यदि व्यक्ति में अहं का अंश अल्प मात्रा में भी रहा, तो उसे ईश्वरप्राप्ति नहीं हो सकती । अतः साधना करते समय अहं-निर्मूलन के प्रयास हेतुपुरस्सर करना आवश्यक है । प्रार्थना, कृतज्ञता, शारीरिक सेवा के समान कृतियों द्वारा अहं अल्प होने के लिए सहायता प्राप्त होती है ।
1. अहं के दुष्परिणाम
1 अ. अहं के कारण दुःख होता है ।
‘मी करता म्हणशी । तेणे तू दुःखी होशी ।
राम करता म्हणता पावशी । यश कीर्ती प्रताप ।’
— दासबोध, दशक 6, समास 7, ओवी 36
भावार्थ : जितना अहं अधिक, व्यक्ति उतना अधिक दुःखी होता है । मनोरुग्ण का अहं सर्वसाधारण व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होने के कारण वह अधिक दुःखी रहता है । यदि मेरी संपत्ती, मेरा शरीर ऐसे विचार अधिक रहेंगे, साथ ही यदि व्यक्ति को अपनी संपत्ती न्यून हुई अथवा अपने शरीर को व्याधी हुई, तो वह दुःखी होता है । किंतु यहीं घटना यदि अन्य व्यक्ति के संबंध मे घटी, तो वह व्यक्ति दुःखी नहीं होता । अहं के कारण मन को होनेवाला दुःख कई बार शारीरिक वेदना की अपेक्षा अधिक कष्टदायक रहता है । इसके विपरित संत मानते हैं कि, सभी परमेश्वर का ही है; इसलिए वे कभी दुःखी नहीं होते, निरंतर आनंद में ही रहते हैं।
1 आ. अहंकार ही सर्व दुःखों का मूल
‘वासना है, इसलिए आसक्ती है, अहंकार है । अहंकार अर्थात् स्वार्थ, अभिमान, देहबुद्धि । अहंकार ही चोट है, यही आग है । अहंकार ही दुःख तथा पीडा पहुंचाता है । अहंकार ही पुनर्जन्म का मूल है । एक अहंकार नष्ट हुआ कि, सभी दुःख समूल नष्ट होते हैं । अहंकार नष्ट होने के पश्चात् ही प्रसन्नता, शांति, विश्रांती तथा आनंद प्राप्ती होती है ।’
1 इ. अहं के कारण वास्तविक सुख का उपभोग लेना असंभव होता है ।
अहं का त्याग करने के पश्चात् ही साधारण सुख भी उपभोगना सहज होता है । उदा. अपने पंसद का पदार्थ खाने का सुख उपभोगते समय यदि हम एक बडे प्रााध्यापक, धनिक मनुष्य अथवा कोई बडी व्यक्ति हैं, इस का स्मरण मन में रखा, तो वह सुख कभी भी सहजता से उपभोगना असंभव है । किसी भी
भौतिक सुख का उपभोग लेते समय यदि हमें अपने पद, विद्वत्ता का विस्मरण हुआ, तो ही उस सुख का हम वास्तविक रूप से उपभोग ले सकते हैं ।
1 ई. अहंयुक्त कर्म का नाश होता है, तो निष्काम भाव से किया गया कर्म अमर होता है ।
अहंयुक्त कर्म के संदर्भ में ‘कालः पिबति तद् रसम् ।’; अर्थात् ‘काल उसका रस पी जाता है’, ऐसे बताया गया है । इसका अर्थ अहंयुक्त कर्म कुछ समय पश्चात् नष्ट होता है । इसका महत्त्व प्राचीन समय में से ज्ञात होने के कारण केवल ऋषिमुनी ही नहीं, तो प्रत्येक व्यक्ति अपना नाम तथा कीर्ति की तनिक मात्रा में भी अपेक्षा न रखते हुए निष्काम कर्म करते थे । इस का उत्तम उदाहरण अर्थात् अपने वेद तथा प्राचीन शिल्प । वेदों पर किसी का भी नाम नहीं लिखा गया है तथा शिल्पों पर भी किसी का भी नाम मुद्रित नहीं किया गया है; अतएव वेद अमर तथा शिल्पकृती चिरंजीव हैं ।
1 उ. अहं सभी नष्ट करता हैे
जरा रूपं हरति धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया ।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं काम: सर्वमेवाभिमानः ॥
— महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 35, श्लोक 43
अर्थ : वृद्धता रूप हरती है, आशा धीरज नष्ट करती है, मृत्यु प्राण हरण करता है, द्वेष धर्माचरण का नाश करता है, क्रोध संपत्ति नष्ट करता है, अनार्य (असंस्कृत) मनुष्य की सेवा करने से शील भ्रष्ट होता है, काम लज्जा नष्ट करता है तथा अभिमान (अहं) सब कुछ नष्ट करता है ।
