कलाक्षेत्र में नया योगदान, देवताआें के तत्त्व
आकृष्ट करनेवाली मेहंदी की सात्विक कलाकृतियां !
सनातन की साधिका कुमारी कुशावर्ता और संध्या माली ने कला विषय की शिक्षा प्राप्त की है । साधना में आने के पश्चात उन्हें परात्पर गुरु डॉ. आठवले जी की कृपा से ‘ईश्वरप्राप्ति के लिए कला’ इस ध्येय का ज्ञान हुआ । उन्हें सात्त्विक रंगोलियां अवगत होने की प्रक्रिया तथा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से इस विषय में मिला मार्गदर्शन के विषय में जानकारी आगे दे रहे हैं ।
नित्य धार्मिक रूढि के रूप में रंगोलियां बनाने के विषय में साधकों ने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में यह अभिनव शोध किया है । रंगोली के साथ-साथ मेहंदी की कलाकृतियों से भी देवता के तत्व आकृष्ट और प्रक्षेपित हों, ऐसी विविध कलाकृतियां साधकों ने परम पूज्य डॉक्टरजी के मार्गदर्शन में बनाई हैं । इन सब कलाकृतियों को सनातन ने, लघुग्रंथ ‘सात्विक रंगोलियां’, बडा ग्रंथ सात्विक रंगोलियां (भाग १)’, ‘सात्विक मेहंदी’ और ‘मेहंदी की सात्विक कलाकृतियों के प्रकार’ के माध्यम से, समाज को उपलब्ध करा दिया है ।
१. सात्विक रंगोलियां अवगत होने की प्रक्रिया
अ. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संकल्प से
मेहंदी के सात्त्विक बेलबूटे और रंगोलियां अवगत होना
वर्ष २००७ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कहा था, ‘हम लोग सनातन का सात्विक रंगोलियों का ग्रंथ छापेंगे ।’ कुछ काल पश्चात उन्होंने कहा, ‘हम मेहंदी की सात्विक कलाकृतियों का ग्रंथ छापेंगे ।’ इसके पश्चात कहा, ‘अब सात्विक रंगोलियों का बडा ग्रंथ छापेंगे ।’ उस समय मुझे दिनभर लगातार मेहंदी के बेलबूटे और विविध प्रकार की रंगोलियां अवगत होती थीं ।
आ. विविध प्रकार की रंगोलियां अवगत होने के
विषय में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से पूछने पर उसके
मूल में होनेवाली प्रक्रिया अवगत होकर, कृतज्ञता लगना
एक बार परम पूज्य डॉक्टरजी ने मुझसे पूछा, ‘बिन्दुआें से रंगोली बनाने के ३ प्रकार हैं । तुम्हें कैसे पता चलता है कि कितने बिन्दुआें की और किस रंग की रंगोली बनानी है ?’ तब मैंने कहा, ‘‘यह ज्ञान भगवान ही सुझाते हैं ।’ इस प्रक्रिया में मेरे मन को एक अलग प्रकार की संवेदना होती है । कभी-कभी रांगोली के विविध आकार दिखाई देने लगते हैं । वह विचार मन में आते समय भी मैं रांगोली के बिन्दुआें के तीन प्रकारों में से कोई भी एक प्रकार का कागद लेकर पूरी रंगोली बनाती हूं । इसके पश्चात ध्यान में आता है कि ‘बिन्दुआें से रंगोली के सब आकार बन गए हैं ।’’ मुझे लगता है कि ‘भगवान से रंगोली संबंधी ज्ञान अवगत होने की प्रक्रिया जारी रहते समय मुझसे बुद्धि का उपयोग नहीं होता और रंगोली बनते जाती है ।’ उनके प्रश्न करने पर मुझे लगा कि ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी सर्वज्ञ हैं और वे ही सब करवा लेते हैं ।’ तब, उनके प्रति मन से कृतज्ञता व्यक्त हुई ।’
२. साधना में आने के पहले लोकैषणा होना;
परंतु साधनाक्षेत्र में आनेपर जब ध्यान में आया कि
कला ‘ईश्वरप्राप्ति का साधन है’ तब, लोकैषणा न्यून होना
पहले जब हमलोग विद्यालय जाते थे, तब इच्छा होती थी कि रंगोली की किसी प्रतियोगिता में पारितोषिक मिले । कला विषय की शिक्षा प्राप्त करते समय और उसके पश्चात किसी चित्रकला प्रदर्शनी में और सामाजिक उपक्रम की भित्तिपत्र कल्पना (poster project) में मेरी कलाकृति का चयन हो, मुझे पारितोषिक मिले, प्रशंसा हो’, जैसा कि प्रत्येक कलाकार को लगता है । कोई सेवा करते समय मेरे मन में विचार रहता है कि ‘मेरी सेवा दूसरों से अच्छी है ।’ सेवा से फल की अपेक्षा रहती थी ।
सनातन में आने पर समझ में आया कि कला का उद्देश्य, ‘कला के लिए कला, लोकैषणा अथवा धनार्जन के लिए कला’ यह नहीं है । किसी जीव को कोई कला ‘ईश्वर ही ईश्वरप्राप्ति के (आनंदप्राप्ति के) लिए साधन रूप में देते हैं ।’ इसी प्रकार, ‘जितने व्यक्ति उतने स्वभाव, उतने साधनामार्ग’ यह आध्यात्मिक सिद्धांत भी सनातन में आने पर समझ में आया ।
साधना करवाते समय परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी ने हमारे स्वभाव के अनुरूप हमें देवताआें के लिए रंगोली बनाने की सेवा दी । इसके माध्यम से उन्होंने हमारी कला को ईश्वर से जोडा । रंगोली ग्रंथ की सेवा करते-करते हमारी लोकैषणा घट गई । उस काल में वे हमसे स्वभावदोष और अहं निर्मूलन की प्रक्रिया भी सहजता से करवा रहे थे । उन्होंने हमें, ‘ईश्वरप्राप्ति के लिए कला’ इस ध्येय की ओर कब और कैसे मोडा, यह पता ही नहीं चला । क्योंकि, हमें निरंतर आनंद मिल रहा था ।
३. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अमूल्य मार्गदर्शन !
