नृत्य करने का मूल उद्देश्य साध्य करने के लिए ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्यकला’ यह दृष्टिकोण सबके सामने प्रस्तुत करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

हमारी संस्कृति में नृत्यकला का प्रादुर्भाव मंदिरों में ही हुआ है । इसका विकास एक उपासना माध्यम के रूप में हुआ । इसके माध्यम से भी ईश्‍वरप्राप्ति हो, इसके लिए सनातन की साधिका श्रीमती सावित्री इचलकरंजीकर और डॉ. (कुमारी) आरती तिवारी ने नृत्य आरंभ किया है । वे, नृत्यशैलियों और नृत्य की विविध मुद्राआें से नवरस (शृंगार, वीर, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, बीभत्स, अद्भूत और शांति) की नहीं, अपितु आध्यात्मिक शक्ति, चैतन्य, आनंद और शांति की अनुभूति करने हेतु अभ्यास करती हैं ।

बाह्यतः मनोरंजक लगनेवाले इस नृत्य की ओर भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों को साधना के अंग के रूप में देखना सिखाया । उन्होंने, ‘नृत्य से ईश्‍वरप्राप्ति’ का ध्येय देकर, उससे होनेवाली अनुभूतियां और होनेवाले शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभों का अध्ययन करने के लिए हमें प्रोत्साहित किया । आज नृत्य, गायन जैसी सात्विक कलाएं समाज में विकृत हो गई हैं । इसलिए, इस विषय में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में सनातन के साधक जो अमूल्य शोध कर रहे हैं, वे पूरे विश्‍व के लिए मार्गदर्शक हैं ।

१. साधना में आने के पहले नृत्य के प्रति दृष्टिकोण

‘मैंने ८ वर्ष से १६ वर्ष की अवस्था तक भारतीय शास्त्रीय नृत्य, ‘कथक’ सीखा । बचपन में नृत्य सीखते समय मुझे लगता था कि मैं नृत्य के माध्यम से भगवान को प्राप्त कर सकती हूं । देवता का गुणगान करनेवाले विविध भजनों पर नृत्य और उसके माध्यम से देवता की आरती की जाती है । इसलिए, मुझे नृत्य करना बहुत अच्छा लगता था । नृत्य सीखते समय मुझे जीवन में गुरु का महत्त्व भी ध्यान में आ रहा था । मैं जिस संस्था में नृत्य सीखती थी, उसकी ओर से गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए प्रतिवर्ष गुरुपूर्णिमा पर नृत्यमहोत्सव का आयोजन होता था । उसमें मैं अनेक बार नृत्य कर चुकी थी । उस समय लगता था कि ‘हमारे जीवन में गुरु का असाधारण महत्त्व है ।’ इसके साथ-साथ नृत्यशिक्षक अथवा साथ में सीखनेवाले नृत्य के विद्यार्थियों का नृत्य के प्रति व्यावसायिक दृष्टिकोण भी ध्यान में आता था । तब, मन में विचार आता था कि ‘मुझे नृत्य से व्यवसाय नहीं करना है । मुझे जो चाहिए, वह यह नहीं है । मुझे कुछ अलग ही चाहिए ।’ परंतु, आसपास का वातावरण व्यावसायिक नृत्य को बढावा देनेवाला था । मुझे यह नहीं चाहिए था । इससे नृत्य के प्रति मेरी अभिरुचि धीरे-धीरे घटती गई ।

 

२. ऐसा हुआ नृत्य से ईश्‍वरप्राप्ति के प्रयास का श्रीगणेश !

