सहस्रों वर्षों के काल-पटल पर अपना प्रभाव अंकित करनेवाले अवतारी पुरुष !

साधारण व्यक्ति का जीवन पक्षियों की भांति होता है, ४ तिनकों से बनी गृहस्थी ! उनमें से भी जो व्यक्ति अपने स्वार्थ को त्याग कर समाज, राष्ट्र एवं धर्म हेतु अपना जीवन अर्पित करते हैं, वे विभूति कहलाते हैं । ऐसी अनेक विभूतियों को भारत मां ने अपनी गोद में खेलाया है । कुछ व्यक्ति सही समय पर अपने कार्य छाप अंकित कर, कीर्ति अर्जित करते हैं । भारत ने विश्‍व को ऐसे कुछ महापुरुष समर्पित भी किए हैं । इन सबके आगे जाकर सहस्रों वर्षोंतक मनुष्यजाति प्रभावित रहे, इस प्रकार के कार्य से लाखों जीवों का हृदय-परिवर्तन कर उनमें ईश्‍वरीय गुण उत्पन्न करनेवाले अवतारी पुरुषों ने भी इस भूमि पर जन्म लिया है । ईश्‍वर की कृपा से हम साधक अपने जीवन में परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी-जैसे अवतारी पुरुष को अनुभव कर रहे हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का पूरा जीवन एवं उनकी शिक्षा-दीक्षा, ‘जीवन को किसलिए और कैसे जीएं ?’, इसका एक आदर्श उदाहरण है । उनके शब्दों एवं प्रत्यक्ष कृत्यों के माध्यम से मिली शिक्षा के अभ्यास से अनेक साधकों के भावविश्‍व में ईश्‍वरीय ज्ञान प्रकट हुआ तथा जीवन धन्य हो गया ! इस कृतज्ञताभाव से आज वे अपना जीवन जी रहे हैं । इस प्रकार से सहस्रों व्यक्तियों का जीवन समृद्ध बनानेवाले अवतारी पुरुष कैसे होते हैं ? इसका पूरा ज्ञान सामान्य बुद्धि को होना अथवा उनका शब्दों वर्णन करना असंभव है । फिर भी, हमें आंशिकरूप से उनके जिन अवतारी गुणों का अनुभव उन्हीं की कृपा से हुआ है, उन्हें शब्दबद्ध करने का यह छोटासा प्रयास करने का साहस करता हूं :

 

१. प्रत्येक विषय की ओर जिज्ञासापूर्वक देखना तथा
उसका गहन अध्ययन कर, उसका लाभ मनुष्य-जाति को करवाना

परम पूज्य डॉक्टरजी के गुरु परम पूज्य भक्तराज महाराज ने उन्हें शिक्षा दी थी, ‘जिज्ञासु ही ज्ञान का अधिकारी होता है ।’ प.पू. डॉक्टरजी आज पूर्ण ज्ञानी होने पर भी, इस शिक्षा के अनुसार आचरण कर रहे हैं । वे स्वभावतः वैज्ञानिक हैं । इसलिए, प्रत्येक बात का सूक्ष्म अध्ययन कर, उसका कारण ढूंढना, उनका स्थायी गुण है ।

१ अ. प्रत्येक परिवर्तन को आध्यात्मिक शोधकर्ता की
दृष्टि से देखना तथा समाज को उसमें निहित अध्यात्मशास्त्र समझाना

