परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का आदर्श जीवन

‘प.पू. डॉ. आठवलेजी प्रसिद्धिपराङ्मुख हैं । इसलिए पिछले वर्ष तक उन्होंने किसी भी अंग से उनकी श्रेष्ठता सबके सामने प्रकट करने की अनुमति साधकों को नहीं दी । साधकों को प.पू. डॉक्टरजी के संदर्भ में सैकडों अनुभूतियां होने पर भी प.पू. डॉक्टरजी उसका सर्व कर्तापन भगवान श्रीकृष्ण को देकर उससे अलिप्त रहते थे । ‘ईश्‍वर ही साधकों को अनुभूति देते हैं’, ऐसा कुछ साधकों को बताते थे । परंतु पिछले वर्ष महर्षि की आज्ञावश उन्होंने अपना जन्मदिन मनाने की अनुमति साधकों को दी और महर्षि द्वारा प.पू. डॉक्टरजी की वर्णित श्रेष्ठता साधकों ने ‘सनातन प्रभात’ के माध्यम से पूरे विश्‍व में पहुंचाई । इसमें कहीं भी प.पू. डॉक्टरजी का स्वयं का प्रत्यक्ष सहभाग नहीं था । इसका उद्देश्य महर्षि की आज्ञा का पालन करना था । ‘प.पू. डॉक्टरजी की अलौकिकता का शब्दों में वर्णन करना असंभव है’, ऐसा महर्षि बताते हैं और साधकों ने प्रत्यक्ष में यह अनुभव भी किया है । मैं पिछले १६ वर्ष से प.पू. डॉक्टरजी के सान्निध्य में साधना कर रहा हूं । इस कालखंड में उनके संदर्भ में अनेक अनुभूतियां मुझे भी हुई हैं ।

 

१. परम पूज्य डॉक्टरजी का बुद्धिगम्य व्यक्तिगत जीवन

अ. आश्रम में सैकडों साधक होते हुए भी और प.पू. (परम पूज्य) डॉक्टरजी के प्रत्येक शब्द का पालन करने के लिए वे सिद्ध होते हुए भी प.पू. डॉक्टरजी कभी किसी साधक को अपने काम बताते नहीं है । वे अपने सर्व काम स्वयं ही करते हैं । व्याधि से अत्यंत पीडित अवस्था में शरीर का संतुलन बिगडने पर भी वे स्वयं ही सब करते हैं ।

आ. साधकों को राजयोगियों समान सुख-सुविधा प्रदान करनेवाले प.पू. डॉक्टरजी अपना जीवन एक संन्यासी की भांति बिता रहे हैं । उनके कक्ष में एक साधारण आसंदी (कुर्सी), एक छोटा पटल (टेबल, जिसका उपयोग वे भोजन के लिए भी करते हैं) और सोने के लिए एक छोटा पलंग है । उसपर भी एक साधारण-सा गद्दा है ।

इ. प.पू. डॉक्टरजी का भोजन भी अत्यल्प है । उन्हें किसी भी विशेष पदार्थ की आवश्यकता नहीं लगती । उनका भोजन अत्यंत साधारणसा एवं सौम्य होता है ।

ई. प.पू. डॉक्टरजी के दैनिक वस्त्र भी अल्प प्रकार के और अल्प संख्या में होते हैं । फटने पर वे स्वयं ही उन्हें सिलकर उपयोग में लाते हैं । गद्दे की चादर तथा तकिए के गिलाफ के बारे में भी ऐसा ही है ।

उ. दाढी बनाने के लिए वे स्नान के साबुन के बचे टुकडे उपयोग में लाते हैं ।

ऊ. कक्ष की फर्श पोछने का कपडा भी उसे सिलकर ही वे उपयोग में लाते हैं । पुराना फट गया, इसलिए तुरंत दूसरा लिया, ऐसा कभी नहीं होता । ऐसी मितव्ययिता वे सदैव दिखाते हैं । इसके अनेक उदाहरण हैं ।

