१. किसी भी प्रकार की अर्थप्राप्ति न होते हुए भी अपना धन भी धर्मकार्य हेतु देनेवाले त्याग के साक्षात रूप प.पू. डॉक्टर !
‘लगभग २४-२५ वर्ष पूर्व जब संस्था का प्रसारकार्य आरंभ हुआ, तब प.पू. डॉक्टरजी का दवाखाना बंद होने से उनकी अर्थप्राप्ति बंद हो गई थी । वे जब प.पू. भक्तराज महाराजजी के पास (प.पू. बाबा के पास) जाते, तब वापसी की यात्रा के लिए प.पू. बाबा ही उनकी गाडी में पेट्रोल भरवाते थे । प्रसार हेतु पेट्रोल की गाडी आर्थिक दृष्टि से महंगी होने से प.पू. बाबा ने स्वयं की डीजल पर चलनेवाली गाडी उन्हें दी थी । ऐसी आर्थिक स्थिति में भी उन्होंने समष्टि तथा साधकों को त्याग की उच्च सीख दी ।
१ अ. स्वयं के आने-जाने का व्यय कर तथा बिना मानधन लिए विविध स्थानों पर अध्यात्म संबंधी नि:शुल्क प्रवचन लेना
‘अनेक स्थानों पर अनेक प्रवचनकार अथवा मार्गदर्शक आयोजकों से आने-जाने हेतु व्यय (खर्च) तथा प्रवचन करने का मानधन भी लेते हैं । इसके विपरीत प.पू. डॉक्टरजी अनेक जनपदों अथवा शहरों में प्रवचन हेतु स्वयं की गाडी से जाते तथा साधकों को नि:शुल्क मार्गदर्शन करते और प्रवचन भी नि:शुल्क ही लेते थे ।
१ आ. प्रवचन में हार-फूल इत्यादि पर अनावश्यक व्यय टालने को कहना
‘उस धन का उपयोग धर्मकार्य के लिए हो’, इस उद्देश्य से प.पू. डॉक्टरजी सदा ही कहते कि ‘प्रवचन के आरंभ में हार की अपेक्षा एक फूल अथवा पुष्पगुच्छ दें’ ।
१ इ. प्राप्त अर्पण भी साधकों को धर्मकार्य हेतु देना
व्यासपीठ पर अथवा अन्य स्थान पर उनका सत्कार करते समय उन्हें कभी अर्पण स्वरूप धन दिया जाता तब वे उसे भी उस जनपद में कार्य बढाने हेतु वहां के उत्तरदायी साधक को दे देते; इतना ही नहीं, अपितु कहते कि और चाहिए हो तो बताएं ।
२. किसी भी मान-सम्मान की अपेक्षा न रखनेवाले प्रसिद्धिपराङ्मुख प.पू. डॉक्टर !
२ अ. अन्य संतों के कार्यक्रम में बहुत ही विनम्र रहना : प.पू. डॉक्टरजी की अनेक संतों से निकटता के कारण उनके कार्यक्रमों में अन्य संतों के साथ उन्हें भी बुलाया जाता । तब वे सभी संतों के पीछे अंत में नम्रभाव से खडे रहते तथा व्यासपीठ पर भी उनका स्थान अनेक बार कोने में रहता । अनेक संतों के साथ उनके शिष्यगण भी बडे प्रमाण में रहते; परंतु प.पू. डॉक्टरजी के साथ मात्र एक अथवा दो साधक रहते थे ।
२ आ. प.पू. डॉक्टरजी कुछ लोगों का आध्यात्मिक दृष्टि से अधिकार न होते हुए भी उनका सत्कार करते और झुककर नमस्कार भी करते थे ।
२ इ. संतों के सामने भूमि पर बैठकर उनसे चर्चा करना : प.पू. डॉक्टरजी को घुटनों में पीडा होते हुए भी वे वर्तमान स्थिति के संदर्भ में संतों से चर्चा करते समय २ – ३ घंटे भूमि पर बैठकर बातें करते तथा उनका मार्गदर्शन भी लेते ।
२ ई. एक संत न आने पर उपनाम समान होने से आमंत्रण मिलने पर भी मान-अपमान का विचार किए बिना उसे स्वीकारना : एक बार एक कार्यक्रम में दूसरे एक संत को आमंत्रित किया था । किसी कारणवश वे नहीं आनेवाले थे । तब कार्यक्रम के आयोजकों ने प.पू. डॉक्टरजी से पूछा, ‘‘कार्यक्रम में एक संत आनेवाले थे; परंतु किसी कारणवश नहीं आ रहे हैं । आपका उपनाम भी आठवले है, तो आप आ सकते हैं क्या ?’’ अर्थात संतों के प्रति प्रेम के कारण ऐसा आमंत्रण भी प.पू. डॉक्टरजी ने स्वीकार किया तथा कार्यक्रम में गए; क्योंकि वे मान-सम्मान के परे गए थे ।
इस प्रसंग से भी प.पू. डॉक्टरजी ने साधकों को सिखाया । ‘आगे साधकों पर भी ऐसे प्रसंग आएंगे तब उन प्रसंगों का सामना कैसे करना है ?’ उन्होंने साधकों के सामने आदर्श रखा था । गुरुदेवजी की ऐसी तडप थी कि साधक मान-सम्मान में अटककर अपनी साधना की हानि न कर लें और समय रहते सतर्क हो जाए ।
३. कर्तापन ईश्वर को देकर निष्काम भावना से कार्य करना !