1 ऊ. दान के लाभ से वंचित रहना
महाभारत की यह कथा है । एक बार एक ब्राह्मण तथा उसका परिवार स्वयं उपवासी होते हुए भी उनका अन्न उन्होंने द्वार पर आएं वृद्ध अतिथि को भिक्षा के रूप में दिया । वह वृद्ध अतिथी अन्न ग्रहण कर तृप्त हुआ । तत्पश्चात् उसने हाथ धोएं । इतने में वहां एक नकुल आया तथा हाथ धोने के पानी में उसने अपना शरीर लडबडाया । उस समय उस नकुल का आधा शरीर सोने का हुआ । यह समाचार सर्वत्र फैला । धर्मराज को यह समाचार प्राप्त होने के पश्चात् उसके मन में विचार आया, ‘मैं तो लक्षावधी लोगों को खाना खिलाता हूं । यदि यहां नकुल आया तथा उसने अपना शरीर पानी में लडबडाया, तो उस नकुल का शेष आधा शरीर भी सोने का होगा ।’ नकुल आया, उसने वैसी ही कृती की; किंतु उसका आधा शरीर सोने का नहीं हुआ । धर्मराजा ने इस का कारण श्रीकृष्ण से पूछा । उस पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि, ‘‘तुझे अहं अधिक हुआ है कि मैं ही खाना खिला सकता हूं । अन्नदान कर सकता हूं । अतः नकुल का शरीर सोने का नहीं हुआ ।’’
1 ए. वास्तव में साधना न होना
‘मी’पणावीण साधन । करू जाणे तोची धन्य ।
अर्थ : अहं विरहित साधना जिसे ज्ञात है वही साधक धन्य है ।
2. अहं अल्प करने के उपाय
ईश्वर अर्थात् शून्य अहं; अतः अपने में अंतर्भूत अहं नष्ट करने का सर्वोत्तम उपाय अर्थात् ईश्वर के समान होने का प्रयास करना । अर्थात् ईश्वर के साथ एकरूप होने का प्रयास करना । ईश्वर के साथ एकरूप होना अर्थात् उसके विभिन्न प्रकार के गुण स्वयं में अंतर्भूत करना । उसके लिए प्रतिदिन करने के प्रयास अर्थात् साधना । यह साधना किस प्रकार से करना, यह आगे प्रस्तुत किया है ।
2 अ. सेवा
1. कुछ सेवा श्रेष्ठ तथा कुछ सेवा कनिष्ठ, ऐसे मानने की अपेक्षा यह भाव रखना चाहिए कि, ‘सेवा अर्थात् अपना तन, मन, धन, बुद्धि एवं अहं अर्पण करने का माध्यम है ।’
2. सेवा करते समय यह भाव रखना चाहिए कि, ‘मैं सेवक हूं ।’
3. शूद्रवर्ण की सेवा उदा. बर्तन घिसना, झाडुपोछा करना, प्रसाधनगृह की सफाई करना इत्यादि सेवा से अहं शीघ्र गति से न्यून होने के लिए सहायता प्राप्त होती है ।
2 आ. चूक स्वीकार करने की वृत्ती रखना
मनुष्य ईश्वर के समान परिपूर्ण न होने के कारण उससे चूकें होती ही रहेंगी । प्रत्येक व्यक्ति से किसी ना किसी स्तर पर अल्प-अधिक मात्रा में चूकें होती ही रहती हैं; किंतु अधिकांश समय पर साधारण व्यक्ति तथा साधक अपने में होनेवाले अहं के कारण उसका स्वीकार नहीं करता । चूक का स्वीकार न करना अर्थात् स्वयं में स्थित अहं को खादपानी डालना । ‘मुझ से चूक हुई’ ऐसे कहकर उसका स्वीकार करना अर्थात् स्वयं का अहं अल्प करने का प्रयास करना । पहले स्तर पर चूक का स्वीकार करने के लिए सीखना चाहिए, तो दूसरे स्तर पर उस चूक के संदर्भ में ईश्वर की अथवा जिस व्यक्ति के संदर्भ में चूक हुई है, उसकी क्षमा मांगनी चाहिए । उससे अहं अल्प होने के लिए अधिक मात्रा में मदद होती है ।
2 इ. नम्रता
ऐसा सुवचन है, ‘विद्या विनयेन शोभते ।’ विनय के अभाव के कारण अहं बढता है, अर्थात् अविद्या आती है । कोई भी कितना भी ज्ञानी हो, पर उसे ईश्वर जितना ज्ञान नहीं होता; अतः विनय से उसकी न्यूनता पूरी करनी चाहिए, अर्थात् ईश्वर इतना ज्ञान होता है । प्रत्येक व्यक्ति तथा घटना के संदर्भ में हम जितने अधिक मात्रा में नम्र होंगे, उतना हमारा अहं शीघ्र गति से अल्प होगा ।
