उच्च विद्याविभूषित प.पू. डॉक्टरजी ने उनके गुरू की , परात्पर गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी की तन-मन-धन अर्पण कर परिपूर्ण सेवा की । इस कारण प.पू. भक्तराज महाराजजी ने उन्हें डॉक्टर, आपको ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दिया, ऐसा आशीर्वाद दिया । हमारे द्वारा अनुभव किया हुआ उनका यह शिष्यरूप का आचरण सर्व साधकों के लिए मार्गदर्शक होने से यहां देने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
१. गुरु के समक्ष सादगी से जानेवाले
और सर्व प्रकार की सेवा करनेवालेे शिष्यरूपी प.पू. डॉक्टर !
प.पू. डॉक्टर शीव गुरुकुल में रहकर ग्रंथ लेखन का कार्य, प्रसार-प्रचार का कार्य आदि विविध सेवाएं करते थे । उस समय प.पू. बाबा के यहां भंडारे होते । प्रत्येक भंडारे में प.पू. डॉक्टरजी जाते थे । इतना ही नहीं, दीपावली-दशहरा आदि त्योहारों पर प.पू. बाबा जहां रहते, वहां प.पू. डॉक्टरजी को बुलाते थे । प.पू. डॉक्टरजी प.पू. बाबा के यहां जाते समय सदैव सादे कपडे पहनकर जाते । वे वहां जाकर विविध सेवाएं करते थे ।
वहां जाते समय वे प.पू. बाबा, प.पू. रामानंद महाराजजी और पू. जीजी (प.पू. बाबा की धर्मपत्नी) को देने हेतु अर्पण साथ ले जाते थे । साथ ही कुछ भक्तों की रुचि-अरुचि का ध्यान रखते हुए कुछ वस्तुएं अथवा कपडे ले जाते थे ।
२. गुरू को साधना का ब्यौरा देनेवालेे शिष्यरूपी प.पू. डॉक्टरजी !
प.पू. बाबा के यहां भंडारे में जाकर प.पू. डॉक्टरजी अपनी साधना का लेखा-जोखा (ब्योरा) प.पू. बाबा को देते थे ।
२ अ. अप्रकाशित ग्रंथ का लेखन और प्रकाशित ग्रंथ गुरू को दिखाना
तू किताबों पे किताबे लिखेगा । ऐसा प.पू. अनंतानंद साईशजी का प.पू. बाबा को दिया आशीर्वाद प.पू. बाबा प.पू. डॉक्टरजी के माध्यम से पूर्ण करते थे । शीव में ग्रंथ निर्मिति का कार्य चालू था । ऐसे में यदि कोई नवीन ग्रंथ प्रकाशन के लिए तैयार हो तो प.पू. डॉक्टरजी उसका लेखन प.पू. बाबा को दिखाने हेतु साथ रखते । साथ ही जो ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं , वे दिखाने और भक्तों को भेंट देने हेतु उसकी कुछ प्रतियां साथ रखते । तब यह देखकर प.पू. बाबा भी प.पू. डॉक्टरजी की प्रशंसा अन्यों के समक्ष करते और कहते, देखो कितना सुंदर ग्रंथ लिखा है ।
२ आ. प्रश्नों की सूची साथ लेना
प.पू. बाबा के पास जाने पर प.पू. डॉक्टर स्वयं की अनुभूतियों का विश्लेषण उन्हें पूछते थे । साथ ही उन्हें पूछने के लिए कुछ आध्यात्मिक प्रश्नों की सूची भी साथ रखते थे ।
२ इ. गुरु को सनातन संस्था के कार्य का ब्यौरा देना
सनातन संस्था के (उस समय का नाम सनातन भारतीय संस्कृति संस्था) संदर्भ में प्रसार में घटी हुई घटनाआें की अन्य दैनिकों में छपी हुई कतरन साथ लेते थे । उसमें सनातन तथा प.पू. डॉक्टरजी से संबंधित प्रकाशित बातें प.पू. बाबा को दिखाते थे । तब बाबा कहते थे हमारे गुरु ने हमें चालीस वर्ष संभाला है । क्या हम आपको नहीं संभालेंगे । प.पू. बाबा का ऐसा आश्वासक उत्तर सुनकर कार्य करने में उत्साह आता था । संक्षेप में वे अध्यात्मप्रसार और स्वयं की साधना का पूर्ण ब्यौरा गुरु के चरणों में देते थे ।
३. गुरु के आश्रम में शिष्यरूपी प.पू. डॉक्टरजी का सेवाभाव !