वर्ष १९९७ में सनातन संस्था के संपर्क में आनेपर मैं गुरुकृपायोगानुसार साधना करने लगी । वर्ष २००३ में अध्यात्मप्रचार के निमित्त सनातन के देवद, पनवेल स्थित आश्रम में गई थी । उस समय परात्पर गुरु डॉ. आठवले वहीं थे । देवद आश्रम के निवासकाल में १७.१२.२००३ को मैं सनातन की साधिका डॉ. (कुमारी) आरती तिवारी से नृत्य के विषय में बात कर रही थी कि हम साधना के रूप में नृत्य कैसे कर सकते हैं । उस समय हमारी यह बात हमारे साथ रहनेवाली एक साधिका सुन रही थी । उसने मुझे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को बताने के लिए कहा कि हम दोनों भारतीय शास्त्रीय नृत्य करना जानती हैं ।

जब हमने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को बताया कि हमें नृत्य करना आता है, तब उन्होंने कहा, ‘‘हमें यही चाहिए था । नृत्य से ईश्‍वरप्राप्ति कैसे संभव है’, यह हम अब सीख पाएंगे । कल से इसका अभ्यास आरंभ करो । मुझे तो नृत्य का कुछ नहीं आता । इसलिए, तुम्हें ही इसके अभ्यास की पद्धतियां ढूंढनी हैं !’’

 

३. नृत्य के ग्रंथों में ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए
नृत्य’ यह संकल्पना न होना तथा संपर्क में
आनेवाले दूसरे नर्तकों के लिए यह विचार नया होना

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से बात पूरी होने पर हमने नृत्य से संबंधित विभिन्न प्रसिद्ध ग्रंथों का अभ्यास आरंभ किया । हम कुछ नर्तकों से भी मिले । उनसे अनेक प्रश्‍न कर, ‘ईश्‍वरप्राप्ति की दिशा में कैसे बढें, यह जानने का प्रयत्न किया; परंतु इस विषय में कोई कुछ नहीं बता पाया । उनकी दृष्टि से ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्य’, यह संकल्पना पूर्णतः नई थी ।

(आज ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्य’ यह संकल्पना भले ही नई लगती हो, परंतु इसका (नाट्य = नृत्य + गीत + वाद्य का) आरंभ त्रेतायुग के आरंभ में हुआ था । इसका उद्देश्य मोक्षप्राप्ति और मनोरंजन ही था । – संकलकर्ता)

 

४. स्तोत्र के सुर पर नृत्य बैठाने की अपेक्षा नृत्य
के विविध अंगों से ईश्‍वर की ओर बढ़ने हेतु प्रयास करवाना

स्तोत्र के सुर पर नृत्य बैठाने की अपेक्षा नृत्य के विविध अंगों से ईश्‍वर की ओर कैसे बढना चाहिए, इस विषय में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने प्रयास करने के लिए कहा ।

समाज में, ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्य’, इस विषय में कोई भी विशेष मार्गदर्शन नहीं कर सका । ग्रंथों में यह विषय मिला नहीं । उस काल में हम प्रतिदिन परात्पर गुरु से मिलकर उन्हें बताया करते थे कि आज क्या सीखा । एक बार डॉ. (कुमारी) आरती के मन में विचार आया कि ‘देवी के एक स्तोत्र पर नृत्य बैठाया जाए । इससे ईश्‍वरीय तत्व मिलेगा ।’यह विचार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को बताने पर उन्होंने इस विषय में व्यापक दृष्टिकोण दिया, ‘स्तोत्र पर नृत्य बैठाने की अपेक्षा, नृत्य के विविध अंगों से ईश्‍वर की ओर कैसे जाया जा सकता है, यह हमें जानने का प्रयास करना है ।’ (यह बताकर वे समाज को भी सिखाना चाहते थे ।)

 

५. नृत्य से संबंधित विविध प्रश्‍न
पुछकर, नृत्य साधना को उचित देना

नृत्य से संबंधित विविध प्रश्‍न कर, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने नृत्य साधना को उचित दिशा दी । उपलब्ध ग्रंथों से हमें ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्य’ विषय में विशेष जानकारी न मिलने की बात हमने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को बताई । तब, उन्होंने हमसे नृत्य के विविध अंगों के विषय में प्रश्‍न करना आरंभ किया; उदा. नृत्य की विविध मुद्राएं, हस्तक, तोडे, ताल, लय आदि का क्या अर्थ है ? इन प्रश्‍नों के हमारे उत्तर सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘हम मुद्राआें से आरंभ करेंगे ।’’ उन्होंने हमसे कहा कि तुम लोग पता करो कि नृत्य की विविध मुद्राआें से क्या लाभ होता है ? उनसे क्या अनुभूति होती है ? मन पर क्या प्रभाव पडता है ? उसके अनुसार हम दोनों ने मुद्राआें का अभ्यास और उनके प्रभावों का अध्ययन आरंभ किया ।

