परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के अमृतमहोत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में …
१. बिनाविश्राम सेवा करनेवाले प.पू. डॉक्टरजी !
१ अ. शस्त्रकर्म हेतु चिकित्सालय में भरती होेते हुए भी सेवा करना
प.पू. डॉक्टरजी का (प्रोस्टेट का) शस्त्रकर्म हुआ था । उस समय चिकित्सालय में भी वे ग्रंथ के लेखन संबंधी कागज पढने हेतु मंगवा लेते थे । वहां पर भी वे समय व्यर्थ नहीं गंवाते थे ।
१ आ. शस्त्रकर्म के पश्चात मूत्र का संग्रह करनेवाली थैली
दोनों पैरों के बीच में न आए; इसलिए उसे कमर को बांधकर सेवा करना
शस्त्रकर्म के पश्चात घर आने पर भी वे विश्राम न करते हुए निरंतर सेवा करते थे । उस समय उन्हें शस्त्रकर्म के पश्चात ‘कैथेटर एवं मूत्र का संग्रह करनेवाली थैली’ लगी थी । चलते समय उस थैली को पकडना पडता था । सेवा करते समय भी वह थैली दोनों पैरों के बीच न आए इसलिए उन्होंने उस थैली को अपनी कमर में बांध लिया और उस स्थिति में भी से सेवा करते रहे ।
१ इ. साप्ताहिक के पृष्ठ देर रात में आने के कारण साप्ताहिक समय
पर मुद्रण हेतु जा सके; इसलिए नींद से उठकर लेखन की जांच करना
प.पू. डॉक्टरजी ‘साप्ताहिक सनातन प्रभात’ के लेखन की जांच करते थे । उस समय प.पू. डॉक्टरजी साप्ताहिक के मुद्रण हेतु जाने के अंतिम क्षण तक लेखन को बदलकर पाठकों को नया लेखन उपलब्ध हो; इसके लिए प्रयास करते थे । ‘‘साप्ताहिक के पृष्ठ मुद्रण हेतु भेजने से पहले रात्रि में वह जैसे-जैसे अंतिम होते जाते, वे नींद से जागकर उन्हें जांचते जाते थे ।’’
१ ई. अनेक सेवा करते हुए भी प्रत्येक साधक
की कुशलता के अनुसार उसके लिए पहले ही निकालकर रखना
प.पू. भक्तराज महाराज के (प.पू. बाबा के) अमृत महोत्सव के समय तो महोत्सव की लगभग सर्व सिद्धता हो रही थी । उस समय ग्रंथों की सेवा भी चालू थी । सेवाकेंद्र में सेवा के लिए इतनी भीड होती थी । प.पू. डॉक्टरजी सभी साधकों को सेवा मिले इस हेतु प्रत्येक की कुशलता के अनुसार पहले ही सेवा निकालकर रखते थे । इसलिए किसी को भी सेवा के लिए रुकना नहीं पडता था । उस समय प.पू. डॉक्टरजी कब विश्राम करते थे, यह ज्ञात ही नहीं होता था ।
प.पू. डॉक्टरजी की सार्वजनिक सभाएं, विविध जनपदों के दौरे जब आरंभ हुए, तब अपनी अनुपस्थिति में साधकों के लिए पर्याप्त सेवा उपलब्ध हो इसलिए वे यात्रा पर जाने से पूर्व २-३ रात्रि जागकर बहुत सारा लेखन निकालकर रखते थे ।
एक सेवा के संदर्भ में मैं निर्णय नहीं कर पा रहा था । उस समय प.पू. डॉक्टरजी स्नानकक्ष से आधा स्नान किए हुए स्थिति में ही तौलिया लपेटकर बाहर आए तथा उन्होंने मुझे उस सेवा के संदर्भ में बताकर वे पुनः स्नान करने चले गए ।
२. प.पू. डॉक्टरजी के वाचन की गति कल्पनातीत होना
दैनिक सनातन प्रभात के आरंभ के समय प.पू. डॉक्टरजी दैनिक कार्यालय में आनेवाले गोवा के सभी समाचारपत्रों का वाचन कर उनमें निहित समाचारोंपर योग्य दृष्टिकोण लिखकर उन सभी समाचारपत्रों को ३० से ३५ मिनटों में संपादकीय विभाग में भेज देते थे ।
३. ध्वनिचक्रिकाएं बनाने हेतु महंगे ‘रिकार्डिंग
स्टुडियो’ में न जाकर आश्रम में ही ध्वनिमुद्रण करना
