रमें बताया है कि, इस गोवर्धन पर्वतका शिखर बनाएं । वृक्ष-शाखादि और फूलोंसे उसे सुशोभित करें । परंतु अनेक स्थानोंपर इसे मनुष्यके रूपमें बनाते हैं और फूल इत्यादिसे सजाते हैं । चंदन, फूल इत्यादिसे उसका पूजन करते हैं और प्रार्थना करते हैं,
गोवर्धन धराधार गोकुलत्राणकारक ।
विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव ।। – धर्मसिंधु
इसका अर्थ है, पृथ्वीको धारण करनेवाले गोवर्धन ! आप गोकुलके रक्षक हैं । भगवान श्रीकृष्णने आपको भुजाओंमें उठाया था । आप मुझे करोडों गौएं प्रदान करें । गोवर्धन पूजनके उपरांत गौओं एवं बैलोंको वस्त्राभूषणों तथा मालाओंसे सजाते हैं । गौओंका पूजन करते हैं । गौमाता साक्षात धरतीमाताकी प्रतीकस्वरूपा हैं । उनमें सर्व देवतातत्त्व समाए रहते हैं । उनके द्वारा पंचरस प्राप्त होते हैं, जो जीवोंको पुष्ट और सात्त्विक बनाते हैं । ऐसी गौमाताको साक्षात श्री लक्ष्मी मानते हैं । उनका पूजन करनेके उपरांत अपने पापनाशके लिए उनसे प्रार्थना करते हैं । धर्मसिंधुमें इस श्लोकद्वारा गौमातासे प्रार्थना की है,
लक्ष्मीर्या लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।
घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु ।। – धर्मसिंधु
इसका अर्थ है, धेनुरूपमें विद्यमान जो लोकपालोंकी साक्षात लक्ष्मी हैं तथा जो यज्ञके लिए घी देती हैं, वह गौमाता मेरे पापोंका नाश करें । पूजनके उपरांत गौओंको विशेष भोजन खिलाते हैं । कुछ स्थानोंपर गोवर्धनके साथही भगवान श्रीकृष्ण, गोपाल, इंद्र तथा सवत्स गौओंके चित्र सजाकर उनका पूजन करते हैं और उनकी शोभायात्रा भी निकालते हैं ।
४. अन्नकूट
`कूट’ का अर्थ है, पहाड अथवा पर्वत । अन्नकूट उत्सवके रूपमें मनाते हैं । इस उत्सवमें भगवान श्रीविष्णुको समर्पित करनेके लिए पकवानोंके पर्वत जैसे ढेर बनाते हैं । इसीलिए इस उत्सवको `अन्नकूट’ के नामसे जानते हैं । भागवतमें इसका वर्णन आता है । उसके अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाकी तिथिपर देवताके नैवेद्यमें नियमित पदार्थोंके अतिरिक्त यथाशक्ति अनेक प्रकारके व्यंजन बनाकर अर्पित करने चाहिए । इनमें दाल, भात अर्थात पके हुए चावल, कढी, साग इत्यादि `कच्चे’ व्यंजन; हलवा, पूरी, खीर इत्यादि `पके’ व्यंजन; लड्डू, पेडे, बर्फी, जलेबी इत्यादि `मीठे’ व्यंजन; केले, अनार, सीताफल इत्यादि `फल’; बैंगन, मूली, साग-पात, रायता, भूजिया इत्यादि `सलूने’ अर्थात नमकीन, रसीले और चटनी, मुरब्बे, अचार इत्यादि `खट्टे-मीठे-चटपटे’ व्यंजनोंका समावेश होना चाहिए । तथा इनका यथाशक्ति दान भी करना चाहिए ।
प्राचीन कालमें काजवासी इंद्रपूजनमें छप्पन भोग, छत्तीसों व्यंजन बनाकर इंद्रको निवेदित करते थे । श्रीकृष्णके बतानेपर बृजवासियोंने इंद्रपूजनके स्थानपर गोवर्धनका पूजन करना आरंभ किया । तबसे अन्नकूट गोवर्धन पूजनका ही एक भाग है । इसीके स्मरणमें गोवर्धन पूजनके उपरांत अन्नकूट उत्सव मनाते हैं । इससे भगवान श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं । बृजके साथ मथुरा, वृंदावन, गोकुल, बरसाना, काशी, नाथद्वारा इत्यादि स्थानोंके मंदिरों यह उत्सव बडे ही हर्षोल्लासके साथ मनाया जाता है ।
५. मार्गपाली बंधन एवं नगरप्रवेश विधि
`मार्गपाली’ अर्थात मार्गपर लगा हुआ बंदनवार । मार्गपाली बंधन गांवके समस्त जीवोंके आरोग्य हेतु आवश्यक विधि है । धर्मसिंधु एवं आदित्यपुराणमें मार्गपाली के विषयमें वर्णन आता है । उसमें बताया है कि, कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाके सायंकालमें कुश अथवा कांसका लंबा और पक्का रस्सा बनाकर उसमें अशोक के पत्ते गूंथकर बंदनवार बनवाएं और गांवके प्रवेश-स्थानपर उसे ऊंचे स्तंभोंपर बांध दें । गंध, फूल इत्यादि चढाकर उसका पूजन करें ।
मार्गपालि नमस्तेज्ञ्स्तु सर्वलोकसुखप्रदे ।
विधेयै: पुत्रदाराद्यै: पुनरेहि कातस्य मे ।। – धर्मसिंधु, आदित्यपुराण
अर्थात हे सर्व प्राणिमात्रको सुख देनेवाली मार्गपाली, आपको मेरा नमस्कार है । पुत्र, पत्नी इत्यादि द्वारा आपको पिरोया है । मेरे व्रतके लिए पुन: एकबार आपका आगमन हो । इस प्रकार मार्गपालीसे प्रार्थना करें । पूजनके उपरांत सर्वप्रथम उस स्थानका प्रधान पुरुष और उसके पीछे वहांके नर-नारी जयघोष करते हुए तथा हर्षोल्लासके साथ उसके नीचेसे गांवमें प्रवेश करें । तदुपरांत प्रधान पुरुष सौभाग्यवती स्त्रियोंद्वारा नीराजन अर्थात औक्षण अर्थात आरती करायें । मार्गपालीके नीचे होकर निकलनेसे, आनेवाले वर्षमें सर्व प्रकारकी सुख-शान्ति रहती है, रोग दूर होते हैं और गांवकी समस्त जनताके साथ पशु भी निरोगी एवं प्रसन्न रहते हैं।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय