१. ‘अहं’ शब्दकी व्याख्या एवं अर्थ
अ. स्थूलदेह के कारण अथवा लिंगदेह के भिन्न संस्कार केंद्रों के संस्कारों के कारण स्वयंको अन्योंसे, ब्रह्म अथवा ईश्वरसे विलग समझना, अहं कहलाता है ।
आ. ‘मैं, मेरा एवं मुझ’ से संबंधित अभिमान धारण करना, अहं है । मेरा शरीर और मन, मेरे प्राण, मेरी बुद्धि, मेरी संपत्ति, मेरी पत्नी, मेरी संतान, मुझे सुख मिलना चाहिए इत्यादि विचार अहं के कारण ही निर्मित होते हैं । ‘प्याजको छीलते जाएं, तो केवल उसके छिलके ही निकलते हैं; सार रूपमें कुछ नहीं मिलता । इसी प्रकार विचार करें, तो ‘मैं’ नामकी कोई वस्तु नहीं मिलती । अंततः जो कुछ रह जाती है, वह है आत्मा – चैतन्य ।’
अहं अर्थात जीवका स्वाकृत धर्म । ‘स्वाकृत’ शब्दका प्रयोग, ‘स्व’पनका भान रखकर जीवद्वारा अपनाए गए कृत्यस्वरूप कर्म के अर्थसे किया गया है ।
२. अहं-निर्मूलनकी प्रक्रिया
जब जीव को अहं का भान होने लगता है, तब उसे अपने दोषों का भान होता है और अहं-निर्मूलनकी दृष्टिसे उसके प्रयास आरंभ होते हैं । प्रामाणिक प्रयासों के कारण बाह्यमनमें विद्यमान स्थूल दोषरूपी प्रतिक्रियाओंका प्रसारण धीरे-धीरे घटने लगता है ।
३. अहं-निर्मूलनमें प्रार्थना एवं कृतज्ञताका महत्त्व
जब यह भान प्रार्थना तथा कृतज्ञता के स्तरपर अधिक होता है, तब अंतर्मन धीरे-धीरे जागृत होकर स्वप्रेरणा से इस प्रक्रियामें सम्मिलित हो जाता है ।
अंतर्मनकी जागृत अवस्थामें चित्त के स्तरपर अंकित मूल दोषरूपी संस्कार केंद्रोंकी प्रसारणक्षमता अल्प होने लगती है । जीव के लिए चैतन्य के स्तरपर ही अंतर्मन की प्रतीतियों को प्रगल्भ करना संभव होता है । इसलिए अहं न्यून करने की प्रक्रिया को केवल स्वकर्तृत्व की जोड न देकर, कृतज्ञता की भी जोड देनेसे कृपा के बलपर अहं शीघ्र घटता है । स्वकर्तृत्व अंतर्गत सीमित प्रयास होते हैं । चैतन्य असीमित है । इसलिए वह (चैतन्य) चित्त के स्तरपर अपना स्थायी छाप छोडकर अहंरूपी दोषों का निर्मूलन करता है ।
४. गुरुकृपायोगके कारण अहं शीघ्र न्यून होना
अहंके प्रति सतर्कता उत्पन्न होती है । अहंको घटाने हेतु निश्चित प्रयास करनेकी प्रक्रिया सामान्य जीवोंकी क्षमता के परे है । प.पू. डॉ. आठवलेजीने इस ग्रंथद्वारा सुलभ भाषामें व्यावहारिक जीवनके उदाहरण देकर उन्हें अध्यात्मके साथ जोडा है । साथ ही गुरुकृपाके बलपर और प्रार्थना व कृतज्ञताके स्तरपर प्रयास कर ‘अहं’ कैंसे घटा सकते हैं, यह विस्तारसे बताया है । गुरुकृपायोगके मूल्य जीवको सेवाभाव द्वारा अहं घटाने हेतु विशिष्ट स्तरपर चैतन्य प्रदान करते हैं । यह शिक्षा भी देते हैं कि अहं शीघ्र घटानेमें व्यष्टि साधनाकी अपेक्षा समष्टि साधना सहायक होती है । इस ग्रंथद्वारा प.पू. डॉक्टरजीने समष्टि साधनाका महत्त्व समझाकर स्पष्ट किया है कि भावके स्तरपर साधना कर केवल सगुण साध्य होता है; अपितु अहंको घटानेकी प्रक्रियासे निर्गुण, अर्थात ईश्वरका व्यापक स्वरूप समझ सकते हैं ।’
– सूक्ष्म-विश्वके ‘एक विद्वान’ ड(पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळजीके माध्यमसे, ६.१.२००६, रात्रि ८.२५
अहं नष्ट होनेका महत्त्व
पानीसे भरे होनेके कारण, पानीमें डूबी बोतलके भीतर एवं बाहरका पानी
एक समान होता है । हवासे भरा गुब्बारा और गुब्बारेके बाहरकी हवा एक ही होती
है; परंतु जबतक बोतल अथवा गुब्बारा पूâटता नहीं तबतक भीतर एवं बाहरका
पानी / हवा एक नहीं हो सकते । उसी प्रकार अहंके कारण आत्मा एवं ब्रह्म
एकरूप नहीं हो सकते ।
जिस प्रकार बोतल एवं गुब्बारा पूâटनेपर भीतर एवं बाहरके पानी / हवा एक
हो सकते हैं, उसी प्रकार अहं नष्ट होनेपर ही आत्मा एवं ब्रह्म एक हो सकते हैं ।