प.पू. डॉक्टरजी व्यक्ति, वस्तु, वातावरण आदि में होनेवाले परिवर्तन की ओर आध्यात्मिक अनुसंधानकर्ता की दृष्टि से देखते हैं । परिणामस्वरूप, आश्रम में होनेवाले आध्यात्मिक परिवर्तनों से सामान्य व्यक्ति भी परिचित हो सका । प.पू. डॉक्टरजी की अन्वेषक दृष्टि के कारण ही आश्रम में होनेवाले सूक्ष्म नाद, दीवार से प्रतीत होनेवाली तरंगें, खिडकियों के कांचों की पारदशिर्र्ता में परिवर्तन, निर्जीव वस्तुआें में व्याप्त तरंगें, फर्श में होनेवाले परिवर्तन, आश्रम के विविध स्थानों पर अनुभव होनेवाली दैवी सुगंध, उनके और साधकों के शरीर पर होनेवाले परिवर्तन, विविध स्थानों पर अपनेआप उभरनेवाली आकृतियां जैसी अनेक बातें साधकों को ज्ञात हुए । ये परिवर्तन सबसे पहले प.पू. डॉक्टरजी की सूक्ष्म दृष्टि में आए । उन्होंने इन परिवर्तनों के विषय में वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक परीक्षण कर, उनमें निहित अध्यात्मशास्त्र समझाया । उनके अविष्कारी स्वभाव के कारण प्राप्त यह अपूर्व ज्ञान, आनेवाले सहस्रों वर्ष तक मानव-जाति का कल्याण करता रहेगा ।

१. आ. प्रत्येक विषय की जानकारी संकलित
कर, उसका उपयोग जन-प्रबोधन के लिए करना

प.पू. डॉक्टरजी ने अबतक विविध विषयों का पर्याप्त वाचन किया है । उनका वाचन सामान्य लोगों की भांति ‘पढो और छोड दो’, इस प्रकार का नहीं होता । उन्होंने विगत अनेक वर्षों जो पढा, उसमें से समाज के लिए उपयोगी जानकारी संकलित की । इन चुनी हुई जानकारी में से केवल पत्र-पत्रिकाआें की कतरनें इतनी हैं कि उनसे गत्ते की २५ पेटियां भर जाएं । यह सारा साहित्य उन्होंने ठीक से संभालकर रखा है । यह संग्रह केवल धर्म एवं अध्यात्म से संबंधित विषयों का नहीं, अपितु मानव-जीवन से संबंधित २ सहस्र ५०० से भी अधिक विषयों का वर्गीकरण है । प.पू. डॉक्टरजी के संकलित इस ज्ञान-संग्रह को देखें, तो पता चलता है कि उन्होंने इसके लिए कितने दशक वर्षों तक निरंतर अध्ययन-परिश्रम किया होगा ! यह विचार आते ही, उनके प्रति कृतज्ञता लगती है ।

प.पू. डॉक्टरजी के विगत कुछ दशक वर्षों के अथक परिश्रम के कारण ही, आज सनातन प्रभात-पत्र के अधिकतर लेख बनते हैं । इसी प्रकार, उनका उपयोग ग्रंथ-रचना में भी होता है । अध्यात्म के विविध विषयों पर प्रकाशित होनेवाली पत्र-पत्रिकाएं एवं ग्रंथ पढना, उनमें छपी ज्ञान-सामग्री की सूची बनाना, उनका यह कार्य निरंतर चल ही रहा है । उन्होंने यह कार्य अकेले ही नहीं किया, अपितु साधकों से भी करवाया, जिससे उनमें उदात्त एवं व्यापक विचारों का रोपण हुआ ।

१ इ. प्रत्येक अज्ञात बात को जानकर, उस पर व्यापक विचार करना

प.पू. डॉक्टरजी अनेक विषयों का अध्ययन करते हैं । उनमें से कुछ बातों के विषय में जानकारी न होने पर, वे उस विषय में दूसरों से पूछते हैं । वे कानून, सरकारी कार्यपद्धति आदि विषयों का भी अध्ययन करते हैं । एक बार जब वे महाबलेश्‍वर के विषय में एक पुस्तक पढ रहे थे, तब उसमें एक स्थान पर ‘बगदादी प्वाईंट’ का उल्लेख आया । उन्होंने दूसरों से पूछकर, उस स्थान का नाम ‘बगदादी प्वाईंट’ क्यों पडा, यह जान लिया । सूर्योदय के पश्‍चात भी पथदीप (स्ट्रीट लाइट) चालू रहते हैं, जिससे बिजली का अनावश्यक व्यय होता है, यह ध्यान में आने पर, उन्होंने एक साधक से कहा कि आप पता कीजिए कि पथदीपों को चालू अथवा बंद करने का सरकारी समय क्या है । यह जानकारी मिलने पर, शासन की निष्क्रियता एवं प्रबंधन की त्रुटियों के विषय में जानकारी हुई । तब प.पू. डॉक्टरजी ने इस विषय पर लेख लिखने के लिए कहा । खंभों पर पथदीप लगाने की प्रचलित पद्धति में कौन-सी त्रुटियां हैं, दीप किस प्रकार लगाने पर अधिक प्रकाश मिलेगा और बिजली की बचत होगी, इस विषय को उन्होंने रेखाचित्र बनाकर वैज्ञानिक ढंग से समझाया । यह लेख दैनिक सनातन प्रभात में प्रकाशित भी हुआ । सडक के किनारे लगाए जानेवाले सूचना-फलक, दो सूचना-फलकों के मध्य निर्धारित अंतर, उनको लगाने की पद्धति, सडक के किनारे दर्पण लगाने के नियम-जैसी बातें भी उन्होंने जान लीं तथा उनमें व्याप्त त्रुटियों को समझकर, उस विषय में सनातन प्रभात में उद्बोधक लेख लिखा ।

 

२. नई बातें अन्य भी समझ सकें, इसके लिए सतत प्रयत्नशील

संत तुकाराम का वचन, ‘हमें जो-जो ज्ञात हो, उसे अन्यों को बताएं’, का पालन प.पू. डॉक्टरजी अचूकता से करते हैं । आसपास का परिसर एवं वस्तुआें में होनेवाले परिवर्तन, देखने में आई नई वस्तुआें को वे सभी साधकों को दिखाने के लिए कहते हैं । इससे साधकों को अनेक दुर्लभ बातें देखने तथा उनका अनुभव करने का अवसर मिला ।

२ अ. उच्चलोक से समानता रखनेवाले प्राकृतिक परिवर्तन

१. एक दिन प.पू. डॉक्टरजी को सूर्यास्त के पश्‍चात का वातावरण विशेष, अर्थात फीके लाल रंग-जैसा दिखाई दिया । यह वातावरण स्वर्गलोक-जैसा है, ऐसा कहकर उन्होंने आश्रम के साधकों को उसका अनुभव करने के लिए कहा ।

२. इसी प्रकार, एक दिन उन्हें सूर्यास्त के पश्‍चात का वातावरण सामान्य से अलग दिखा । तब, उन्होंने उस वातावरण को जनलोक में स्थित वातावरण-जैसा बताया और साधकों को उसका अनुभव करने के लिए कहा । वातावरण में होनेवाले परिवर्तन, बुद्धिजीवियों की दृष्टि से प्रकृति का भाग होने से, उपेक्षा के योग्य होंगे; किंतु साधना करनेवालों के लिए स्वर्गलोक एवं जनलोक का वातावरण पृथ्वी पर अनुभव करना, महाभाग्य ही है !

२ आ. फूलों को भावपूर्ण एवं आकर्षक रचनाएं

आश्रम के कुछ साधक देवतापूजन की थाली में फूल भावपूर्वक एवं आकर्षक ढंग से सजाकर रखते हैं । इनमें से कुछ पुष्प-रचनाएं प.पू. डॉक्टरजी को दिखाने पर, उन्होंने उन रचनाआें को आश्रम के सभी साधकों को देखने हेतु रखने के लिए तथा उनके छायाचित्र निकालने के लिए कहा । प.पू. डॉक्टरजी में व्याप्त इस गुण का फल यह है कि अब फूलों की इन अनेक भावपूर्ण एवं आकर्षक रचनाआें का छायाचित्रों के माध्यम से संग्रह हो सका है । आनेवाले समय में ये पुष्प-रचनाएं ग्रंथ के रूप में समाजतक पहुंचेंगी ।

२ इ. भावपूर्ण शुभकामनापत्र

आश्रम के अनेक साधक जन्मदिवस, उपनयन संस्कार, विवाह आदि अवसरों पर एक-दूसरे को शुभकामनापत्र देते हैं । यह शुभकामनापत्र अच्छे आध्यात्मिक स्तर के साधक बनाते हैं । पहले-पहले साधक ये शुभकामना-पत्र प.पू. डॉक्टरजी को दिखाते थे । उन्होंने इन पत्रों में व्याप्त भाव एवं प्रेम देखकर, इनका संग्रह करने के लिए कहा । ऐसे कुछ विशेषतापूर्ण शुभकामनापत्रों का ग्रंथ आनेवाले समय में प्रकाशित किया जाएगा । इन शुभकामना-पत्रों को देखकर महंगे शुभकामना-पत्रों में व्याप्त अर्थहीन कविताआें के स्थान पर निर्मल मन से अन्यों के हित का चिंतन करने का संदेश कैसे दिया जाए, यह सीखा जा सकेगा ।

