तर्पण एवं पितृ तर्पण

१. तर्पण

अ. व्युत्पत्ति एवं अर्थ

‘तृप्’ अर्थात तृप्त अथवा संतुष्ट करना । ‘तृप्’ धातु से ‘तर्पण’ शब्द बना है । देवताओं, ऋषियों एवं पितरों को जल की अंजलि देकर तृप्त करना, अर्थात तर्पण ।

आ. उद्देश्य

जिनके नामों का उल्लेख कर तर्पण किया जाता है, वे देव, पितर इत्यादि हमारा कल्याण करें ।

इ. प्रकार

ब्रह्मयज्ञांग (यज्ञ के समय किया जानेवाला), स्नानांग (नित्य स्नान के उपरांत किया जानेवाला), श्राद्धांग (श्राद्ध में किया जानेवाला), ऐसे अनेक प्रकार के श्राद्धों का अविभाज्य घटक तर्पण होता है और उसे उस विशेष अवसर पर करना होता है ।

ई. तर्पण की पद्धति

१. बोधायन ने कहा है, ‘तर्पण नदी पर करें ।’ यह विधी नदी में नाभि तक पानी में खडे रहकर अथवा नदी के किनारे बैठकर करें ।

२. देवताओं तथा ऋषियों के लिए पूर्व की ओर मुख कर तथा पितरों के लिए दक्षिण की ओर मुख कर यह विधी करना चाहिए ।

३. धर्मशास्त्र बताता है, ‘देवताओं कोे तर्पण सव्य (यज्ञोपवीत बाएं कंधे पर रखकर) से, ऋषि को निवीत (यज्ञोपवीत गले में पहन कर) से एवं पितरों को अपसव्य (यज्ञोपवीत दाएं कंधे पर लेकर) से करें ।’

४. इस विधी के लिए दर्भ (कुश) की आवश्यकता होती है । दर्भ के अग्रभाग से देवताओं के लिए, दर्भ को मध्य से मोडकर ऋषियों के लिए तथा दो दर्भ के मूल भाग से पितरों के लिए तर्पण करें ।

५. हाथ की उंगलियों के अग्रभाग में स्थित देवतीर्थ से देवताओं को, अनामिका एवं कनिष्ठा के मूल से ऋषियों को और तर्जनी एवं अंगूठे के मध्यभाग से पितरों को जल दें ।

६. प्रत्येक देवता को एक, ऋषि को दो एवं पितर को तीन अंजली तर्पण दें ।

 

२. पितृ तर्पण

अ. व्याख्या

पितरों के नाम से दिया गया जल अर्थात पितृतर्पण । जीवित व्यक्ति के लिए यह विधी करना मना है । महालय श्राद्ध का इसे अपवाद है ।

आ. तर्पण क्यों करना चाहिए ?

जिस प्रकार पितरों को अपने वंशजों से पिंड एवं ब्राह्मण भोजन की अपेक्षा रहती है, उसी प्रकार जल की भी इच्छा होती है ।

इ. महत्त्व

इस विधी से पितर संतुष्ट होकर, तर्पणकर्ता को भी तेज, ब्रह्मवर्चस्व, संपत्ति, यश एवं अन्नाद्य (खाए हुए भोजन को पचाने की शक्ति) देकर तृप्त करते हैं ।

ई. कब करें ?

देवता, ऋषि एवं पितरों के नाम से प्रतिदिन तर्पण करें । यह प्रातः स्नानोपरांत करें । पितरों के लिए प्रतिदिन श्राद्ध करना संभव न हो, तब तर्पण अवश्य करें ।

तर्पण, tarpan

उ. तिल तर्पण

पितृतर्पण में तिल लें । तिल के दो प्रकार हैं – काले एवं श्वेत । श्राद्ध में काले तिलों का उपयोग करें ।

१. ‘तिलमिश्रित जल अर्पित करने को ‘तिलतर्पण’ कहते हैं ।

२. जिन पितरों का नाम लेकर श्राद्ध किया गया हो, उन्हीं के नाम से तिलतर्पण करना चाहिए ।

३. दर्शश्राद्ध हो, तब उसके पहले और प्रतिसांवत्सरिक श्राद्ध हो, तब उसके अगले दिन तिलतर्पण किया जाता है । अन्य प्रकार के श्राद्धों में तिलतर्पण, श्राद्धकर्म समाप्ति के पश्चात तुरंत करते हैं ।

४. नांदीश्राद्ध, सपिंडीश्राद्ध आदि में तिलतर्पण नहीं करते ।’

ऊ. तिलतर्पण का महत्त्व

१. ‘पितरों को तिल प्रिय है ।

२. तिल का प्रयोग होने पर असुर श्राद्ध में विघ्न नहीं डालते ।

३. श्राद्ध के दिन घर में सर्वत्र तिल बिखेरें, आमंत्रित ब्राह्मणों को तिलमिश्रित जल दें एवं तिल का दान करें ।’

– जैमिनीयगृह्यसूत्र (उत्तरभाग, खण्ड १), बौधायनधर्मसूत्र (प्रश्न २, अध्याय ८, सूत्र ८) एवं बौधायनगृह्यसूत्र

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग १) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’

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