व्रतों के लाभ एवं प्रकार

सारणी

१. शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य
२. चूकका परिमार्जन
३. त्रिदोष निवारण
४. भगवत्प्राप्ति
५. व्रतसे सबकुछ साध्य होता है
६. व्रतोंके प्रकार

   ६.१ काम्य अर्थात सकाम व्रत
   ६.२ निष्काम व्रत
   ६.३ नित्य एवं नैमित्तिक व्रत
   ६.४ इंद्रियानुसार व्रत
   ६.५ कालानुसार व्रत
   ६.६ देवतानुसार व्रत

 

१. शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य

        मूलतः व्रतोंकी परिकल्पना ही मनुष्यके ऐहिक अर्थात व्यावहारिक एवं पारमार्थिक कल्याणहेतु की गई है । व्रतोंका पालन करनेसे मनुष्यको विविध प्रकारके लाभ होते हैं । पृथ्वीका धर्म है घूमना । पृथ्वीके घूमनेसे परिवर्तन होते रहते हैं, जैसे पृथ्वीद्वारा अपनी ही धुरी अर्थात axis पर घूमनेसे रात तथा दिन होते हैं । पृथ्वीद्वारा सूर्यकी परिक्रमासे ऋतुएं आती हैं । जब ये परिवर्तन होते हैं, तब मनुष्य विविध प्रकारकी शारीरिक एवं मानसिक व्याधियोंसे ग्रस्त होता है । इनका निवारण व्रताचारसे होता है । भीष्माचार्यने व्रत लिया था, कि वे स्त्रीके साथ युद्ध नहीं करेंगे; इसलिए उन्होंने शिखंडीसे युद्ध नहीं किया, क्योंकि वह पिछले जन्ममें स्त्री था । इस युद्धमें शिखंडीने अपने बाणोंसे भीष्माचार्यको घायल कर दिया । तत्पश्चात भी भीष्माचार्यजीको अपने व्रतके कारण शिखंडीके बाणोंसे वेदना न होकर, आनंद ही मिला ।

 

२. चूक का परिमार्जन

        मनुष्य जीवनमें उसके स्वभावदोषोंके कारण ही अधिकांश समस्याओंका प्रादुर्भाव होता है । दोषोंके कारण उससे चूक होती है एवं उसका पाप बढता है । चूकोंके कारणही उसे दुःखोंका सामना करना पडता है । व्रतोंके कारण यह दोष दूर होकर मनुष्यका मन शुद्ध होता है । उसकी चूकका परिमार्जन होता है । व्रत, उपवास, नियम, शरीरशुद्धि एवं मनशुद्धिके कारण मनुष्य सर्व पापोंसे मुक्त होता है ।

 

३. त्रिदोष निवारण

      प्राणीमात्रके अंतःकरणमें मल, विक्षेप एवं आवरण, ऐसे तीन दोष हैं । शास्त्रानुसार नित्यनैमित्तिक व्रतोंका कर्माचरण करनेसे ये तीन दोष नष्ट होते हैं । शास्त्रद्वारा अभक्ष्यभक्षण अर्थात शास्त्रमें बताए अनुसार जो सेवन करने योग्य नहीं है, अपेयपान अर्थात शास्त्रने जो पदार्थ पीनेके लिए मना किया है, व्यभिचार अर्थात पराई स्त्री अथवा पुरुषसे संबंध रखना, परद्रव्यापहार अर्थात दूसरोंका द्रव्य हडपना, दुष्टबुद्धि, शास्त्रविरुद्ध व्यवहार इत्यादि निषिद्ध ठहराए गए हैं । ऐसे अनेक निषिद्ध विषयोंके सेवनसे जो वासना उत्पन्न होती है, उसे मलदोष कहते हैं । यह मलदोष नित्यनैमित्तिक व्रतोंके आचरणसे नष्ट होता है । चित्तशुद्धि होकर भगवानके प्रति प्रीति दृढ होती है । भगवानके प्रति सर्वोत्कृष्ट प्रीति दृढ होनेके उपरांत,नित्यनैमित्तिक व्रतोंकी उपासना ईश्वरार्पण बुद्धिसे होती है । इससे अंतःकरणका विक्षेपदोष अर्थात distraction नष्ट होता है । विक्षेपदोष नष्ट हो जानेपर, व्यक्तिमें निग्रह अर्थात restraint उत्पन्न होता है । फिर गुरु एवं वेदवाक्यके प्रति उसके मनमें श्रद्धाके भाव जागृत होते हैं एवं बुद्धिका आवरण नष्ट हो जाता है । इसके आगे उसे ज्ञानप्राप्ति होती है एवं वह मोक्षतक पहुंचता है ।

 