 

३. व्यक्तिगत जीवन को विरक्त भाव से जीना

३ अ. आहार

पिछले कुछ वर्षों से प.पू. डॉक्टरजी का आहार भी १-३ पदार्थों तक तथा वह भी छोटी कटोरी जितना तक ही सीमित है ।

३. आ. कपडे

प.पू. डॉक्टरजी के पास प्रतिदिन परिधान करनेयोग्य श्‍वेत रंग का २-३ जोडे कुर्ते-पायजामे तथा कार्यक्रम में परिधान करनेयोग्य २-३ जोडे, केवल इतने ही कपडे हैं ।

३ इ. निवासव्यवस्था

प.पू. डॉक्टरजी का निवास कक्ष १० x १४ फीट का है, जिसमें शौचालय एवं स्नानगृह है । इस कक्ष में कोई भी सजावट नहीं है । कक्ष में वातानुकूलित यंत्र होने पर भी उन्होंने कभी भी उसका उपयोग नहीं किया है । वे कहते हैं, ‘‘साधकों के लिए वातानुकूलित यंत्र नहीं है, तो वह मुझे किसलिए चाहिए ?’’

३ ई. फर्नीचर

प.पू. डॉक्टरजी के कक्ष में २ x १.५ फीट के आकारवाला एक पटल, २.५ फीट चौडा पलंग, २ अलमारियां (उसमें से १ पुराने लोहे से बनी अलमारी में नित्य उपयोग की सामग्री, तथा दूसरी अलमारी का उपयोग पूजाघर के रूप में होता है । आराम से बैठने योग्य १ कुर्सी, इतना ही फर्नीचर है । इसमें से अधिकांश फर्नीचर अर्पण के रूप में प्राप्त हुआ है । अर्पण की गई सामग्री का उपयोग करने की ओर प.पू. डॉक्टरजी का कितना ध्यान होता है, इसका एक उदाहरण इस प्रकार है । एक बार प.पूू. डॉक्टरजी द्वारा उपयोग की जानेवाली आरामकुर्सी खराब हो गई । तब उस कुर्सी को बदलने पर विचार हुआ, इस पर प.पू. डॉक्टरजी ने नई कुर्सी का उपयोग करने से मना कर दिया और अर्पण के रूप में प्राप्त कोई कुर्सी देने के लिए कहा; किंतु अर्पण के रूप में प्राप्त कुर्सियों में वे जिस कुर्सी का उपयोग करते थे, वैसी कुर्सी नहीं थी । कुछ समय पश्‍चात एक दुकानदार द्वारा अर्पण के रूप में अल्प भाव में दी गई कुर्सी का उन्होंने उपयोग करना प्रारंभ किया ।

३ उ. समय का योग्य प्रकार से उपयोग

प.पू. डॉक्टरजी पिछले कई वर्षों से धर्मकार्य हेतु कार्यरत हैं । पिछले कुछ वर्षों से वे शारीरिक अस्वस्थता के कारण अपने कक्ष के बाहर भी नहीं आ सकते । ऐसे होते हुए भी उन्होंने इस समय का धर्मकार्य हेतु उपयोग किया । प्रातःकाल से लेकर देर रात तक धर्मकार्य हेतु सेवा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया । शरीर पूर्णतः निःशक्त होने की स्थिति होने पर ही वे विश्राम करते हैं । संक्षेप में कहा जाए, तो धर्मकार्य से अपने व्यक्तिगत जीवन को अलग करने की इच्छा उन्होंने नहीं रखी । अतः विगत अनेक वर्षों से वे विश्राम के लिए शांत बैठे अथवा धर्मकार्य से कुछ अलग करते हुए उन्हें अभीतक किसी ने देखा नहीं है ।

 

४. समष्टि हेतु उपयुक्त सर्वोच्च एवं ईश्‍वरीय गुणों का संगम !

सभी साधकों में यह भाव है कि प.पू. डॉक्टर अवतारी पुरुष हैं । वास्तविक रूप से प.पू. डॉक्टरजी उच्च कोटि के संत होते हुए भी उन्होंने कभी चमत्कारों के दावे नहीं किए अथवा उन्होंने किसी को उनके व्यावहारिक समस्याआें से मुक्ति नहीं दिलाई । आप जितनी निष्ठा के साथ साधना करेंगे, उतने आप ईश्‍वर के निकट पहुंच जाएंगे, उन्होंने निरंतर इसी कर्मसिद्धांत को रखा । अवतारी पुरुष की संकल्पना के साथ जुडे चमत्कार एवं नमस्कार से दूर रहकर भी साधक, प.पू. डॉक्टरजी को अवतारी पुरुष मानते हैं । इसका कारण है उनमें व्याप्त ईश्‍वरीयत्व की प्रचीति उनमें व्याप्त ईश्‍वरीय गुणों के संगम से होती है ।

४ अ. आज्ञापालन

अपने गुरु के सान्निध्य में प.पू. डॉक्टरजी द्वारा उनके आज्ञापालन के अनेक उदाहरण हैं । अब परात्पर गुरुपद पर विराजमान होते हुए भी प.पू. डॉक्टरजी अनेक संतों की आज्ञाआें का पालन करते हैं । अनेक संत सनातन के साधकों को होनेवाले आध्यात्मिक कष्टों के लिए उपाय करने के लिए कहते हैं तथा प.पू. डॉक्टरजी भी नित्य रूप से उन उपायों को करते हैं । उन उपायों में से उनको फल की अपेक्षा नहीं होती, अपितु संतों का आज्ञापालन कर उनके संकल्प का लाभ उठाना, यही उनका उद्देश्य होता है ।

४ आ. निरपेक्ष प्रेम

प.पू. डॉक्टरजी का निरपेक्ष प्रेम विविध घटनाआें के माध्यम से व्यक्त होता है । उसके कुुछ निम्न उदाहरण हैं –

१. सहस्रों साधक सनातन संस्था के मार्गदर्शन के अनुसार साधना करते हैं । जब किसी स्थान के साधक प.पू. डॉक्टरजी से मिलते हैं, तब प.पू. डॉक्टरजी स्मरणपूर्वक वहां के पुराने साधकों की पूछताछ करते हैं, साथ ही पहले उन साधकों ने कितनी तडप के साथ धर्मप्रसार का कार्य किया, यह बताकर उनके प्रति आदर भी व्यक्त करते हैं ।

२. आश्रम में रहनेवाला कोई साधक यदि अस्वस्थ है अथवा उसको कोई घरेलु समस्याएं हैं, इस विषय में उनको ज्ञात होने पर वे समय-समय पर उस साधक की पूछताछ करते हैैं तथा उसका उत्साह बढे और उसको मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर आधार प्राप्त हो, इसकी ओर ध्यान देते हैं ।

३. आश्रम में रहनेवाले साधक तो परिवार के घटक ही हैं; अतः उन्हें कोई असुविधा न हो, इसकी ओर उनका ध्यान होता है ।

४. साधकों की भांति वे परिचयवाले हिन्दुत्वनिष्ठों के विषय में भी पूछताछ करते हैं, साथ ही किसी अपरिचित हिन्दुत्वनिष्ठ का अच्छा कार्य हो, तो वे उसकी भी प्रशंसा करते हैं ।

५. कोई साधक अथवा साधक के परिजन अस्वस्थता के कारण चिकित्सालय में प्रविष्ट होने पर चिकित्सालय में सहायता हेतु साधक को भेज देना, उसके लिए वाहन भेजना आदि प्रबंध किया गया है क्या, वे इनकी ओर ध्यान देते हैं ।

इन सभी कृत्यों को करते समय उस साधक से भविष्य में कुछ मिलेे, इसकी उनको अपेक्षा नहीं होती । इसके विपरीत उस साधक द्वारा राष्ट्र एवं धर्म के संदर्भ में किए जानेवाले कार्य के प्रति उनमें कृतज्ञताभाव अधिक होता है ।

४ इ. अन्यों को सिखाना

ग्रंथलेखन की सेवा विविध चरणों की होती है । उनमें से प्राथमिक चरण की सेवाएं बहुत संकीर्ण स्वरूप की तथा सीखने में कठिन होती हैं । पहले ये सभी सेवाएं प.पू. डॉक्टरजी स्वयं करते थे; किंतु आगे जैसे-जैसे साधकों की उपलब्धता होती गई, वैसे-वैसे प.पू. डॉक्टरजी उन साधकों को सिखाते चले गए । इस प्रकार से उन्होंने अनेक साधकों को ये सेवाएं सिखाईं । सेवा सीखनेवाले साधकों को उस सेवा में व्याप्त सूक्ष्मता को बार-बार बताना, उससे कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही, इसकी ओर ध्यान देना तथा उसके द्वारा की गई सेवा जांचना इत्यादि सेवाएं सूक्ष्मता से करने योग्य होती हैं; किंतु उनको करने में उन्होंने कभी टालमटोल नहीं की अथवा उन्होंने उनको अन्यों को भी करने के लिए नहीं कहा ।

४ ई. मितव्ययता

प.पू. डॉक्टरजी में निहित इस गुण के कारण ही आर्थिक स्रोत सीमित होते हुए भी संस्था का यह भव्यदिव्य कार्य इतनी अल्प अवधि में खडा हो सका । छोटी-छोटी बातों से भी प.पू. डॉक्टरजी मितव्यय करते हैं और उसे कैसे करते हैं, यह सभी के लिए सीखने योग्य है । एक बाजू कोरी होनेवाले कागज, औषधियों के वेष्टन की पिछली बाजू, टिकट इत्यादि का लेखन हेतु उपयोग किया जाता है । दैनिक के पृष्ठों को पडतालने हेतु उनकी प्रति उसकी पिछली कोरी बाजू पर ही निकाली जाती है । इस प्रकार विगत २० वर्षों में शासकीय कामकाज के कारण को छोडकर अन्य किसी भी कारण हेतु कोरे कागजों पर प्रति निकाली नहीं जाती । इससे अबतक संस्था के कितने धन का अपव्यय टल गया होगा, यह ध्यान में आएगा ।

४. उ. अन्यों का विचार करना

प.पू. डॉक्टरजी किसी भी घटना में अन्यों को कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते हैं । साधक छोटे से छोटा भी हो, तो उसको अपने कारण कष्ट न हो, प.पू. डॉक्टरजी में यह भाव होता है । इस भाव को उन्होंने वास्तविक रूप में तो उतारा ही, अपितु आश्रम में रहनेवाले साधकों में भी उन्होंने इन बातों का संस्कार किया । उसके लिए आश्रम में विविध कार्यपद्धतियां निर्धारित की गईं तथा उसके अनुसार आचरण करते-करते अब साधकों में भी अन्यों का विचार करने का गुण उत्पन्न हुआ ।

१. कोई साधक यदि सो रहा हो, तो अन्य साधक उसके कक्ष में जाने पर शोर न मचाएं अथवा प्रखर दीप न जलाएं, प.पू. डॉक्टरजी ने साधकों को यह सिखाया ।

२. आश्रम में यदि कोई प्रदर्शनी हो, तब सभी साधकों द्वारा एक ही समय वहां जाकर उससे वहां भीड न हो तथा उससे साधकों का समय भी व्यर्थ न जाए; इसके लिए साधकों को विविध चरणों में वहां भेजने की सीख प.पू. डॉक्टरजी ने दी है ।

३. आश्रम में कोई साधक अस्वस्थ हो तो उसके कक्ष के साधक अथवा विभाग के सहसाधक उसकी चिकित्सा, भोजन, कपडे धोना आदि प्रबंध करें, यह सीख प.पू. डॉक्टरजी द्वारा दी गई है । अतः आश्रम के किसी साधक के अस्वस्थ होने पर स्वस्थ होने के लिए उसे घर नहीं जाना पडता । आश्रम के साधक घर के लोगों की भांति ही उसका ध्यान रखते हैं ।

