यह संत जनाबाई की महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि उन्हें अलौकिक कहलवाने का कोई मोह नहीं था । सो वे स्वयं मानवी बनी रहीं । उन्हें अपने जीवन में अति कठिन समय से गुजरना पडा पर वे कभी घबराई नहीं; अपितु अपने कठिन समय में उन्होंने असीमित श्रम को ही अपना साथी बनाया । उन्होंने एक तरह से ‘काम में राम’ को ढूंढा । यह ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि अपने जीवन के नितांत एकाकीपन में केवल कार्यमग्नता जनाबाई की सहायता करती रही । सहज भाव से वे अपने श्रम करने के अनुभव को व्यक्त करती हैं कि झाडना, बुहारना, चक्की पीसना, उखल में कूट पीटकर धान से छिलके निकालना, पानी भरना, गोबरादि से लिपाई-पुताई करना, कपडे धोना आदि में उन्हें ईश्वरीय अनुभूति होती है । इतना ही नहीं इन सारे कामों में साक्षात् विट्ठल उनकी मदद करते हैं । उनका इस प्रकार से श्रमानुभव को ईश्वरानुभव के साथ जोडना अद्भुत है । उन्होंने अपने प्रत्येक कार्य के साथ ईश्वर को जोडा इसलिए उन्हें लगता था कि मेरे कार्य मैं नहीं, अपितु ईश्वर स्वयं ही कर रहे हैं ।
भक्ति से ओत-प्रोत जनाबाई के जीवन का एक और सुंदर उदाहरण देखते हैं –
एकादशी की रात्र श्रीनामदेवजी के घर अखंड कीर्तन होता था । भगवान सूर्य के अस्ताचलगामी होते ही जनाबाई वहां आ जाती और एक कोने में बैठकर रात भर जागरण व कीर्तन करती । उसकी आंखों से प्रेमाश्रु बहते रहते । भगवान को रोना ही भाता है । जो उसके लिए जितना ही अधिक व्याकुल होकर रोता है, भगवान उससे उतना ही अधिक प्रसन्न होते हैं । आज तक भगवान के जितने भी प्रेमी हुए हैं सब भगवत्प्रेम में रोते ही रहे हैं ।
एक बार एकादशी की रात्रि नामदेवजी के घर में भक्तमंडली कीर्तन कर रही थी । कोई मृदंग बजा रहा था, तो कोई करताल और कोई झांझ बजा रहा था । कोई नाच रहा था, तो कोई गाते-गाते अश्रु बहा रहा था, कोई आनंदित होकर स्मित हास्य कर रहा था – सभी भगवत्प्रेम में तन्मय, न किसी को तन-मन की सुध है, न इस बात का भान कि कितनी रात बीत गई । जनाबाई भी एक कोने में खडी प्रेममग्न होकर झूम रही थी ।
यही भक्तियोग है जिसके प्रभाव से मनुष्य के सारे बंधन कट जाते हैं और उसके जन्म-मृत्यु के चक्र से ही छूट जाता है ।
संकीर्तन के आनंदसागर में डूबे लोगों को पता ही नहीं चला कि कब सुबह हो गई । सभी लोग अपने-अपने घर चले गए । जनाबाई भी अपने घर आकर आराम करने लगी । भक्ति में डूबी वह लेटी ही रह गई और उसकी आंख लग गई । जैसे ही आंख खुली, उसने देखा कि सूर्यदेव उदय हो गए हैं । वह स्वामी के गृहकार्य में देरी होने से घबराती हुई नामदेवजी के घर पहुंची और जल्दी-जल्दी हाथ का काम पूरा करने में लग गई; परंतु देर हो जाने से सभी कामों में हडबडाहट होने लगी । काम कितने पड़े हैं – झाड़ू देना, बरतन साफ करना, कपडे धोना, पानी भरना-ऐसा सोचते हुए जल्दी-जल्दी कपडेे धोने के लिए चन्द्रभागा नदी के किनारे गई । वस्त्र पानी में डुबा भी नहीं पायी थी कि नामदेवजी का दूसरा काम याद आ गया और कपडे छोडकर भागती हुई नामदेवजी के घर की ओर चली ।
रास्ते में एक अपरिचित वृद्धा ने प्रेम से उसका आंचल पकड कर कहा – ‘कहां जा रही हो बेटी?’ जल्दी में वृद्धा से आंचल छुडाते हुए जनाबाई ने कहा – ‘आज मुझे देर हो रही है, स्वामी की सेवा बाकी है ।’ वृद्धा ने प्रेम से कहा -‘चिंता न कर, बेटी । कपडेे मैं साफ कर देती हूं ।’ जनाबाई को नामदेवजी के घर पहुंचने की जल्दी थी, पर न जाने क्यों बार-बार वृद्धा का स्मरण हो रहा था । मां की भांति स्नेह उसे जीवन में पहली बार मिला था ।
नामदेवजी का काम खत्म करके जनाबाई नदी पर लौटी तो देखा कि वृद्धा ने सारे कपडे धोकर साफ कर दिए थे । इस वृद्धा ने कपडों के साथ ही उन कपडों को पहनने व धोनेवालों के तन-मन भी निर्मल कर दिए थे । जनाबाई ने वृद्धा से कृतज्ञतापूर्ण स्वर में कहा – ‘बडा कष्ट उठाया आपने । तुम सरीखी परोपकारी माताएं ईश्वर का रूप होती हैं, मैं आपकी आभारी हूं ।’ ‘इसमें आभार की कौन-सी बात है ।’ ऐसा कहकर वृद्धा वहां से चली गई । ‘कभी आवश्यकता पडी तो मैं भी वृद्धा की सेवा करूंंगी’, ऐसा विचारकर जनाबाई वृद्धा का नाम-पता मालूम करने के लिए उसे ढूंढने लगी पर उसे निराशा ही हाथ लगी ।
