कला के माध्यम से साधकों को ईश्‍वर की ओर ले जानेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की अनुभव की आनंददायी सिख !

‘कला की शिक्षा लेते समय मुझे जो सिखने को नहीं मिली, ऐसी सूक्ष्मताएं (बारीकीयां) परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मुझे साधना में आने पर सिखायी । ‘कला से संबंधित सेवा साधना ही है’, यह भी उन्होंने हमारे मन पर प्रतिबिंबित किया । ‘अपनी कला ईश्‍वर के लिए अर्पित कर रहे हैं’, ऐसा अहंकार न रखते हुए ‘मुझे ईश्‍वर के निकट जाना है और यह सेवा ईश्‍वर के पास ले जानेवाला साधन है’, यह सिखने को मिला । ‘कला के माध्यम से साधना कैसी करनी है ?’, यह परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मुझे सिखाया । इस कालखंड में मुझे सिखने मिले बिंदू और हुई अनुभूतियां यहां प्रस्तुत की हैं ।

नासिक की सार्वजनिक सभा में साधिकाआें द्वारा निर्मित श्रीराम का चित्र दिखाते हुए परात्पर गुरु डॉ. आठवले (२.१२.१९९९)

१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने प्रथम भेंट में
ही बताना कि, ‘तुम्हारी प्रगती कला के माध्यम से है’

पहली बार आश्रम में आने पर मैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से मिली । तब मुझे पता नहीं था कि, ‘क्या मैं आश्रम में रहकर पूर्णकालीन साधना कर सकूंगी ?’ हमारी पहली भेंट में ही परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने बताया, ‘‘तुम्हारी प्रगती कला के माध्यम से है’’ । उस समय उनके इस कहने का अर्थ मैं समझ नहीं पाई थी । अब ध्यान में आता है कि, ‘साक्षात् श्रीविष्णु ने ही उनके पास आने का मेरा मार्ग पहले से ही निश्‍चित किया था और इसका मुझे भान भी नहीं था’ ।

 

२. सूक्ष्म चित्रों की सेवा के माध्यम से 
साधकों को सिद्ध करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवले !

अ. ‘मैं सूक्ष्म चित्रों की सेवा सीख रही थी । चित्रकारों ने बनाए सूक्ष्म चित्र ग्रंथ में छापने के लिए संगणक पर सिद्ध करने की यह सेवा थी । यह सेवा जांचते समय परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी मुझे ऐसे प्रश्‍न पूछते थे कि मानो वे सूक्ष्म चित्र के बारे में कुछ भी नहीं जानते । प्रत्यक्ष में वे सबकुछ जानते थे; परंतु ऐसा पूछकर वे मुझे यह सिखाना चाहते थे कि, ‘सेवा पूर्णरूप से समझ लेनी चाहिए’ । मैं सूक्ष्म चित्रकार साधकों से बात कर यह समझ लेती थी कि, ‘उन्हें निश्‍चित क्या दिखाई दिया है ?’, जिससे कि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को इस बारे में मुझे कोई प्रश्‍न पूछने नहीं पडेे; परंतु वे सदैव मुझे मेरी समझ में आए विषय से संबंधित प्रश्‍न न पूछकर कुछ अन्य ही प्रश्‍न पूछते थे । ऐसा करते-करते उन्होंने चरण-दर-चरण मुझे यह सेवा सिखाई । कुछ समय पश्‍चात उन्होंने मुझे बताया, ‘‘अब मैं सूक्ष्म चित्र नहीं जाचूंगा । आप ही उसे अंतिम कर सकती हो’’ । ‘सूक्ष्म विषय कठिन होते हुए भी समाज के किसी भी पाठक को चित्र देखते समय बिना किसी संदेह समझना संभव हो, इसलिए कैसे प्रस्तुत करना है ?’, यह उन्होंने ही सिखाया ।

आ. सेवा करते समय अध्ययन और समय में तालमेल रखना सिखाना : एका सूक्ष्म चित्र के समय मैं और मेरे साथ सेवा करनेवाली एक साधिका ने भाषांतर के समन्वय को समझ लेने में २ दिन लगाए । ‘चित्र कहां तक आया है ?’, यह पूछने पर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को इस बात का पता हुआ । तदुपरांत उन्होंने हमसे उस चित्र के मूल कागद लिए और उस पर लिखा, ‘अमुक दिन यह चित्र दिया था । ३ दिनों में यह सेवा पूर्ण नहीं की’ । उस समय हमने चित्र बनाने में अधिक समय लगाया और परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को अपेक्षित नहीं किया; इसलिए हम बहुत रोए । तदुपरांत कुछ ही समय में भगवान श्रीविष्णु ने (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने) हमें बुलाकर उनके दयालु और प्रेमभरे तारक रूप का दर्शन देकर ‘चित्र कैसे बनाना चाहिए था ?’, यह भी बताया । उन्होंने हमें सेवा का नियोजन करते समय अध्ययन और समय में तालमेल रखने को सिखाया ।