३ अ. आश्रम में पहुंचने पर त्वरित स्वच्छता और अन्य सेवा प्रारंभ करना
आश्रम में पहुंचने पर यहां-वहां न जाते हुए प.पू. डॉक्टरजी प्रथम सीधे प.पू. बाबा का दर्शन करने हेतु जाते थे और साथ आए हुए साधकों को भी उनके दर्शन के लिए ले जाते थे । प.पू. बाबा का दर्शन होने के पश्चात आश्रम व्यवस्थापन द्वारा रहने के लिए दिए गए कक्ष में स्वयं का सर्व सामान रखते थे और अन्य साधकों के रहने की व्यवस्था भी देखते थे । यह सब होने के उपरांत आश्रम की सेवा प्रारंभ होती थी । आश्रम के शौचालयों से सेवा प्रारंभ होती थी । शौचालयों, स्नानगृहों की स्वच्छता करना, आश्रम के सभी कक्षों की भीत पर लगे मकडी के जाले हटाना, पंखे और दीप स्वच्छ पोंछना, भक्तों की चप्पलें एक पंक्ति में लगाने के लिए लकडी की पटियों की परत बनाना, भोजन के समय भक्तों को भोजन परोसना, भोजन की पत्तलें उठाना, आश्रम के आसपास का परिसर स्वच्छ करना, ऐसी अनेक सेवाएं वे स्वयं करते थे ।
३ आ. कडी धूप में आश्रम परिसर के कांटे और
बडे-बडे पत्थर स्वयं उठाना और साधकों से भी वह करवा लेना
उस समय कांदळी स्थित आश्रम के आसपास का परिसर कांटों भरा था । सर्वत्र बडे-बडे पत्थर थे । कडी धूप में प.पू. डॉक्टरजी वह परिसर स्वच्छ करते । उनके हाथों में कांटे चुभते थे, पत्थर भी भारी होते थे; परंतु तब भी वे उठाते थे । हम सभी मिलकर यह सेवा करते हुए थक जाते थे । हाथ में कांटे चुभते । ऊपर से कडी धूप रहती । हम थक जाते थे; परंतु प.पू. डॉक्टरजी बिना थके सर्व सेवाएं स्वयं करते थे और हमसे भी कराते थे । गुरुसेवा कैसे करनी चाहिए, यह अपनी प्रत्येक कृति से शिष्यरूपी प.पू. डॉक्टरजी हम साधकों को सिखाते थे ।
३ इ. भजनों के कार्यक्रम में बैठक व्यवस्था से लेकर सर्व सेवाएं अंत तक खडे रहकर करना
प.पू. बाबा के भजनों के कार्यक्रम में आश्रम के सभागृह में भक्तों की भीड होती थी । ऐसी स्थिति में प.पू. डॉक्टरजी सर्व भक्तों को बैठने हेतु स्थान बनातेे, उन्हें पानी देते, किसी को सहायता की आवश्यकता हो तो करना, ऐसी सभी सेवाएं वे निरंतर खडे रहकर करते थे । प.पू. बाबा के भजन के आरंभ से अंत तक वे बिना थके सेवा करते थे । प.पू. बाबा भी उन्हें कनखियों से देखते कि वे क्या कर रहे हैं । प.पू. बाबा जब उन्हें बैठने के लिए कहते, तभी वे बैठते थे । तब तक उनकी सेवा निरंतर चलती रहती थी ।
३ ई. अन्य भक्तों के बिछौने बिछाना और बिछौने पर सिलवट हो, तो साधकों को योग्य दृष्टिकोन देना
कई बार भजन चालू रहता था और भक्तों के सोने की व्यवस्था करनी पडती थी । ऐसे समय प.पू. डॉक्टर आगे बढकर वह सेवा हम साधकों से करवा लेते थे । गद्दे बिछाना, उस पर चादर बिछाना, ऐसी सेवाएं हम करते थे । सेवा पूर्ण होने पर वे देखने के लिए आते थे । किसी गद्दे की चादर पर यदि सिलवट दिखाई देती थी, तो वे हमें वह दिखा देते थे और कहते थे कि यहां नामजप न्यून हुआ है, यहां सेवा करते समय मन में दूसरा विचार था । इस पर वे हमें आध्यात्मिक दृष्टिकोण देते हुए बताते थे कि चादर पर पडी हुई एक-एक सिलवट अपने मन का एक-एक विचार है और उसे व्यवस्थित करवा लेते थे । इस प्रकार वे हमें परिपूर्ण सेवा करना सिखाते थे ।
– पू. सत्यवान कदम और श्री. दिनेश शिंदे