गुरुपूर्णिमा के दिन गुरुतत्त्व १ सहस्र गुना मात्रा में कार्यरत होने से गुरुपूर्णिमा सभी शिष्य, भक्त एवं साधकों के लिए एक अनोखा पर्व होता है । केवल गुरुकृपा के कारण ही साधक की आध्यात्मिक उन्नति होती है । इस दृष्टि से सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा साधना की दृष्टि से समय-समय पर दिए गए चिरंतन दृष्टिकोण यहां दे रहे हैं । उनके द्वारा किए गए मार्गदर्शन के अनुसार हमें साधना में वृद्धि करना संभव हो; इसके लिए हम उनके चरणों में शरणागत भाव से प्रार्थना करते हैं !
१. गुरुपूर्णिमा का महत्त्व
१ अ. वास्तविक शिष्य को गुरु का प्रतिक्षण स्मरण रहता है !
गुरुपूर्णिमा अर्थात गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है ! वास्तविक शिष्य को प्रत्येक क्षण गुरु का स्मरण रहता है । प्राथमिक अवस्था के शिष्य को वर्ष में कम से कम एक बार तो गुरु का स्मरण हो, इसके लिए भी गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है ! हमें साधना में अच्छे साधक से आदर्श शिष्य तक की यात्रा करनी है । इसके लिए हमें वर्ष के ३६५ दिन गुरु के प्रति कृतज्ञता भाव रखकर गुरु द्वारा बताया धर्मकार्य करना चाहिए।
१ आ. शिष्य के जीवन में गुरु का अनन्य महत्त्व !
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।, अर्थात शिष्य का परममंगल, अर्थात मोक्षप्राप्ति, उसे केवल गुरुकृपा से ही हो सकती है । गुरु के कारण ही शिष्य की जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति होती है, इसलिए शिष्य के जीवन में गुरु का अनन्य महत्त्व है । हममें से प्रत्येक व्यक्ति छोटी-छोटी बातों के लिए भी शिक्षक, वैद्य (डॉक्टर) इत्यादि किसी दूसरे से मार्गदर्शन लेता है । फिर जन्म-मृत्यु के फेरे से मुक्ति दिलानेवाले गुरु का मार्गदर्शन और महत्त्व कितना होगा, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते !
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी मोक्षगुरु तो हैं ही; पर वे श्रीविष्णु के अंशावतार भी हैं । जब अवतार का जन्म होता है, तब अनेकों का उद्धार होता है, यही परात्पर गुरु डॉक्टरजी कर रहे हैं । हमें तो उनके मार्गदर्शन में साधना करने का अवसर मिला है, तब हमारा उद्धार भला क्यों नहीं होगा ?
१ इ. साधक की दृष्टि से आध्यात्मिक उन्नति का मूल्यांकन करने का दिन !
प्रति वर्ष हम गुरुपूर्णिमा पर देश-विदेश के साधकों की आध्यात्मिक उन्नति बतानेवाली सारणी सनातन प्रभात में प्रकाशित करते हैं । इससे परात्पर गुरु डॉक्टरजी साधकों को गुरुपूर्णिमा के निमित्त अपनी आध्यात्मिक उन्नति का मूल्यांकन करने की ही शिक्षा दे रहे हैं ।
२. परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा दिए साधना संबंधी चिरंतन दृष्टिकोण का महत्त्व !
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने आज तक समय-समय पर साधकों की व्यष्टि एवं समष्टि साधना भलीभांति हों और उनकी आध्यात्मिक उन्नति हो, इस उद्देश्य से साधना संबंधी चिरंतन दृष्टिकोण दिए हैं । गुरुपूर्णिमा के निमित्त परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा दिए साधना संबंधी ये दृष्टिकोण हम समझेंगे । यहां से आगे का संपूर्ण विषय परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा समय-समय पर दिए साधना संबंधी दृष्टिकोण पर आधारित है । आइए इसका भावपूर्ण, एकाग्रचित्त से और अंतर्मुख होकर श्रवण करें ।
३. व्यष्टि साधना के विषय मेंसाधकों के लिए उपयुक्त दृष्टिकोण
३ अ. व्यष्टि साधना का महत्त्व !