इ. प्रयोग करवाकर उस माध्यम से सिखाना : परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने चित्र की सूक्ष्मताएं प्रयोग करवाकर हमें सिखाई । यदि हम कभी उचित उत्तर नहीं दे पाए, तो वे विविध पद्धतियों से प्रयोग करने को बताते थे । यदि दो चित्रों की ओर देखकर हम तुलना नहीं कर पाए, तो वे आगे का प्रयोग करने को बताते थे ।

१. संगणक के पटल पर दोनों चित्र एक-दूसरे के पास रखकर मन एकाग्र कर प्रयोग करना
२. हथेलियां चित्रों पर रखकर प्रतीत होनेवाली संवेदनाआें के माध्यम से उत्तर खोजना
३. प्रथम एक चित्र की ओर देखकर नामजप करना और तदुपरांत दूसरे चित्र की ओर देखकर नामजप करना, ‘नामजप करते समय मन को क्या प्रतीत होता है ?’, इससे उत्तर खोजना
४. चित्र उपर से नीचे की ओर देखते समय ‘दृष्टि सहजता से घूमती है अथवा रूकती है ?’, इससे ‘कौनसे चित्र में अच्छे स्पंदन हैं ?’, यह खोजना
५. उन्होंने हमें ‘मन को प्रतीत होनेवाले और बुद्धि से विचार कर मिलनेवाले उत्तर में कैसा भेद होता है ?’, यह सिखाया ।

ई. दूसरों का विचार करने के लिए सिखाना : कलाकृती करने पर अपनी सेवा हुई, ऐसा नहीं है । ‘जानकारी सरल भाषा में है अथवा नहीं ?, चित्र और जानकारी की रचना सुंदर, समान और पढते समय अडचन नहीं आएगी, ऐसी है न ?, उसका आकार चष्मेवाले पाठकों अथवा वयस्कों को तुरंत पढना संभव होगा, ऐसा है न ?’, इन सभी का अध्ययन करने को परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमें सिखाया । इससे हमें समष्टि का विचार करने की सीख मिली ।

उ. आश्रम में रहकर सेवा करनेवाले साधक और समाज में कलाक्षेत्र में काम करनेवाले साधकों को एक-दूसरे के अनुभव का लाभ करवाकर लेने को बताना : आश्रम में न रहनेवाले कुछ साधक कुछ दिनों के लिए आश्रम में आकर सेवा करते थे । ये साधक अनेक वर्ष समाज में कला के क्षेत्र में काम कर रहे थे । उन्होंने उनकी कलाकृतियां दिखाई, तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी उन साधकों के अनुभव का आदर कर उन साधकों के बताएनुसार हमें कलाकृती में परिवर्तन करने को बताया । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी उन साधकों को ‘चित्र सात्त्विकता की दृष्टि से कैसा होना चाहिए ?’, यह बात कला की सेवा करनेवाले साधकों को पूछने को बताते थे । इस प्रकार वे दोनों की भी सीखने की वृत्ति जागृत रखते थे और एक-दूसरे के अनुभव का आदर करने को सिखाते थे ।

ऊ. साधक में शरणागत भाव आने तक चित्र में परिवर्तन बताते रहना : साधक-कलाकार में अहं बढने की आशंका अधिक रहती है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी कलाकारों में ‘ईश्‍वर के प्रति भाव कैसा है ?’, यह जानकर उनकी कलाकृती में परिवर्तन बताते थे । कलाकार जब तक शरणागत स्थिति में रहकरकलाकृती नहीं करता, तब तक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी उसमें विविध सुधार बताते थे । अंत में जब वह साधक ईश्‍वर की शरण में जाकर यह कहता था कि, ‘हे ईश्‍वर, आप ही करवा लीजिए’, तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्मितहास्य कर कहते थे, ‘अब हो गया’ । उस समय पता हो जाता कि वे केवल इतना ही कहना चाहते है कि, ‘इतना सरल था । केवल शरण में ही जाना था । फिर इतना समय क्यों लगा ?’