2 ई. निरंतर दूसरे को सिखाने की अपेक्षा अन्यों द्वारा सीखने की वृत्ती रखना
निरंतर सीखते रहना, यह मनुष्य के स्वभाव की एक विशेषता है; किंतु कुछ लोगों को इस बात का विस्मरण होता है; इसलिए वे निरंतर दूसरों को सिखाने का ही कार्य करते रहते हैं । उससे ‘आप कोई महान हैं तथा आपका सभी सुनते हैं’, ऐसा प्रतीत होकर अहं बढता जाता है । इसके विपरित जहां सीखने की वृत्ती रहती है, जहां स्वयं के अज्ञान का भान रहता है तथा जहां अज्ञान है, वहां अहं नहीं रहता ।
2 उ. प्रशंसा की अपेक्षा नहीं करना
प्रशंसा की अपेक्षा करना, यह भी अहं का ही निर्देशक है । सभी घटनाएं गुरु की अथवा ईश्वर की इच्छानुसार अथवा नियमानुसार घटती है, निरंतर यह भाव रखा गया, तो प्रशंसा की अभिलाषा निर्माण नहीं होती । साथ ही किसी ने यदि अपनी प्रशंसा की, तो उस प्रशंसा का रूपांतर साधना की दृष्टि से कुछ सीखने में किया गया, तो उस प्रशंसा से अहं निर्माण नहीं होता ।
2 ऊ. अपनी स्वयं की तुलना स्वयं की अपेक्षा श्रेष्ठ लोगों के साथ करना
बचपन की जो अहंरहित वृत्ती रहती है, वह बडे होने के पश्चात् नष्ट होती है । वह नष्ट होने के लिए दो प्रमुख कारणं बताएं गएं हैं – विद्या एवं धन । इन दोंनो के कारण ‘मुझे कुछ समझता है तथा मैं कोई श्रेष्ठ व्यक्ति हूं‘, ऐसी वृत्ती निर्माण होती है । यही वृत्ती आगे घातक सिद्ध होती है । उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति ने स्वयं की तुलना अपने से श्रेष्ठ लोगों के साथ करनी चाहिए । उदा. गायन में प्रवीण होनेवाले श्रेष्ठ गायक के साथ, कार्यालय में अपने से उच्च पद पर कार्य करनेवाले के साथ स्वयं की तुलना करनी चाहिए । उसी प्रकार साधक ने अपने से उन्नत साधक के साथ स्वयं की तुलना करनी चाहिए । संत कबीर भी स्वयं के भक्ति की तुलना गोपियों के भक्ति के साथ करते हुए कहते थे कि, ‘कबीर, कबीर’ कहकर मेरी स्तुति क्यों कर रहे हैं ? यमुना के किनारे पर जाकर देखिएं । वहां एक-एक गोपी के कृष्णप्रेम में लक्षावधी कबीर बह जाएंगे ।
2 ए. बालकों के साथ खेलना
छोटे बच्चों के साथ खेलने से कुछ मात्रा में हम अपने बड्डपन का विस्मरण कर सकते हैं ।
2 ऐ. स्वयं के संदर्भ में अन्यों को कुछ नहीं कहना
स्वयं का सुख-दुःख, प्रपंच में घटनेवाली बातें इत्यादि जब कोई दूसरे को बताता है, उस समय उसमें देहबुद्धि अधिक मात्रा में होती है । स्वयं के विषय में अन्यों को कुछ भी नहीं बताने से देहबुद्धि अपनेआप न्यून होने लगती है ।
2 ओ. परिवार के साथ आचरण करते समय स्वेच्छा की अपेक्षा परेच्छा से आचरण करना
2 औ. ‘मैं’, ‘मेरा’ ऐसा उल्लेख करना टालना
‘मैं’, ‘मेरा’ ऐसा उल्लेख न करने से अथवा यदि करना है, तो ‘वो’, ‘उसका’, गुरु का’ ऐसा तृतीय पुरुषी उल्लेख स्वयं के संदर्भ में करने से ‘मैं’ की भावना न्यून होने के लिए सहायता प्राप्त होती है । व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा करना कठिन है, साथ ही सहज भी है । ‘ऋषिमुनी, संतमहात्मा भी ‘मैं’ का उल्लेख करना टालते थे । वे आगे प्रस्तुत किए कुछ उदाहरण से ध्यान में आएगा ।
अ. प्राचीन समय अधिकांश आध्यात्मिक लिखान में ऋषिमुनियों ने इस प्रकार लिखा है कि,
1. ‘तुने जो प्रश्न पूछा था, वही प्रश्न एक व्यक्ति ने नारदजी से भी पूछा था । उन्होंने जो उत्तर दिया, वही तुम्हें देता हूं ।’
2. ‘एक बार एक व्यक्ति ने ब्रह्मदेव को यही प्रश्न पूछा था, उस समय ब्रह्मदेव ने यह उत्तर दिया ।’
3. ‘पार्वती के प्रश्न का उत्तर देते समय शिव ने बताया ।’