प.पू. डॉक्टरजी द्वारा सार्वजनिक सभाआें में दिए गए भाषणों का ध्वनिमुद्रण कर उनको ध्वनिचक्रिकाआें के (ऑडियो कैसेटस्) के रूप में प्रकाशित करना सुनिश्चित हुआ । तब किसी अच्छे रिकार्डिंग स्टुडियों में जाकर ध्वनिमुद्रण करने के विषय में पूछने पर प.पू. डॉक्टरजी ने सेवाकेंद्र में ही ध्वनिमुद्रण करने के लिए कहा । उस समय ध्वनिमुद्रण हेतु आवश्यक संगणकीय प्रणाली पर आधारित संयंत्र नहीं थे । साथ ही सेवाकेंद्र की वास्तु प्रमुख यातायात मार्ग से लगकर ही थी । उससे दिनभर वाहनों की बहुत आवाजें आतीं थी । इसलिए ध्वनिमुद्रण रात्रि में करना निश्चित किया गया । रात में ध्वनिमुद्रण करते समय पंखे की आवाज न आए; इसलिए पंखा बंद कर ध्वनिमुद्रण करना पडता था । मुंबई के नम वातावरण में ध्वनिमुद्रण कर जब प.पू. डॉक्टरजी बाहर आते थे, तब वे पसीने से तरबतर हो जाते थे । इस प्रकार थोडे-थोडे समय तक ध्वनिमुद्रण कर यह ध्वनिचक्रिकाएं सिद्ध की गईं ।
यह इससे सीख मिली कि गायकों की ध्वनिचक्रिकाएं सुनने में अच्छी हों, इसलिए उन्हें स्टुडियो में ही बनाने की आवश्यकता होती है किंतु संतों की वाणी में व्याप्त चैतन्य के कारण ही साधकों को अनुभूतियां प्राप्त होती हैं, इसलिए ऐसी बाह्य बातों की आवश्यकता नहीं होती है ।
४. सभी को सम्मान देनेवाले प.पू. डॉक्टरजी !
४ अ. प.पू. डॉक्टरजी के आचरण के
कारण बडे-बडे गुंडों में भी उनके प्रति आदर होना
प.पू. डॉक्टरजी ने इंग्लैड से भारत लौटने पर अपने चिकित्सालय हेतु एक निर्माण व्यवसायी को पैसे दिए थे । उसने उनसे पैसों की धोखाधडी की । उसके अनेक वर्ष पश्चात ऐसी लेन-देन में समझौता कर उसके बदले दलाली वसूलनेवाले कुछ गुंडों ने कहीं से यह जानकारी निकाली तथा वे प.पू. डॉक्टरजी से मिलने आए । प.पू. डॉक्टरजी उनसे निर्भयता से मिले और उन्होंने उन गुंडों को वह भूमि उनके प्रारब्ध में न होने की बात कही । इतना ही नहीं, अपितु प.पू. डॉक्टरजी ने उन्हें भी साधना बताई । उसके पश्चात भी वे गुंडे उनसे २ बार मिलने आए । तब उन्हें भी प.पू. डॉक्टरजी का निरालापन ध्यान में आया था और वे गुंडें भी जैसे संतों से मिला जाता है, वैसे अत्यंत विनम्रता के साथ एवं आदर से बोल रहे थे, साथ ही उनके द्वारा आरंभ की गई साधना के विषय में भी बोल रहे थे । हम सभी के लिए यह आश्चर्यजनक था । प.पू. डॉक्टरजी के साथ एक ही भेंट में वाल्या का रूपांतरण वाल्मिकि में होना हम देख रहे थे ।
एक पीठ के शंकराचार्य आनेवाले थे । उनके आने से पहले एक शिष्य आश्रम आए थे । उस समय प.पू. डॉक्टरजी उनसे मिले तथा उस शिष्य के चरणस्पर्श किए । बातचीत के दौरान प.पू. डॉक्टरजी का आध्यात्मिक अधिकार उनके ध्यान में आया । तत्पश्चात बातचीत समाप्त होनेपर उनके प्रस्थान के समय जब प.पू. डॉक्टरजी पुनः उनके चरणस्पर्श करने झुके, तब उन्होंने प.पू. डॉक्टरजी को रोकते हुए कहा कि ‘‘आप हमें लज्जित न करें ।’’
५. समाज का दिशादर्शन करनेवाले निर्भय प.पू. डॉक्टरजी !
प.पू.डॉक्टरजी ने बुद्धिप्रामाण्यवादी, धर्मद्रोहियों के विरुद्ध लिखकर उनके सूत्रों का शास्त्राधार लेकर खंडन किया । तब समाज के अनेक घटकों ने इन धर्मद्रोहियों को ‘महान समाजसुधारक’ के रूप में मान दिया था । राजकीय नेता उनकी जयंतियां जोर-शोर से मनाते थे । उस समय में उनके धर्मद्रोही लेखन के विरुद्ध लिखने का साहस किसी में नहीं था । तब प.पू. डॉक्टरजी ने इन तथाकथित समाजसुधारकों द्वारा लिखे गए लेखों से धर्मद्रोह का खुलासा किया । इतना ही नहीं उसे प्रकाशित भी किया । तब सनातन संस्था के विरुद्ध मोर्चे, आंदोलन हुए; परंतु किसी भी स्थिति में प.पू. डॉक्टरजी पीछे नहीं हटे ।
– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति