‘एक बार बुद्धि से अध्यात्म का महत्त्व ध्यान में आया कि, ‘इस जन्म में ही मोक्षप्राप्ति करना है’, ऐसा निश्चय यदि उसी समय निश्चय हुआ तथा साधना आरंभ हुई कि, सत्संग में क्या सीखाया जाता है, इस बात को अल्प महत्त्व रहता है । यदि ऐसे साधक ने नामजप तथा सत्संग के साथ-साथ सेवा की, तो उसे अधिकाधिक आनंद प्राप्त होने लगता है तथा साधक पर गुरुकृपा का वर्षाव निरंतर रहता है ।
इस लेख में हम इस का परिचय करेंगे कि, ईश्वरप्राप्ति हेतु (आनंदप्राप्ति हेतु) साधना करनेवाले साधक की दृष्टि से सत्संग महत्त्व क्या है !
देवालयोंकी (मंदिरोंकी) स्वच्छता करना, संतसेवा इत्यादि सत्सेवाके उदाहरण हैं ।
१. सत्सेवा किसे कहते हैं ?
अध्यात्म का, अर्थात् साधना का प्रसार करना, सर्वोत्तम प्रती की सत्सेवा है । मंदिरों की सफाई करना, संतसेवा करना इत्यादि सत्सेवा हैं । सेवा सत्सेवा होनी चाहिए । विशिष्ट स्तर तक आध्यात्मिक प्रगति के अतिरिक्त सेवा मन से नहीं होती । तबतक वह बुद्धि से साधना के रूप में की जाती है ।
२. सत्सेवा का महत्त्व
सत्सेवा करते समय दूसरे का मन संतुष्ट करना, इस बात के लिए प्राधान्यक्रम देने से धीरे-धीरे हमारी आवश्यकताएं न्यून होकर साधक निवृत्तीपरायण होता है । सत्सेवा करने से ईश्वर के सगुण रूप का, अर्थात् संतों का अथवा गुरु के अंतःकरण में स्थान निर्माण कर सकते हैं । तत्पश्चात् सत्सेवा करते समय गुरु के संकल्प से ही शिष्य की शीघ्र गति से आध्यात्मिक उन्नति होती है ।
३. ईश्वरप्राप्ति के लिए (गुरुकृपा के लिए) असत् की
सेवा करने की अपेक्षा सत्सेवा करना ही आवश्यक है !
असत् की सेवा (उदा. बिमार व्यक्ति की सेवा) करते समय असत् को सत्य मानकर की जाती है । साथ ही उसमें यह अहं भी रहता है कि, ‘मैं सेवा करता हूं !’, अतः उसका साधना के रूप में विशेष उपयोग नहीं होता । इसके विपरित गुरुसेवा ‘अहं’ का विस्मरण करने हेतु की जाती है । साथ ही असत् सेवा से लेन-देन संबंध भी निर्माण होता है । सत्सेवा अर्थात् ‘सत्’ की अर्थात् ईश्वर की सेवा । वह करने के पश्चात् ईश्वर कैसी अनुभूति देता है, इसका एक उदाहरण आगे प्रस्तुत किया है ।
३ अ. गुरुपूर्णिमा के कार्यक्रम के समय
कार्यक्रम को आनेवालों के जूते ठीक तरह से रखने की
सेवा करते समय सूक्ष्म-सुगंध तथा आनंद का अनुभव करना
‘१९९८ में वडाळा, मुंबई में सनातन का गुरुपूर्णिमा कार्यक्रम आयोजित किया गया था । मुझे कार्यक्रम को आनेवालें के जूते ठीक तरह से रखने की सेवा प्राप्त हुई थी । वह सेवा करते समय मुझे गुलाब की सूक्ष्म-सुगंध की अनुभूति आई, साथ ही गुरुपूर्णिमा के दिन सेवा करते समय मैंने पूरे दिन में कभी भी न
अनुभव किए गए आनंद का अनुभव किया ।’ – श्री. मनोज पेवेकर, मुंबई
४. अध्यात्मप्रसार : सर्वोत्तम सत्सेवा
४ अ. महत्त्व
४ अ १. गुरु का दिया गया नाम, ज्ञान अन्यों को प्रदान कर उसमें वृद्धि करना, ही अध्यात्मप्रसार !
