१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा साधकों की शीघ्र
आध्यात्मिक उन्नति हेतु गुरुकृपायोग नामक साधनामार्ग की निर्मिति
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग इत्यादि किसी भी मार्ग से साधना करनेपर ईश्वरप्राप्ति होने हेतु गुरुकृपा के अतिरिक्त कोई पर्याय नहीं । इसीलिए कहा गया है, गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।, अर्थात शिष्य का परममंगल (मोक्षप्राप्ति) केवल गुरुकृपा से ही हो सकता है । शीघ्र गुरुप्राप्ति हो और गुरुकृपा निरन्तर होती रहे इसलिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने गुरुकृपायोग नामक सरल साधनामार्ग बताया है ।
१ अ. गुरुकृपायोग का सिद्धान्त जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग !
सम्प्रदायों में तथा विविध पन्थों में सभी के लिए एक ही साधना होती है; परन्तु गुरुकृपायोगानुसार जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग है । प्रत्येक व्यक्ति भिन्न प्रकृति का और पात्रता का होता है इसलिए ईश्वरप्राप्ति के साधनामार्ग भी अनेक हैं । हमारी प्रकृति और पात्रता के अनुरूप साधना करने से ईश्वरप्राप्ति शीघ्र होने में सहायता मिलती है । सनातन संस्था के सहस्रावधि साधक गुरुकृपायोग की एक ही छत्रछाया में विभिन्न मार्ग से अपनी साधना कर रहे हैं ।
१ आ. गुरुकृपायोग के प्रमुख सिद्धान्त
अधिकांश लोगों को साधना के सिद्धान्तों का ज्ञान न होने के कारण वे अनुचित साधना करने में जीवन गंवा देते हैं । ऐसा न हो, इसलिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने गुरुकृपायोग के निम्नांकित सिद्धान्त बताए हैं –
१. रुचि एवं क्षमता के अनुसार (प्रकृतिनुसार) साधना,
२. अनेक से एककी ओर जाना,
३. स्थूल से सूक्ष्मकी ओर जाना,
४. स्तरानुसार साधना,
५. वर्णानुसार साधना,
६. आश्रमानुसार साधना,
७. कालानुसार साधना,
८. सगुण की अपेक्षा निर्गुण श्रेष्ठ; परन्तु साधना हेतु निर्गुण उपासना की अपेक्षा सगुण उपासना श्रेष्ठ,
९. सिद्धान्त अनुसार साधना एवं
१०. व्यक्तिनिष्ठा नहीं, अपितु तत्त्वनिष्ठा चाहिए !
१ इ. गुरुकृपायोग की विशेषताएं
१ इ १. सर्वसमावेशक साधनामार्ग
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि साधनामार्गों को समाविष्ट कर लेनेवाला, ईश्वरप्रप्ति का सीधा-सरल मार्ग है, गुरुकृपायोग । गुरुकृपायोग में विविध योगमार्गों की मात्रा आगे दिए अनुसार है ।
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१६.३.२०१७)
१ इ २. गुरुमन्त्र देने की पद्धति से रहित साधनामार्ग है, गुरुकृपायोग !
गुरुकृपायोगानुसार साधना करनेवाले साधकोंमें से किसी को भी मैंने गुरुमन्त्र नहीं दिया है, तब भी वे आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं और कुछ साधक तो आध्यात्मिक उन्नति कर सद्गुरु पदतक पहुंच गए हैं । इसके कारण आगे दिए अनुसार हैं ।
१. गुरुमन्त्र मिलना, अर्थात गुरुसे दीक्षा प्राप्त होना । गुरुदीक्षा अर्थात गुरुकी बताई साधना । गुरुकृपायोग में बताई गई गुरुतत्त्व को कालानुसार अपेक्षित व्यष्टि साधना (व्यक्तिगत साधना) एवं समष्टि साधना (समाज की आध्यात्मिक उन्नति हेतु की जानेवाली साधना), एक प्रकार से गुरुकी ही बताई साधना है, इसलिए यह साधना करने से गुरुकृपा होती है, ऐसा अनेक साधकों ने शब्दशः अनुभव किया है ।
२. गुरुमन्त्र में मन्त्र शब्द है, फिर भी बहुधा शिष्य कौनसा नामजप करे, यह गुरु द्वारा बताया जाता है । गुरुकृपायोगानुसार साधना में जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग यह सिद्धान्त है और इस साधना का केन्द्रबिन्दु है व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति । इसलिए साधक अपनी साधना के लिए पूरक अर्थात अपनी प्रकृति (स्वभाव), स्वयं को होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का कष्ट, वे कर रहे समष्टि साधना हेतु आवश्यक आध्यात्मिक बल इत्यादि कारणोंके लिए आवश्यक पृथक-पृथक जप करते हैं । यह सब आध्यात्मिक उन्नति हेतु पोषक होने के कारण अलग से गुरुमन्त्र की आवश्यकता नहीं होती ।
३. केवल गुरुमन्त्र लेकर शिष्य बनने की अपेक्षा श्रीगुरु के मनकी बात जानकर, उन्हें अपेक्षित गुरुसेवा करनेवाला शिष्य बनना अधिक उचित है, यह गुरुकृपायोगानुसार साधना में सिखाया है । इसलिए साधक गुरुमन्त्र में नहीं उलझते ।
योगमार्ग | मात्रा (प्रतिशत) |
---|---|
१. भक्तियोग | ४० |
२. ज्ञानयोग | ३० |
३. कर्मयोग | २० |
४. अन्य | १० |
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१८.३.२०१७)
१ इ ३. गुरुकृपायोग के आठ अंग
१. स्वभावदोष-निर्मूलन, २ अहं-निर्मूलन, ३. नामजप, ४. सत्संग, ५. सत्सेवा, ६. सत्के लिए त्याग, ७. प्रीति (निरपेक्ष प्रेम) एवं ८. भक्तिभाव जागृत करने हेतु प्रयास (अधिक विवेचन हेतु पढें – ग्रन्थमाला गुरुकृपायोग)
१ इ ४. किसी भी योगमार्ग की साधना उचित ढंग से होकर शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति होने के लिए सहायक सिद्ध होती है, गुरुकृपायोग की स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन पद्धति । – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (६.४.२०१७)
२. साधकों की साधना की ओर व्यक्तिगत ध्यान देने हेतु व्यष्टि
साधना और समष्टि साधना का ब्यौरा देने की पद्धति निर्माण करना
साधना करते समय स्वभावदोष एवं अहं के कारण साधकों से चूकें (गलतियां) होती हैं । इन चूकों के कारण साधकों की साधना की और सेवाकी भी फलोत्पत्ति घट जाती है, तथा गुरुकार्य की भी हानि हो सकती है । ऐसा न हो, इसलिए प्रत्येक साधक अपनी व्यष्टि एवं समष्टि साधना का ब्यौरा साधारणतया प्रत्येक ७ दिनों में दे, ऐसी पद्धति परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने बनाकर दी है ।
ब्यौरा देने के निमित्त से साधकों का अपनी साधना के विषय में चिन्तन होता है । ब्यौरा लेनेवाले से साधकों को उचित दृष्टिकोण मिलता है और साधना की अगली दिशा भी प्राप्त होती है । इससे साधकों की साधना अच्छी होने में सहायता मिलती है । इस प्रकार साधना का गहन सूक्ष्मताआें के साथ (बारीकी से) नियमित ब्यौरा देने की पद्धति अन्य किसी भी सम्प्रदाय में अथवा आध्यात्मिक संस्था में नहीं देखी जाती !
३. साधना की दृष्टि से १४ विद्या एवं ६४ कलाआें की शिक्षा का बीजारोपण करना
जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग, इस सिद्धान्त के अनुसार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने साधकों की विद्या ग्रहण करने की क्षमता और कला में उनकी रुचि के अनुरूप उन्हें साधना सिखाई । वेदों का अध्ययन करने की क्षमता से युक्त साधकों के लिए सनातन साधक-पुरोहित पाठशाला स्थापित की । आज परात्पर गुरु डॉक्टरजी के मार्गदर्शन में ईश्वरप्राप्ति हेतु कला का ध्येय रखकर कुछ साधक चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य-कला, नाट्यशास्त्र, वास्तुविद्या आदि कलाआें के माध्यमों से साधना कर रहे हैं ।
परात्पर गुरु डॉक्टरजी के मार्गदर्शन में कार्यरत महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के माध्यम से साधना की दृष्टि से १४ विद्या एवं ६४ कलाआें की शिक्षा दी जाएगी ।
४. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन एवं
कृपा के कारण साधकों की हो रही शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति !
अनेक संत और गुरु के पास उनकी परम्परा आगे चलाने के लिए एक भी शिष्य नहीं होता । इसके विपरीत परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन एवं कृपा के कारण मार्च २०१७ तक सनातन के ७० साधक सन्त बन गए हैं और १,०१४ साधक ६० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर सन्त बनने के मार्ग पर हैं ।