ए. सूक्ष्म-युद्ध के कारण उन्हें गर्मी अधिक लगती है, कष्ट भी होते हैं, तब भी वे स्वयं वातानुकूलन यंत्र (एयरकंडिशनर) का उपयोग नहीं करते ।

ऐ. केवल सभी साधकों को ही निरंतर सत्सेवा में रहने के लिए बताते नहीं, किंतु स्वयं भी निरंतर ग्रंथलेखन की सेवा करते हैं । पीडाग्रस्त हो अथवा थकान हो, इसमें कभी खंड नहींं होता ।

ओ. इतनी विशाल संस्था निर्माण कर और उसके कार्य का इतना विस्तार होने पर भी वे आश्रम में एक साधारण शिष्य की भांति जीवन बिताते हैं और कहते भी हैं, ‘मैं गुरु के आश्रम में शिष्य बनकर रहता हूं ।’

औ. संस्था और साधकों पर अनेक संकट आएं, तब भी प.पू. डॉक्टरजी किंचित भी विचलित नहीं होते उनकी आनंदावस्था में कोई अंतर नहीं आता । वे स्वयं भी स्थिर एवं आनंदित रहते हैं और साधक भी उनके पदचिन्हों पर चल रहे हैं ।

 

२. प.पू. डॉक्टरजी का बुद्धिगम्य समष्टि जीवन (अन्यों से आचरण)

अ. जो उनसे एक बार मिले, वह सदा के लिए उनका ही हो जाता है ।

आ. प.पू. डॉक्टरजी छोटे से छोटे और वयोवृद्ध व्यक्तियों से भी उतनी ही समरसता से संवाद साधते हैं ।

इ. कोई कितना भी निर्धन हो, धनिक हो, सुदृढ हो या रोगग्रस्त अथवा किसी भी जाति का हो, सभी से खुले मन से और अत्यंत प्रेम से बातें करते हैं । त्वचारोग से जर्जर एक विदेशी साधक अपनी व्याधि के कारण किसी को घिन न आए, इसलिए पूरा शरीर ढंककर रखता था । प.पू. डॉक्टरजी के सामने जाने का उसे संकोच लगता था । प.पू. डॉक्टरजी ने उसकी पीठ पर हाथ फेरकर पैर के मोजे निकालने के लिए कहकर उसकी व्याधि का स्वरूप देखा । उनके इस प्रेम के कारण ही उस साधक में जीने की एक नई आशा जगी । कितने भी निराशाग्रस्त व्यक्ति की प.पू. डॉक्टरजी से ५ मिनट के लिए भी भेंट हो जाए, वह हंसते हुए ही बाहर आता है ।

ई. प्रतिष्ठित सम्मोहनोपचार विशेषज्ञ होते हुए भी यदि कोई अपने मन के संदर्भ में कोई साधारण-सी बात भी बताता हो, तो वे कहते हैं कि ‘मुझे सीखने को मिला’ । उच्च स्तर के संत होकर भी किसी के द्वारा बताए अध्यात्म के प्राथमिक बिंदु को भी वे मनःपूर्वक सुन लेते हैं । उनके आचरण से कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वे सर्वज्ञानी हैं ।

उ. स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उन्हें झुकना कठिन होते हुए भी वे सभी संतों को जितना हो सके, झुककर नमस्कार करते हैं ।

ऊ. प.पू. डॉक्टरजी से पहली ही भेंट में सैकडों हिन्दुत्वनिष्ठ, हिन्दू संगठनों के नेता, विविध संप्रदायों के प्रमुख आदि सभी उनकी श्रेष्ठता अनुभव करते हैं और उनके मार्गदर्शनुसार आगे बढते हैं ।

 

३. प.पू. डॉक्टरजी का बुद्धिगम्य कार्य

अ. प.पू. डॉक्टरजी द्वारा सनातन संस्था की स्थापना की जाने पर अल्पावधि में ही सहस्रों साधक संस्था से जुड गए । ये साधक अब प.पू. डॉक्टरजी के मार्गदर्शनानुसार साधना कर आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं । इन साधकों में से मई २०१६ तक ६५ साधक संत बन गए हैं एवं ८४४ साधक संतत्व बनने की दिशा में बढ रहे हैं !