एक बार एक गुरु ने उनके दो शिष्यों को कुछ मात्रा में गेंहू दिए तथा बताया कि, ‘‘मेरे लौटने तक ये गेंहू अच्छी तरह से संभालकर रखिएं ।’’ एक वर्ष बाद लौटने के पश्चात् गुरु पहले शिष्य के पास गए तथा उनसे पूछा कि, ‘गेंहू ठीक तरह से रखें है क्या ?’’ उस पर उस शिष्य ने उत्तर दिया, ‘हां !’ उसने गेंहू का
डिब्बा खोलकर दिखाया तथा बताया कि, ‘‘आप के दिए हुए गेंहू वैसे ही अच्छे रखें हैं ।’’ तत्पश्चात् गुरु ने दूसरे शिष्य को गेहूं के संदर्भ में पूछा । वह शिष्य गुरु को निकट के खेत पर लेकर आया । गुरु ने देखा कि, सर्वत्र गेहूं के बूटों से भरा हुआ अनाज दिखाई दे रहा है । वह देखकर गुरु को अत्यंत आनंद हुआ ।
इसी प्रकार से अपने गुरु द्वारा प्राप्त नाम, ज्ञान हमें अन्यों को देकर बढाना चाहिए ।
४ अ २. समाधी की अपेक्षा अध्यात्मप्रसार महत्त्वपूर्ण
देखोनी सिद्ध सुखावती । समाधि लागली यासी म्हणती ।
सावध करावा मागुती । लोकोपकाराकारणें ।। ५२:५ ।।
म्हणोनी हस्तें कुरवाळिती । प्रेमभावे आलिंगिती ।
देहावरी ये ये म्हणती । ऐक बाळा शिष्योत्तमा ।। ५२:६ ।।
तूं तरलासी भवसागरीं । रहासी ऐसा समाधिस्थ जरी ।
ज्ञान राहील तुझ्या उदरीं । लोक तरती वैâसे मग ।। ५२:७ ।। – श्री गुरुचरित्र
४ अ ३. गुरु के निर्गुण तथा सगुण रूप की सेवा
अध्यात्मप्रसार करना गुरु के निर्गुण रूप की सेवा है । गुरुकृपा प्राप्त करने के लिए इसका महत्त्व ७० प्रतिशत है, तो गुरु के सगुण रूप की सेवा का महत्त्व ३० प्रतिशत है । गुरुकृपा पूरीतरह से प्राप्त करने के लिए दोनों सेवा करना आवश्यक है ।
४ आ. अध्यात्मप्रसार कैसा करना चाहिए ?
‘धर्म एवं साधना के विषय में मुझे ही जानकारी नहीं है, तो मैं अध्यात्म का प्रसार किस प्रकार कर सकूंगा ?’, यह प्रश्न कुछ लोगों के मन में आने की संभावना रहती है; किंतु वह अनुचित है । भगवा श्रीकृष्ण ने अपनी ऊंगली से गोवर्धन पर्बत ऊठाया था । उस समय गोपगोपियों ने अपनी-अपनी लाठियां
पर्बत ऊठाने के लिए यथाशक्ति सहायता की थी । ‘गुरु अर्थात् ईश्वर’ धर्मग्लानी दूर करनेवाले हैं ही; किंतु हमें भी हमारा चानी का हिस्सा ऊठाना चाहिए । प्रसार हेतु जिसे अध्यात्म का अभ्यास कर अन्यों को सीखाना संभव हो, वह वही सेवा कर सकते हैं तथा जिसे अर्थ सहाय्य करना सभंव हों, वह वहीं सेवा कर सकते हैं । जिसे ये दोनों सभंव नहीं, वह प्रसार हेतु भित्तीपत्रक तथा कापडीफलक प्रकाशित करना, जानकारीपत्रक वितरित करना, व्यक्तिगत संपर्क कर अन्यों को इस विषय की जानकारी देना, सत्संग के स्थान की सफाई करना, सत्संग हेतु चद्दर डालना, कुर्सियां ठीक तरह से लगाना, इस कार्य के
लिए धन इकठ्ठा करना, इत्यादि सेवा कर सकते हैं ।
४ इ. राष्ट्ररक्षण एवं धर्मजागृति
वर्तमान में आतंकवादी तथा नक्सलवादियों ने देश में आतंकवाद फैलाया है । निर्धनता, सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार, आरक्षण के समान अनेक समस्याओं ने देश को त्रस्त किया है । सारांश में राष्ट्र रसातल की ओर जा रहा है । देश में निधर्मी राजनेताओं की सत्ता है तथा हिन्दुओं में अधिक मात्रा में धर्मपालन का अभाव पाया जा रहा है । हिन्दुद्वेषी तथा धर्मद्रोहियों द्वारा हिन्दु धर्म, देवता, संत, राष्ट्रपुरुष तथा धर्मग्रंथो की खुले आम अनादर एवं धर्महानि हो रही है । हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन किया जाने की समस्या प्रतिदिन बढती ही जा रही है । धर्म राष्ट्र का प्राण है । यदि धर्म नष्ट हुआ, तो राष्ट्र तथा पर्याय से हम सभी नष्ट होंगे । अतः राष्ट्ररक्षण एवं धर्मजागृति के संदर्भ में समाज को जागृत करना महत्त्वपूर्ण है ।
४ ई. हिन्दुसंगठन
हिन्दु धर्म को विरोध करने के लिए उसी समय पर धर्मद्रोही इकट्ठा होते हैं । इस तुलना में हिन्दु धर्म के तथा राष्ट्र के नाम पर हिन्दुओं का संगठित होने की मात्रा अत्यंत अल्प है । यदि हिन्दुओं का संगठन हुआ, तो हिन्दु धर्म का तथा राष्ट्र की भी रक्षा होगी । उसके लिए हिन्दुसंगठन के प्रयास करना, यह भी
समष्टि साधना का महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है ।
इस लेख में प्रस्तुत किया गया सत्सेवा का महत्त्व ध्यान में रखते हुए अधिकाधिक मुमुक्षु तथा साधकजनों द्वारा अधिकाधिक सत्सेवा हो तथा उन पर गुरुतत्त्व की पूरी कृपा हो, यहीं श्री गुरुचरणी प्रार्थना !’