देवताआें के तत्व-संबंधी कुछ रंगोंलियों में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने एक बार परिवर्तन बताया । रंगोली में देवताआें के तत्व लाने और बढाने के विषय में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी रंगोली-संबंधी अगले चरण की बातें सिखा रहे हैं । इनमें कुछ रंगोलियां सगुण तथा कुछ निर्गुण प्रकार की हैं । उन्होंने वर्ष २००७ में कहा, ‘हम लोग सात्विक रंगोलियों का ग्रंथ छापेंगे । इससे लोगों को ‘सात्विक रंगोलियां’ शब्द की जानकारी होगी । सगुण की तुलना में निर्गुण में अधिक आनंद होता है । इसलिए वे, सभी आकार निर्गुण बनाने के लिए मार्गदर्शन कर रहे थे । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कहा, ‘इस विषय का शोधकार्य आगे १५ वर्ष से अधिक काल तक जारी रहेगा । इसमें, प्रत्येक देवता के सगुण और निर्गुण रूपों के अनुरूप तथा संप्रदायों के अनुसार और संतों की बनाई हुई रंगोलियां होंगी ।’
४. रंगोली के आकार के विषय में परात्पर
गुरु डॉ. आठवलेजी से सीखने के लिए मिले कुछ सूत्र
१. गतिदर्शक स्वस्तिक की तुलना में स्थिर
स्वस्तिक की ओर देखने से अधिक आनंद लगना
‘अ’ में बने स्वस्तिक के मुडे हुए आकार के कारण वह ‘गति’ के विषय में सूचित कर रहा है । उसे देखने से मन अशांत होता है । ‘आ’ में बना स्वस्तिक स्थिर है । उस ओर देखने से आनंद होता है । वास्तविक, गतिदर्शक आकार (उदा. चक्र) बनाते समय उन्हें उनके मूल गतिदर्शक रूप में ही निकालना चाहिए तथा स्थिरता (शांति) के प्रतीक स्वस्तिक और ॐ (निर्गुण) आकार को स्थिर रूप में बनाना चाहिए ।
२. मध्य पर बने एक पंखुडीवाले फूल की ओर देखने से उत्साह लगना
चित्र ‘अ’ में फूल के मध्य पर बनी खडी रेखा होने से, उसके आसपास बना दो पंखुडियोंवाला फूल निष्क्रिय लगता है । इसलिए, वह अच्छा नहीं लगता । चित्र ‘आ’ में फूल के मध्य पर खडी रेखा होने से वहां एक ही पंखुडीवाला फूल कार्यरत लगा । उस ओर देखने से उत्साह लगता है ।
३. नुकीली पंखुडियोंवाले कमल की
अपेक्षा गोल पंखुडियोंवाला कमल अधिक सात्त्विक !
चित्र ‘अ’में कमल की पंखुडियों का आकार नुकीला है । ऐसी पंखुडियां प्राकृतिक नहीं लगतीं । चित्र ‘आ’में कमल की पंखुडियों के सिर गोल हैं तथा उन्हें त्रिमितीय रूप में दिखाया गया है । इसलिए, वह अधिक प्राकृतिक लगता है ।
४. आधे फूल के चित्र की तुलना में पूरे
फूल के चित्र से अच्छे स्पंदन अधिक निकलना
‘चित्र ‘अ’ में फूल कटा हुआ दिखाई देता है । इसलिए, उससे अच्छे स्पंदन नहीं आ रहे हैं । चित्र ‘आ’ में फूल पूरा होेने से वह वास्तविक लग रहा है; इसलिए सुन्दर दिखाई दे रहा है और उससे अच्छे स्पंदन निकल रहे हैं । इस फूल की ओर देखने पर, किसी-किसी को भाव की और उससे संबंधित देवता तत्त्व की अनुभूति हो सकती है ।
– कुमारी संध्या माली और कुमारी कुशावर्ता माली