आ. हिन्दू जनजागृति समिति की स्थापना होने पर पूरे भारत के हिन्दुत्वनिष्ठ समिति से जुड गए । समिति द्वारा चलाए जा रहे अधिवेशन, राष्ट्रीय हिन्दू आंदोलन जैसे उपक्रमों के कारण समिति ने अल्पावधि में ही हिन्दुआें के मन में स्थान प्राप्त किया है । इनमें से अनेक हिन्दुत्वनिष्ठों ने भी प.पू. डॉक्टरजी के मार्गदर्शनानुसार साधना आरंभ की है ।

इ. प.पू. डॉक्टरजी द्वारा संकलित ग्रंथों की संख्या प्रतिदिन बढती ही जा रही है । इनके माध्यम से पूरे विश्‍व में अध्यात्मप्रसार हो रहा है ।

ई. विदेश स्थित ‘स्पिरिच्युअल सायन्स रिसर्च फाउंडेशन’ नामक संस्था अध्यात्मसंबंधी शंकाआें व मार्गदर्शन हेतु सनातन के ग्रंथों का ही संदर्भ लेती है । इस संस्था के साधक भी अध्यात्म में विहंगम प्रगति कर रहे हैं ।

उ. वे अध्यात्म के प्रत्येक सूत्र पर सूक्ष्म शोध करते हैं । शोधकार्य के अंत में बुद्धि से निष्कर्ष निकालकर वे समाज को बौद्धिक स्तर पर समझाते हैं । ‘अध्यात्मशास्त्र’ बुद्धि से समझानेवाले उनके जैसे संत मिलना असंभव है !

ऊ. कई बुद्धिवादी, आधुनिकतावादी, तथाकथित समाजसेवक आदि सभी ‘स्त्री-मुक्ति’, ‘जातिनिर्मूलन’ आदि की केवल बातें करते हैं; परंतु व्यक्तिगत जीवन में वे प्रत्यक्ष में वैसा आचरण नहीं करते । इसकी तुलना में, प.पू. डॉक्टरजी ने ये सूत्र अपने व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, किंतु समष्टि जीवन में भी आचरण में लाकर दिखाए हैं । आज सनातन का कार्य जहां भी हो रहा है, वहां अधिकतर स्त्री साधिकाएं ही साधकों को साधनाविषयक मार्गदर्शन करती हैं । ब्राह्मण अथवा अन्य उच्च जाति के अतिरिक्त अन्य जाति के साधक-साधिकाएं दायित्व की सेवाएं देखते हैं । इसकी सूची भी सनातन ने समय-समय पर प्रकाशित की है ।

प.पू. डॉक्टरजी व उनके कार्य से संबंधित ये कुछ प्रातिनिधिक व्यष्टि-समष्टि उदाहरण हैं । इसीसे उनकी श्रेष्ठता बुद्धि से भी समझ पाना संभव है; इसीलिए लेख के शीर्षक में ‘बुद्धिगम्य श्रेष्ठता’ ऐसा उल्लेख किया है । प.पू. डॉक्टरजी की बुद्धिअगम्य विशेषताआें का वर्णन करते समय कबीरजी के इस दोहे का स्मरण हुआ – सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज । सात समुंद्र की मसि करू… !

प.पू. डॉक्टरजी के किए इस गुणसंकीर्तन से हम साधकों का भक्तिभाव बढने दीजिए, साथ ही उनकी भांति अग्रसर होने की बुद्धि और शक्ति वे ही हमें प्रदान करें, यही गुरुदेवजीके चरणों में प्रार्थना है !’

– अधिवक्ता योगेश जलतारे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. ॐ

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