 

६. नृत्य का अभ्यास करते समय उससे संबंधित
विविध प्रश्‍नों के उत्तर भीतर से प्राप्त होना और
उसके लिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से प्रोत्साहन मिलना

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमें पहले, हाथ की उंगलियों से बननेवाली मुद्राआें का अध्ययन करने के लिए कहा । तब, हम अध्ययन करने लगे कि ‘हाथ का अंगूठा और अन्य उंलियों को मिलाकर बनी मुद्रा से क्या अनुभव होता है ।’ यह अध्ययन करते समय मन में विविध विषयों से संबंधित प्रश्‍न उत्पन्न होने लगे और उत्तर भी भीतर से मिलने लगे । उदा. ‘ताल’ किसे कहते हैं ? ताल कैसे उत्पन्न हुए ? इत्यादि ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमारा यह पत्रलेख पढकर, प्रत्युत्तर में पत्र और मिठाई भेजी । पत्र में उन्होंने हमारी साधना को प्रोत्साहन देते हुए लिखा था, ‘लेख अच्छा है ।’ मुद्राआें का यह अभ्यास श्रीकृष्ण ने हमसे लगभग ५ महीने करवाया था ।

शेषशायी श्रीविष्णुकी मुद्रा
श्री सरस्वतीदेवीकी मुद्रा

 

७. नृत्य सीखते समय ‘ईश्‍वरप्राप्ति के
लिए नृत्यकला’ यह दृष्टिकोण होना आवश्यक !

अ. नृत्य सीखते समय साधिका का पहले का दृष्टिकोण : ‘किसी कला में पारंगत हो जाऊं’, इस उद्देश्य से और अभिरुचि के कारण भी मैंने नृत्य सीखा । नृत्य सीखते समय मैं उसकी छोटी-छोटी बातें सीखती थी । परंतु वह सब मानसिक ही था, उसे आध्यात्मिक आधार नहीं था ।

आ. साधिका के साथ नृत्य सीखनेवाली दूसरी विद्यार्थिनियों का दृष्टिकोण : मैं जिस नृत्यविद्यालय में नृत्य सीख रही थी, उसकी अधिकतर विद्यार्थिनी अभिरुचि के ही कारण नृत्य सीख रही थीं । उनमें भी, नृत्य को अपना भविष्य मानकर सीखने की इच्छुक सहयोगी विद्यार्थिनियों की संख्या हाथ की उंगलियों पर गिनी जा सकती थी । उनमें भी केवल व्यवसाय के लिए नृत्यकला सीखनेवाली लडकियों की संख्या नगण्य थी । ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्यकला’ यह दृष्टिकोण इनमें से किसी का नहीं था । प्रायः सभी नृत्यविद्यालयों की यही स्थिति है ।

इ. नृत्य के मूल उद्देश्य की ओर बढने के लिए ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्यकला’ यह दृष्टिकोण परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमें दिया : जब नृत्यकला की उत्पत्ति हुई, तब इसकी प्रस्तुति ‘ईश्‍वर की आराधना’ के रूप में की जाती थी । परंतु, आगे चलकर इस प्रकार की नृत्यप्रस्तुति का चलन घटता गया और उसके स्थान पर इसकी प्रस्तुति कला के रूप में तथा अब केवल मनोरंजन एवं पैसा कमाने के लिए होने लगी है । आजकल के अधिकतर लोग लोकेषणा के वशीभूत होकर, मूल तत्त्व को भूल गए हैं । इसी मूल तत्त्व के मूल रूप की दिशा में जाने के लिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने ‘नृत्य के माध्यम से ईश्‍वरप्राप्ति’ का नया दृष्टिकोण सबको दिया ।

 