४. भगवत्प्राप्ति

कूर्मपुराणमें ऐसा उल्लेख है कि व्रतोंसे भगवत्प्राप्ति होती है । इसके संदर्भमें कूर्मपुराणका यह श्लोक कहता है,

व्रतोपवासैर्नियमैर्होमैर्ब्राह्मणतर्पणैः। तेषांवैरुद्रसायुज्यं जायते तत् प्रसादतः।।

इसका अर्थ है, व्रत, उपवास, नियम अर्थात योगमार्गांतर्गत यम-नियम, होम, ब्राह्मणतर्पणके प्रसादके रूपमें सायुज्य मुक्ति मिलती है ।

 

५. व्रतसे सबकुछ साध्य होता है

        व्रत करनेसे मनुष्यको ज्ञानशक्ति प्राप्त होती है, उसकी विचारसंपदा बढती है । व्रतसे मनुष्यका मन तथा बुद्धि शुद्ध होती है । ईश्वरके प्रति श्रद्धा, भक्ति बढती है । व्रतसे अरिष्ट अर्थात संकट दूर होते हैं । मनुष्य महापापसे मुक्त होता है । मनुष्यको तेज, बल, धनधान्य शौर्य आदि प्राप्त होते हैं । पंढरपुरकी यात्रा, अमरनाथ यात्रा, बद्री-केदारनाथ यात्रा, कुंभ मेला, सार्वजनिक दुर्गापूजा जैसे व्रत करनेसे हिंदु परिवार एवं समाजमें एकताके बंधन दृढ होनेमें बडी सहायता होती है ।

 

६. व्रतोंके प्रकार

         व्रतोंका उद्देश्य, उनके पालनकी विधि, उनकी फलप्राप्ति इत्यादिके अनुसार व्रतोंके विभिन्न प्रकार हैं ।

६.१ काम्य अर्थात सकाम व्रत

        एक विशिष्ट कामना हेतु किए गए व्रतको ‘सकाम व्रत’ कहते हैं । कौनसी कामनाके लिए कौनसा व्रत करना चाहिए, यह पुराण एवं तंत्रग्रंथमें बताया गया है । सकाम व्रत नैमित्तिक व्रत है । मुहूर्त तथा दिनशुद्धि देखकर विशिष्ट तिथिपर ही सकाम व्रत किए जाते हैं । ‘सत्यनारायण एवं सत्यदत्त व्रतसे कामना शीघ्र पूर्ण होती है’, ऐसी धारणाके कारण अधिकांश लोग यह व्रत रखते हैं । व्रतोंसे उस व्रतके अधिष्ठाता देवता प्रसन्न होते हैं एवं उनकी कृपासे व्रतका फल मिलता है ।

६.२ निष्काम व्रत

         यह शब्द व्यावहारिक विषयोंकी कामना न रखनेके संदर्भमें ही है । निष्काम उपासनामें भी ईश्वरप्राप्ति अथवा मोक्षकी इच्छा होती है । परंतु निष्काम उपासनामें ऐसी भावना होती है कि जो ईश्वरकी इच्छा, वैसीही हमारी इच्छा हो ।

६.३ नित्य एवं नैमित्तिक व्रत

         नित्य एवं नैमित्तिक व्रत : वर्णाश्रमके अनुसार करने योग्य कर्तव्य, जैसे ब्रह्मचर्य, पूजा, संध्या इत्यादि प्रतिदिन करने चाहिए । नैमित्तिक व्रत निश्चित तिथियोंपर ही करते हैं, जैसे वटसावित्री, मंगलागौरी, हरितालिका, गणेश चतुर्थी इत्यादि ।

६.४ इंद्रियानुसार व्रत

         इनमें उपवास करना, एकभुक्त रहना, हिंसा न करना इत्यादि कायिक अर्थात शारीरिक नामजप करना, सत्य बोलना, मृदुभाषण करना इत्यादि । वाचिक तथा ब्रह्मचर्य पालन, मनसे भी हिंसा न करना, क्रोध न आने देना इत्यादि मानसिक व्रत होते है ।

६.५ कालानुसार व्रत        

     कालके अनुसार व्रतोंके अयन, संवत्सर, मास, पक्ष एवं पंचांग अर्थात तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण इत्यादि वर्ग बनते हैं ।

६.६ देवतानुसार व्रत

         जिस देवताकी उपासना करनी है, उसके अनुसार गणेशव्रत, सूर्यव्रत, शिवव्रत, विष्णुव्रत, देवीव्रत जैसे व्रत भी होते हैं । अब तक हमने व्रतोंके विविध प्रकार देखे । अधिकांश व्रत स्त्री एवं पुरुष, दोनों रख सकते हैं; परंतु हरितालिका, वटसावित्री जैसे कुछ व्रत केवल स्त्रियोंके लिए ही हैं ।

(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ-त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)

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