शास्त्रानुसार विवाह करनेके
स्थानपर उसे ‘निपटानेवाले’ अधर्माचरणी हिंदु !
‘सनातन संस्थाके मार्गदर्शनानुसार साधना करनेवाले एक साधकके संबधीके घर विवाहके पौरोहित्य हेतु जानेका अवसर प्राप्त हुआ । वहां हुए अनुभव प्रस्तुत कर रहा हूं ।
पारंपरिक परिधानका आग्रह करनेवाले
पुरोहितका विरोध करनेवाले पुरोहित एवं सगे-संबंधी
विवाहविधि करते समय वर-वधूका परिधान पश्चिमी पद्धतिका था । एक संबंधी कह रहे थे, ‘क्या सनातन संस्थामें नौ गजकी साडी परिधान कर विधि करनेका नियम है ?’ वास्तवमें यह नियम धर्मशास्त्रमें है । उसका मूलभूत शास्त्र संस्था बताती है । साधकोंके विवाह इसी पद्धतिसे होते हैं । एक पुरोहित वरको धोती-उपवस्त्र एवं वधूको नौ गजकी साडी परिधान करनेके लिए कहते हैं, तो दूसरे पुरोहित एवं संबंधी कहते हैं कि ‘रहने दो भई, इसका विचार करते मत बैठो । आजके कालके अनुसार करो ।’ यही लोग विवाह अंतर्गत सगाई जैसी प्रथाओंका आग्रह करते हैं; परंतु ‘शास्त्रानुसार विधि’ का आग्रह कोई नहीं करता । (पारंपरिक परिधानका आग्रह करनेवाले पुरोहितका विरोध करनेवाले पुरोहित धार्मिक विधि कितनी विधिवत् एवं यथोचित करते होंगे, यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है ! – संकलनकर्ता)
‘कपडे बदलना, छायाचित्र खिंचवाना, एक-दूसरेसे
मिलना’, ऐसी बातोंसे विवाहविधिकी निरंतरताको खंडित
करनेवाले तथाकथित हिंदु एवं उन्हें इस संदर्भमें कुछ बोध न देनेवाले पुरोहित !
विवाहमुहूर्तके उपरांत तत्काल कन्यादान विधि करनेसे आध्यात्मिक लाभ होता है; परंतु आजकल विवाहमुहूर्तके उपरांत कपडे बदलना, छायाचित्र खिंचवाना, एक-दूसरेसे मिलना, जैसी बातोंमें २-३ घंटे व्यतीत किए जाते हैं । उस समय कोई भी संबंधी यह नहीं कहता कि ‘अब बहुत छायाचित्र खिंचवा लिए, अब विधि शीघ्रातिशीघ्र आरंभ करें ।’ पुरोहित भी इस डरसे उन्हें कुछ नहीं कहते कि, यजमान हाथसे निकल जाएंगे ।
धनका अपव्यय करनेवाले सार्वजनिक विवाह नहीं चाहिए !
धर्मकी शिक्षा है कि, मनुष्यका जन्म ईश्वरप्राप्तिके लिए हुआ है । इसलिए जीवनके प्रमुख सोलह प्रसंगोंद्वारा ईश्वरके निकट जानेके लिए धर्मने सोलह संस्कार बताए हैं । उनमेंसे ‘विवाह’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्कार है । प्राचीनकालमें विवाह ‘एक विशुद्ध संस्कार’ था । कालके प्रवाहमें विवाहके प्रति समाजका दृष्टिकोण बदलता जा रहा है । आजकल विवाहकी धार्मिक विधियोंकी अपेक्षा उसका सार्वजनिक महत्त्व विकसित करनेपर अधिक बल दिया जा रहा है । समयके अभावमें विवाहकी धार्मिक विधियां शीघ्रतासे निपटाई जाती हैं, परंतु उसके उपरांत स्वागत समारोह, समधियोंके परिजनोंकी आवभगत आदि कार्यक्रम अनिवार्यरूपसे किए जाते हैं । विवाहके लिए एक बडी राशि देकर मंगल भवन चुननेसे लेकर उसकी साज-सज्जापर खुले हाथोंसे धनका व्यय किया जाता है । यह धन वर-वधूके लिए रखनेसे, उन्हें भावी जीवनमें लाभ होगा अथवा राष्ट्र एवं धर्मके लिए उपयोग करनेसे स्वयंको पारमार्थिक लाभ होगा ।
धार्मिक कार्यके समय कोलाहल मचानेवाले हिंदु !
विवाहविधिके समय अन्य संबंधी बातें करते रहते हैं । इसलिए इस कोलाहलमें अन्योंको यह पता ही नहीं चलता कि ‘कौनसी विधि हो रही है ।’ इससे समाज अज्ञानी रहता है । धार्मिक कार्यके समय कोलाहल करनेवाले हिंदु अहिंदु ही हैं !’
वरमाला पहनाने की कृति में ही कुरीतियां आ गई हैं
१. विवाह संस्कार में ‘एक-दूसरे को वरमाला पहनाना’, इस प्रक्रिया का मूल उद्देश्य है, पति-पत्नी का एक-दूसरे में विद्यमान देवत्व का अनुभव करना ! वर को माला पहनाते समय वधू वर में अप्रकट स्वरूप में विद्यमान शिवतत्त्व का पूजन करती है । तब वर में शिवतत्त्व प्रकट स्वरूप में कार्यरत होता है । वधू को वरमाला पहनाते समय वर वधू में अप्रकट स्वरूप में विद्यमान देवीतत्त्व का पूजन करता है । तब वधू में देवी (शक्ति) तत्त्व प्रकट स्वरूप में कार्यरत होता है । माला पहनाते समय यदि ऐसा भाव रखते हैं कि ‘एक-दूसरे में देवत्व है’, तो उसका लाभ दोनों को होता है ।
कहीं-कहीं विवाह के समय हास्यविनोद करने का प्रयास भी होता है । उदाहरणार्थ, वर वधू को सहजता से माला न पहना सके, इसके लिए वधू को ऊंचा उठाया जाता है । कभी-कभी वर को भी ऊंचा उठाया जाता है । इस अनुचित कृत्य से विवाहस्थल पर दैवी स्पंदनों के आगमन में बाधा उत्पन्न होती है । साथ ही, इस कृत्य से वातावरण में तमोगुणी स्पंदनों का प्रक्षेपण होता है । इसका लाभ लेकर वायुमंडल में विद्यमान अनिष्ट शक्तियां विवाहस्थल पर कष्टदायक शक्ति के स्पंदनों का प्रक्षेपण करती हैं । इसका दुष्परिणाम वर एवं वधू पर भी हो सकता है ।’