४. प.पू. डॉक्टरजी को कोई सेवा करते समय अन्य साधकों की सहायता की आवश्यकता हो, तो उससे उस साधक को अपना भोजन, विश्राम एवं नामजप के समयों में परिवर्तन न करना पडे, इसका वे ध्यान रखते हैं अथवा जब वे सेवा करते हैं, तब उस साधक को अन्य सेवा करने के लिए कहते हैं ।

४. ऊ. व्यक्ति को तुरंत परखना

प.पू. डॉक्टरजी किसी व्यक्ति के साथ ४-५ मिनट बात करने पर उसको तुरंत परख लेते हैं । अर्थात यह परख अध्यात्मिक दृष्टि से होती है । उसमें उस व्यक्ति में अहं कितना है ?, उसमें भाव कैसा है ?, उसमें धर्म कार्य की कितनी तडप है ?, इस प्रकार का निरीक्षण वे करते हैं तथा उस व्यक्ति के स्तर के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन करते हैं ।

४ ए. समय का अचूकता के साथ उचित उपयोग

१. प.पू. डॉक्टरजी समय का अचूकता के साथ उपयोग करते हैं । इसका एक उदाहरण यह कि भोजन करते समय भी दूसरी ओर उनका वाचन चालू रहता है ।

२. पहले सार्वजनिक सभाआें के कारण प.पू. डॉक्टरजी विविध यात्राआें पर जाते थे । उस समय भी देर रात तक ग्रंथलेखन की उनकी सेवा चालू ही रहती थी ।

 

५. समाज में होनेवाली अच्छी-बुरी घटनाओं की ओर संवेदनशीलता के साथ देखना

प्रवास, वाचन अथवा अन्य व्यक्तियों द्वारा बताई गई बातों के कारण समाज में होनेवाली अच्छी-बुरी घटनाएं प.पू. डॉक्टरजी तक पहुंचती हैं । इन बातों पर वे संवेदनशीलता के साथ विचार करते हैं तथा उस स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु क्या किया जा सकता है ?, इस पर वे विचार करते हैं । इसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार से हैं ।

अ. कई बार सडक के किनारे लगाए गए गांवों के नामों के फलकों में व्याकरण की गंभीर चूकें होती हैं । इसके लिए उन्होंने तुरंत अयोग्य पद्धति से लिखे गए फलकों के स्थानों के नाम सनातन प्रभात में प्रकाशित करने के लिए कहा, साथ ही संबंधित विभाग के पास परिवाद (शिकायत) प्रविष्ट करने के लिए भी कहा ।

आ. एक साधक ने उनको चिकित्सालय में रोगियों पर किए जानेवाले अत्याचारों के विषय में बताया । उस पर उन्होंने इस प्रकार के चिकित्सालयों से संबंधित सभी अनुभवों को सनातन प्रभात के पाठकों से मंगवाकर उस विषय में उद्बोधन आंदोलन चलाने के लिए कहा ।

इ. समाज के किसी व्यक्ति द्वारा राष्ट्र एवं धर्म की दृष्टि से अच्छा कार्य किया गया हो, तो सनातन प्रभात में उसके साथ साक्षात्कार प्रकाशित किया जाए, ऐसा प.पू. डॉक्टरजी सुझाते हैं । उस व्यक्ति के कार्य से प्रेरणा लेकर उस प्रकार से कार्य करने की प्रेरणा अन्यों को भी मिले, उसके पीछे यह उद्देश्य होता है ।

ई. केवल एक व्यक्ति के रूप में देखा जाए, तो भी प.पू. डॉक्टरजी से, ‘आदर्श जीवन कैसे जीएं ?’, इसका उद्बोधन मिलता है । इस प्रकार के आदर्श व्यक्तित्व का अध्यात्म के संपुट में बैठने से आज सर्वत्र उसका प्रकाश (तेज) फैल रहा है । इस तेज को शब्द में समा पाना असंभव ! बस केवल उसमें नहा लेना चाहिए !! और जीवन को धन्य बनाना चाहिए !!!

– श्री. नागेश गाडे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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