८. नृत्यकला के विषय में परात्पर
गुरु डॉ. आठवलेजी का अमूल्य मार्गदर्शन

अ. नृत्य से एकरूप होनेपर ही उसकी अनुभूति संभव : साधक जब नृत्य कर रहा हो, तब उससे एकरूप होना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । लास्य नृत्य करते समय, ‘मैं सचमुच ही पार्वती हूं’, यह भाव होना चाहिए । अन्य समय मूर्ति को मूर्ति समझकर ही उसकी ओर देखना होता है, ईश्‍वर समझकर नहीं । परंतु, नृत्य करते समय यह सोचना चाहिए कि ‘मेरे सामने सचमुच ही श्रीराम खडे हैं’ और यह समझकर उसे सजाना, उसकी पूजा करना आदि कार्य करना चाहिए । ‘सचमुच श्रीराम सामने खडे हैं’, यह भाव उत्पन्न होनेपर ही हम दूसरों को वैसी अनुभूति करा सकते हैं ।

आ. स्वभावदोष और अहंकार जाने पर ही ईश्‍वरीय नृत्य संभव : स्वभावदोष और अहं विरहित तथा ईश्‍वर के प्रति उत्कट भाव से युक्त नृत्य ही हमें ईश्‍वर की ओर ले जाता है । इसलिए, स्वभावदोष और अहं घटाना तथा ईश्‍वर के प्रति भक्तिभाव बढाना आवश्यक है । नर्तक में आध्यात्मिक क्षमता होने पर ही वह अपने नृत्य से दर्शकों को शक्ति, भाव, चैतन्य, आनंद और शांति की (आध्यात्मिक) अनुभूति करा सकता है । यही तो है, ईश्‍वरीय नृत्य !

इ. नृत्य और संगीत के माध्यम से साधना शांतिकाल में की जाती है । इसलिए, साधकों की उन्नति हेतु आवश्यक साधना आपातकाल आरंभ होने के पहले ही कर लेनी चाहिए ।

 

९. नृत्यकला के विषय में शोध करते समय उसका
व्यापक विचार करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

नृत्यकला के विषय में शोध करते समय, ‘नृत्य केवल मनोरंजन के लिए नहीं है । उससे भी साधना होने पर, ईश्‍वर तक पहुंचना जा सकता है । इसी प्रकार, नृत्य का अनिष्ट शक्तियों पर क्या प्रभाव पडता है ? नृत्य का उपयोग रोगनिवारण के लिए कैसे किया जा सकता है ? इस बात का भी अध्ययन किया जा सकेगा’, ऐसा व्यापक विचार भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने प्रस्तुत किया । ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्यकला’ यह उत्क्रांतिकारी विचार केवल परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने इस कलियुग में सबके सामने रखा । इनका शोधकारी स्वभाव इस क्षेत्र में भी दिखाई देता है ।

 

१०. नृत्य-प्रकार प्रस्तुत करते समय साधिका में हुए परिवर्तन

अ. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने नृत्य का एक अभिनव प्रयोग प्रस्तुत करने के लिए कहा । वह प्रयोग करते समय मन की उत्कंठा प्रतिदिन बढती जाती थी ।
आ. ‘मुझे जो नृत्य पहले सीखने के लिए नहीं मिला, वह अब सीखने के लिए मिल रहा है’, यह सोचकर मन हर्षित होता था ।
इ. मन में अपनेआप को बदलने की प्रबल इच्छा जगी ।
ई. उस असात्विक काल में भी नृत्य को ‘आराधना’ के रूप में देख पाना संभव हुआ ।
उ. प्रत्यक्ष शरीर से नृत्य न होने पर भी, ‘मैं देवता को नृत्य के माध्यम से पुकार रही हूं’, इस भावसहित नामजप करते समय मन को आनंद मिलने लगा । तब भाव का महत्त्व मन में बहुत गहराई तक गया ।
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से ही यह सब सीख सकी, इसके लिए उनके चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता-पुष्प अर्पित करती हूं ।’

– श्रीमती सावित्री इचलकरंजीकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा ।

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