सनातन भारतीय संस्कृति संस्था की स्थापना प.पू. भक्तराज महाराजजी के कृपाशीर्वाद से हुई । अनेक संस्थाएं राजनीतिज्ञों के आर्थिक बल पर चलती हैं । प.पू. भक्तराजजी ने कहा था, ‘सनातन मैं चलाऊंगा’ । आज हम देखते हैं कि संस्था का कार्य अविरत चल रहा है और प्रतिदिन बढ रहा है, वह केवल ईश्वर, गुरु तथा देवस्वरूप संतों के आशीर्वाद से ही ! इस संस्था का पालन-पोषण करनेवाला स्वयं ईश्वर ही है । पिछले २४ वर्ष सनातन संस्था के किसी भी कार्यक्रम अथवा प्रवचन में रज-तम प्रधान व्यक्ति को व्यासपीठ पर स्थान नहीं होता, अपितु ईश्वर के सगुणरूप संतों को ही स्थान दिया जाता है । सनातन की ग्रंथसंपदा का प्रकाशन भी उन्हीं के हाथों किया जाता है । साधक साधना करते समय किसी भी प्रकार का कर्तापन न लेकर संपूर्ण श्रेय ईश्वर और श्रीगुरु को देकर कार्य को अधिष्ठान प्राप्त करवाएं, निष्काम भावना से कार्य करें तथा जन्म का कल्याण कर लें, प.पू. डॉक्टरजी इस उदाहरण से साधकों को ऐसी ही सीख देते हैं ।
४. किसी भी प्रकार के आडंबर के बिना ‘प्रत्येक बात सादगी से तथा साधना स्वरूप कैसे करनी है ?’ यह बतानेवाले प.पू. डॉक्टर !
४ अ. साधक सेवा का समय भोजन, आरती अथवा पाद्यपूजा करने में न दें, इस बात का ध्यान रखना
प.पू. डॉक्टरजी अनेक स्थानों पर साधकों का मार्गदर्शन करने जाते । वहां जाने से पूर्व वहां के साधकों के लिए कुछ सूचनाएं देते, उदा. भोजन सादा बनाएं, जैसे पापड, खिचडी आदि । आरती, पाद्यपूजा करना तथा अर्पण देना टालें इसके पीछे उनका उद्देश्य यही होता था कि इन बातों में साधकों का समय न जाए और साधक ऐसी बातों में न अटकें । प.पू. डॉक्टरजी भी उपर्युक्त नियमों का पालन अचूकता से करते थे । उसके कुछ उदाहरण दे रहे हैं ।
४ आ. निवासव्यवस्था पर पलंग के चारों ओर केले के खंबे लगे हुए देखकर वहां न रहकर लौट जाना
एक बार रत्नागिरी के गणपतिपुले में प.पू. डॉक्टरजी का जाहीर प्रवचन था । हम सभी साधक एक शासकीय विश्रामगृह में रहने गए । एक साधक के घर प.पू. डॉक्टरजी के रहने की व्यवस्था की थी । उस साधक ने प.पू. डॉक्टरजी जिस पलंग पर सोनेवाले थे, उस पलंग के चारों ओर सत्यनारायण पूजा में लगाते हैं, वैसे केले के खंबे तथा पत्ते लगाए थे । प.पू. डॉक्टरजी ने जब यह देखा तब वे तुरंत अपना सारा सामान लेकर हम सभी साधक जहां थे उस शासकीय विश्रामगृह में आ गए और दो दिन साधकों के साथ ही रहे । गणपतिपुले के किसी भी साधक के यहां न जाकर वह सीधे अगली सभा के लिए गए ।
उपर्युक्त प्रसंग से अपने बनाए हुए नियमों का समय पर कठोरता से पालन कैसे करवाना है, इसका पाठ ही प.पू. डॉक्टरजी ने साधकों को करवाया ।’
– श्री. दिनेश शिंदे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.