प्रश्न : क्या श्राद्ध करना हिन्दुआें के लिए ही अनिवार्य है ? क्या पाश्चात्य देशों में रहनेवाले अन्य धर्मीयों को उनके ईश्वर (गॉड) कष्ट नहीं पहुंचाते ?
उत्तर : हिन्दू धर्म के अतिरिक्त सभी संप्रदाय केवल उपासना संप्रदाय हैं । उनके संप्रदाय में श्राद्ध नहीं किया जाता । परंतु, वे लोग मृत व्यक्ति की कबर के पास बैठकर प्रार्थना करते हैं । यह भी एक प्रकार का श्राद्ध है ।
(ईश्वर किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते । पूर्वजों को अच्छी गति मिले, इसके लिए श्राद्धकर्म की व्यवस्था की गई है । हिन्दू धर्म में इसका गहन विचार किया गया है; इसलिए यहां श्राद्ध करने की अति प्राचीन परंपरा है । यह कर्म, शास्त्रानुसार और श्रद्धापूर्वक करने से पूर्वजों से होनेवाला कष्ट घटता है । इसके सैकडों उदाहरण हैं । – संपादक)
(कहते है) ‘जीवित पिता एवं पितामह का सम्मान करना ही श्राद्ध है !’
श्राद्धकर्म को व्यर्थ बतानेवाले प्रगतिवादियों के आलोचनात्मक विचार तथा उनका खंडन
आलोचना
‘जीवित पिता, पितामह एवं प्रपितामह आदि का सम्मान करना ही श्राद्ध है !’ – आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद
खंडन
अ. श्राद्ध मृत व्यक्ति का ही होना उचित
‘जीवित पिता और पितामह का सम्मान ही श्राद्ध है’, इसके समर्थन में स्वामी दयानंद ने मनु के जिन श्लोकों का आधार लिया है, उनमें स्पष्ट लिखा है कि पिता के जीवित रहते उसका श्राद्ध नहीं किया जा सकता । श्राद्ध मृत व्यक्ति का ही करना चाहिए ।
आ. श्राद्ध से लाभ
पृथ्वी पर (दक्षिण दिशा में भूमि खोदकर वहां दर्भ (कुश) फैलाकर उस पर ३ पिंडों का दान करने से नरक में स्थित पूर्वजों का उद्धार होता है । पुत्र को हर प्रकार से मृत पिता का श्राद्ध करना चाहिए । उनके नाम एवं गोत्र का विधिवत् उच्चारण कर, पिंडदानादि कर्म करने से उन्हें हव्य-कव्य की प्राप्ति होती है और वे तृप्त होते हैं । तब, स्वाभाविक ही तृप्त पूर्वज अपने परिवजनों को कष्ट नहीं देते । इतना ही नहीं, श्राद्धभोजन से उन्हें गति मिलती है और वे अगले लोक में जाते हैं । श्राद्ध से अच्छे परिणाम मिलते हैं, यह प्रयोग से भी सिद्ध हुआ है ।
अतः, आर्य समाजी दयानंद और प्रगतिवादियों का कहना असत्य है । क्योंकि, यदि इनकी बात सत्य होती, तो श्राद्ध को विधि-विधान से करने की आवश्यकता न होती ।’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (घनगर्जित, दिसंबर २००८ एवं जनवरी २००९)