१. ‘कुदृष्टि उतारना’ – भूमिका
हिंदू संस्कृति में प्राचीनकाल से कुछ रूढियां एवं परंपराएं चली आ रही हैं । इनमें से एक प्रथा है – ‘कुदृष्टि उतारना’ ।
‘जीव पर बाहर से हो रहे सूक्ष्म अनिष्ट आक्रमणों के कारण उसे कष्ट होते रहते हैं । इन कष्टों को दूर करने के लिए बाह्य मंडल में (शरीर से संबंधित दो मंडल होते हैं – आंतरिक एवं बाह्य) करने योग्य आध्यात्मिक उपायों में से एक है – ‘कुदृष्टि उतारना’ । कुदृष्टि उतारने की पद्धति का अवलंबन करने पर जीव की स्थूलदेह, मनोदेह और सूक्ष्मदेह पर आया रज-तमात्मक आवरण दूर होकर जीवनमान (जीवन का स्तर) उच्च हो सकता है ।
किसी व्यक्ति के प्राणमयकोष और मनोमयकोष में विद्यमान कष्टदायक स्पंदन अथवा काली शक्ति कुदृष्टि उतारने हेतु उपयुक्त पदार्थों में खींच लेना एवं तत्पश्चात उन पदार्थों को जलाकर अथवा जल में विसर्जित कर उस काली शक्ति को नष्ट करना, इसे ‘कुदृष्टि उतारना’ कहते हैं ।
२. कुदृष्टि उतारने के लाभ
अ. कुदृष्टि उतारने से जीव की देह की मनःशक्ति
सबल होकर सक्रिय होने से जीव का कार्य निर्विघ्न संपन्न होना
कुदृष्टि उतारने से जीव की देह पर आया रज-तमात्मक आवरण समय पर दूर होता है । इससे उसकी मनःशक्ति सबल होकर कार्यकरने लगती है । फलस्वरूप जीव के लिए अपना कार्य निर्विघ्नरूप से एवं कर्मसहित संपन्न करना संभव होता है ।’
आ. कुदृष्टि उतारने से कुदृष्टि लगने की अथवा करनी की तीव्रता समझ में आना
प्रत्येक पदार्थ की प्रकृति भिन्न होती है । अतः उसका गुणधर्म भी भिन्न होता है । अनिष्ट स्पंदनों के परिणाम के कारण संभवतः कोई भी पदार्थ अपना मूल गुणधर्म छोड विपरीत प्रभाव दर्शाता है । कुदृष्टि उतारने के लिए जिन घटकों का (पदार्थों का)उपयोग किया जाता है, उन पर अनिष्ट स्पंदनों के परिणाम से विशिष्ट लक्षण प्रतीत होतेहैं, उदा. राई एवं नमक से कुदृष्टि उतारने के उपरांत वह जलाने पर दुर्गंध आना, उतारे के लिए प्रयुक्त मिर्च जलाने पर सूखी खांसी उठना ।
इन विशिष्ट लक्षणों से कुदृष्टि की तीव्रता स्पष्ट होती है । इससे समझ में आता है कि कष्ट कितना है । अतः आवश्यकतानुसार कुदृष्टि अधिक बार उतारी जा सकती है तथा अधिक प्रभावी घटक का उपयोग किया जा सकता है । कष्ट शीघ्र घटने के लिए कुदृष्टि उतारने के साथ नामजप-साधना, संतसेवा जैसे अन्य प्रतिबंधात्मक उपायों का भी आश्रय तत्परता से लिया जा सकता है ।
३. कुदृष्टि उतारने की प्रक्रियामें भाव महत्त्वपूर्ण
अध्यात्म में भाव का अत्यधिक महत्त्व है और कुदृष्टि उतारना एक आध्यात्मिक स्तर की प्रक्रिया है, इसलिए कुदृष्टि उतारते समय भी भाव होना अत्यंत आवश्यक है ।
अ. कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति का भाव कैसा होना चाहिए ?
कुदृष्टिग्रस्तव्यक्ति को ऐसा भाव रखना चाहिए कि ‘कुदृष्टि उतारनेवाला व्यक्ति मेरे उपास्यदेवता का प्रत्यक्ष रूप है और वह कुदृष्टि उतारने के घटकोंद्वारा मेरे शरीर के सर्वओर के काली शक्ति का आवरण एवं काली शक्ति को खींच रहा है, साथ ही मेरे सर्वओर चैतन्य का सुरक्षा-कवच निर्मित कर रहा है ।’
आ. कुदृष्टि उतारने वाले व्यक्ति का भाव कैसा होना चाहिए ?
कुदृष्टि उतारनेवाले व्यक्ति को ऐसा भाव रखना चाहिए कि ‘मैं स्वयं कुदृष्टि नहीं उतार रहा हूं; अपितु मेरे स्थान पर देवता ही हैं और वे सामने बैठे व्यक्ति की कुदृष्टि उतारकर उसके सर्व ओर का काली शक्ति का आवरण और उसके शरीर में विद्यमान कालीशक्ति कुदृष्टि उतारने के घटक में खींच रहे हैं ।’
इ. कुदृष्टि उतारते समय एक-दूसरे के प्रति भाव रखने के लाभ
- कुदृष्टि उतरने में अल्प समय लगता है ।
- देवता का आशीर्वाद प्राप्त होकर दोनों जीवों के सर्व ओर सुरक्षा-कवच निर्मित होता है । इस सुरक्षा-कवच के बने रहने की कालावधि जीव के भाव पर निर्भर है ।
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्विक ग्रंथ ‘कुदृष्टि (नजर) उतारने की पद्धतियां (भाग १)(कुदृष्टिसंबंधी अध्यात्मशास्त्रीय विवेचनसहित)?’