प्रीति अर्थात् निरपेक्ष प्रेम । व्यवहार के प्रेम में अपेक्षा रहती है । साधना करनेसे सात्त्विकता बढ जाती है तथा उससे सान्निध्य में आनेवाली चराचर सृष्टि को संतुष्ट करने की वृत्ती निर्माण होती है । प्रत्येक वस्तु में परमेश्वर का रुप दिखाई देने लगता है । ‘वसुधैव कुटुंबकम् ।’ अर्थात् विश्व को एक प्रेम से भरे परिवार का स्वरूप आता है । इस प्रकार से प्रेम में विशालता निर्माण होकर दूसरों के प्रति प्रीति निर्माण होती है । यह शीघ्र साध्य होने के लिए प्रथम प्रयत्नपूर्वक प्रेम करना आवश्यक होता है । उसके लिए सत्संग में रहना महत्त्वपूर्ण बात है । प्रथम सत्संग में आनेवाले साधक के प्रति प्रीति प्रतीत होती है, पश्चात् अन्य संप्रदायों के साधकों के प्रति, आगे साधना न करनेवालों के प्रति तथा अंत मे सभी प्राणीमात्रों के प्रति प्रीति निर्माण होती है । वास्तविक रूपसे प्रीति के लिए प्राणीमात्र ही नहीं, तो चराचर के प्रति निरपेक्ष प्रेम प्रतीत होता है । साधना करते करते आध्यात्मिक स्तर ७० (सत्त्व गुण ७०) प्रतिशत होने केपश्चात् अन्यों के प्रति प्रीति प्रतीत होने लगती है । तब तक यह आवश्यक है कि, हम सभी प्राणीमात्रों पर प्रेम करते ही रहें !
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘गुरुकृपायोगानुसार साधना’