जनाबाई कपडे लेकर नामदेवजी के घर पहुंची । उसका मन वृद्धा के लिए बहुत व्याकुल था, वृद्धा ने जाते-जाते न मालूम क्या जादू कर दिया, जनाबाई कुछ समझ न सकी । जनाबाई ने गदगद कंठ से सारा प्रसंग नामदेवजी को सुना दिया । भगवद्भक्त नामदेवजी लीलाधारी की लीला समझ गए और प्रेम में मग्न होकर बोले – ‘जना ! तू बडी भाग्यवान है । भगवान ने तुझ पर बडा अनुग्रह किया । वह कोई मामूली वृद्धा नहीं थी, वे साक्षात् नारायण थे जो तेरे प्रेमवश तेरे बिना बुलाए ही तेरे काम में हाथ बंटाने आ गए थे । यह सुनकर जनाबाई रोने लगी और भगवान को कष्ट देने के कारण अपने को कोसने लगी । यहां पर भक्ति के साथ उनकी कर्तव्यपरायणता भी दिखती है । भक्त को इसी प्रकार अपनी गलतियों का भान रहना चाहिए और आत्मनिवेदन के रूप में उन्हें ईश्वर के सामने रखना चाहिए । इस प्रसंग के बाद भगवान के प्रति जनाबाई का प्रेम बहुत बढ गया । भगवान समय-समय पर उसे दर्शन देने लगे । जनाबाई चक्की पीसते समय भगवान के ‘अभंग’ गाया करती थी, गाते-गाते जब वह अपनी सुध-बुध भूल जाती, तब उसके बदले में भगवान स्वयं चक्की पीसते और जनाबाई के अभंग सुनकर प्रसन्न होते । जनाबाई की काव्य-भाषा सर्वसामान्य लोगों के हृदय को छू लेती है । महाराष्ट्र के गांव-गांव में महिलाएं चक्की पीसते हुए, ओखली में धान कूटते हुए उन्हीं की रचनाएं गाती हैं ।
भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं । इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बडा । न मंदिर है न जंगल । केवल विरह की पीडा है जिसे अनुभव करने में ही सुख है ।
जनाबाई की भक्ति के वश में होकर स्वयं भगवान मूर्तिमान होकर जनाबाई का हाथ बंटाते थे ।
महाराष्ट्र में कवियों ने लिखा है – जना संगे दलिले’ अर्थात् ‘जना के संग भगवान चक्की पीसते थे ।’
उन्हीं के शब्दों में जानेंगे –
झाड़लोट करी जनी । केर भरी चक्रपाणी अर्थात (मैं झाड़ती-बुहारती हूँ, मेरा ईश्वर कचरा उठाता है ।)
जनी जाय शेणासाठी। उभा आहे तिच्या पाठी। तांबराची कांस खोवी । मागे चाले जनाबाई॥
(गोबर लाने, लिपाई-पुताई करने में पितांबरधारी मेरी सहायता करते हैं ।)
जनी जाय पाणीयासी । मागे धांवे हृषिकेशी । – पाणी रांजणांत भरी । सडा सारवण करी ।
(पानी भरने आदि में हृषिकेश मेरी सहायता करते हैं ।)
श्रम को भक्ति के साथ जोडना सामाजिक दृष्टि से भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है । इसलिए कि लौकिक और अपने पारिवारिक कर्तव्यों से मुंह मोडकर, वन-गुफा अथवा तीर्थ स्थानों पर जाकर साधना के नाम पर श्रम से जी चुराना समाज की एक प्रवृत्ति होने लगी थी । (इसीलिए कबीर साहब को कहना पडा – ‘वे क्यों कासी तजै मुरारी । तेरी सेवाचोर भये बनवारी’) इस परिप्रेक्ष्य में जनाबाई का श्रम को महत्त्व देना, अपनेआप में एक लोकमंगलकारी कार्य है । अपने कर्तव्य निभाते हुए, अपने कर्म करते हुए श्रम के साथ सदैव ईश्वर के ध्याने में, भाव में रहनेवाले भक्त के कार्य स्वयं ईश्वर ही करने लगते हैं ।
जनाबाई एक बात का बारंबार उल्लेख करती हैं कि उनके नहाने-खाने का ध्यान भी विट्ठल ही रखते हैं । यहां तक की उनके बालों में तेल लगाने, उनका जूडा बनाने तक की जिम्मेदारी विट्ठल स्वयं निभाते हैं । जनाबाई इतनी विट्ठलमय हो गई थीं कि वह अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में विट्ठल की उपस्थिति का अनुभव करती थीं । वे विट्ठल-चिंतन में इतनी मग्न हो गईं कि उन्हें किसी श्रम का आभास हीं नहीं हुआ और वे यह मानकर चलने लगीं कि सारे श्रमसाध्य कार्य विट्ठल ही ने निपटाए… अपनी जनाबाई को विश्राम प्रदान करने के लिए!
तो जनाबाई जैसी उच्च कोटि की भक्ति नहीं, तो कुछ प्रयास तो हम अवश्य कर सकते हैं । यह हम सबके लिए संभव है । सच्चे मन से ईश्वर की शरण जाने पर कुछ भी असंभव नहीं । केवल हमें लगन से प्रयास करने हैं । अनुभूति तो ईश्वर हमें देने ही वाले हैं ।