व्यष्टि साधना, समष्टि साधना की अर्थात हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के कार्य की नींव है । व्यष्टि साधना से समष्टि साधना (कार्य) प्रभावी होती है । प्रत्येक साधक को व्यष्टि साधना के लिए प्रतिदिन २ – ३ घंटे देना आवश्यक है ।
३ आ. सनातन की दृष्टि से हिन्दू राष्ट्र महत्त्वपूर्ण नहीं; साधक की आध्यात्मिक उन्नति महत्त्वपूर्ण है
मोक्षप्राप्ति हमारा ध्येय है, इसे साधक कभी न भुलाएं । केवल कार्य की ओर ध्यान न दें; क्योंकि काल महिमा के अनुसार हिन्दू राष्ट्र अवश्य स्थापित होगा । इस कार्य में सहभागी होकर प्रत्येक साधक की आध्यात्मिक उन्नति होना महत्त्वपूर्ण है । २ – ३ कार्यात्मक कृतियां अल्प हुई तो चलेगा; परंतु कार्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है आध्यात्मिक उन्नति । साधक मुझे पुनः जन्म नहीं लेना है, ऐसा विचार कर मोक्षप्राप्ति हेतु साधना करने का खरा स्वार्थ (स्व का अर्थ) साध्य करें । सनातन की दृष्टि से हिन्दू राष्ट्र महत्त्वपूर्ण नहीं है; साधकों की आध्यात्मिक उन्नति महत्त्वपूर्ण है ।
३ इ. शारीरिक समस्याआें की ओर ध्यान दें !
साधक शारीरिक चोट, रोग आदि की अनदेखी न कर समय रहते चिकित्सा उपचार करें; क्योंकि शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।, अर्थात शरीर धर्मपालन करने का पहला साधन है, ऐसा धर्मकहता है ।
साधना संबंधी चिरंतन दृष्टिकोण
१. साधना की लगन कैसी हो ?
जल बिन मछली जैसी । पर साधकों की लगन ईश्वर कब मिलेंगे ?, इस विषय में नहीं, अपितु साधना भलीभांति होने के विषय में होनी चाहिए ।
२. साधना में फल की अपेक्षा नहीं, निरंतरता रखें !
किसी भी फल की अपेक्षा रखे बिना स्वभावदोष और अहं-निर्मूलन प्रक्रिया निरंतर करते रहना, स्वयं में भक्तिभाव एवं कृतज्ञता बढाने के लिए प्रयत्न करना, यही हमारी साधना है । (२८.९.२००७)
३. साधक आध्यात्मिक स्तर की अपेक्षा भाव एवं लगन बढाने तथा अहंभाव अल्प करने, को महत्त्व दें !
आध्यात्मिक स्तर व्यष्टि एवं समष्टि, ऐसे दो प्रकार का होता है । व्यष्टि स्तर अर्थात केवल व्यष्टि साधना संबंधी, अपनी उन्नति के संदर्भ में स्तर; जबकि समष्टि स्तर अर्थात समाज के जिज्ञासुआें को साधना में आगे ले जाने के संदर्भ में स्तर । साधना में हम समष्टि स्तर को महत्त्व देते हैं; क्योंकि इससे आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र होती है । प्रत्येक साधक अपना साधकत्व बढाने, अहंभाव अल्प करने तथा भाव बढाने की ओर ध्यान दे । (२६.७.२००८)
४. साधकत्व का महत्त्व !
हममें साधकत्व निर्माण नहीं हुआ, तो हम साधक निर्माण नहीं कर पाएंगे । हम केवल कार्यकर्ता ही निर्माण कर पाएंगे । (५.९.२००८)
५. खरा साधक
खरा साधक अर्थात मन में संदेह न रखनेवाला साधक । (वर्ष १९९०)
६. साधना में आज्ञापालन का महत्त्व !
साधना में आज्ञापालन कर साधक को मन और बुद्धि नष्ट करने होते हैं । तभी वे विश्वमन और विश्वबुद्धि से एकरूप होते हैं । (१२.७.२००७)
७. अध्यात्म में मित्रता का महत्त्व !
अनेक साधक अपने मन के विचार कहीं भी प्रकट नहीं कर पाते । इस कारण उनके मन में विचार संग्रहित होते रहते हैं । इसी कारण ऐसे साधक साधना में अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाते । मन की बात किसी से न कहना, अहं का ही लक्षण है । इसलिए हमारा साधना में एक तो मित्र होना चाहिए, जिससे हम खुलकर बात कर सकें । यह मित्र आध्यात्मिक स्तर पर हमारी सहायता करनेवाला हो, भावनात्मक स्तर पर संभालनेवाला न हो । (५.९.२००८)