ए. कलाकृती आकर्षक दिखने की अपेक्षा सात्त्विक होने के लिए महत्त्व देने को सिखाना : कुछ वर्ष पहले सनातन अगरबत्ती के बक्से बनाने थे । तब हमने हाट में अधिक बिकनेवाली अगरबत्ती के बक्से खोजकर उनके रंग और उनकी कलाकृतियां देखी । इस संदर्भ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को बक्से दिखाकर हमने पूछा, ‘क्या हम भी ऐसा करें ?’ उस पर उन्होंने कहा, ‘‘पैकिंग देखकर लोग अगरबत्तियां लें, इसलिए पैकिंग आकर्षक करना हमारा उद्देश्य नहीं है । सनातन के उत्पादों के कारण समाज में सात्त्विकता निर्माण होनी चाहिए । समाज के सात्त्विक लोग अपनेआप सनातन के उत्पादों की ओर खींचे जाएंगे । साधकों को आदर्श कलाकृती बनानी है और सात्त्विकता के संदर्भ में कोई समझौता नहीं करना चाहिए ।’’ ‘कला के माध्यम से हमारी साधना होने के लिए हमारा प्रमाणपत्र यही होगा कि, ‘कलाकृती से चैतन्य, भाव और आनंद कितनी मात्रा में प्रतीत होता है ?’ । वह बाह्यांग से कैसे दिखती है ?, इसका कोई महत्त्व नहीं होता’, यह उन्होंने हमारे मन पर प्रतिबिंबित किया ।

साधकों द्वारा निर्मित सनातन-निर्मित अगरबत्तियों का वेष्टन
साधकों द्वारा निर्मित सनातन के ग्रंथ का मुखपृष्ठ

ऐ. सूक्ष्म चित्र से संबंधित अंग्रेजी लेखन का मराठी में भाषांतर करते समय सूक्ष्म स्पंदनों के संदर्भ में बहुत कुछ सिख पाना : सेवा के बारे में सभी सूक्ष्म बातें समझ में आएं, इसलिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी हमें कुछ सेवाआें का प्राथमिक भाग भी करने को बताते थे । यहां वे कुशलता को प्रधानता न देकर प्राथमिक भाग सिखने को प्रधानता देते थे । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से मुझे १ – २ वर्ष अंग्रेजी सूक्ष्म चित्रों के भाषांतर की सेवा मिली । इसमें मुझे सूक्ष्म स्पंदनों के बारे में बहुत कुछ सिखने को मिला । ‘सभी समझ सकेंगे, इस प्रकार से सरल भाषा में सूक्ष्म ज्ञान जैसा कठिन विषय भी कैसे प्रस्तुत करना है ?’, यह सिखने को मिला । ‘सूक्ष्म कितना गहरा है, कितना भी नया सिखने पर उसका कोई अंत ही नहीं है’, यह समझ में आया और ईश्‍वरीय ज्ञान की व्याप्ती अमर्याद है, यह ध्यान में आया ।

ओ. चित्र के माध्यम से स्वभावदोषों का भान कराना : यदि हम कोई सुधार मनःपूर्वक नहीं करते अथवा हडबडी में करते अथवा टालमटोल करते, तो उस कलाकृती में वे बहुत सुधार बताते थे । हमारे स्वभावदोषों में वृद्धि होने से वे तुरंत समझ जाते और हमारी परीक्षा चित्र के माध्यम से लेकर हमें उसके बारे में बताते थे ।

 

३. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की सर्वज्ञता !

मन के विचार बताए बिना ही समझने वाले परात्पर गुरु डॉ. आठवले ! : मैं धर्मसत्संग के लिए आवश्यक सूक्ष्म चित्रों की सेवा कर रही थी । उसमें कई बार अंतिम क्षण तक परिवर्तन होता रहता था । इसलिए मुझे देर रात तक जगना पडता था और परिणामस्वरूप मैं सवेरे शीघ्र उठ भी नहीं पाती थी । मुझे लगता था कि, ‘साधक नए होने के कारण उनकी संहिता समय पर अंतिम नहीं होती’ । ‘संहिता बनानेवाले साधकों की चूक है’, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा । एक रात मैंने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को आत्मनिवेदनस्वरूप पत्र लिखा और अपने पटल पर रखे भगवान श्रीकृष्ण के चित्र के पास रखा । उसमें लिखा था, ‘अब मुझ से नहीं हो पा रहा है । आप ही मुझ से आप की सेवा करवा लीजिए । मैं थक चुकी हूं’ । लगभग २ घंटों के पश्‍चात एक साधिका मेरे पास आई । उन्होंने मुझे पूछा, ‘‘तुम्हें बहुत जगना पडता है क्या ? परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मुझसे कहा है, ‘‘भाविनी को बहुत जगना पडता है क्या ?’, यह देखो और ‘संहिता लिखनेवाले साधकों के नियोजन में कहीं चूक होती है क्या ?’, यह भी देखो ।’’ उस समय मैं भावविभोर हो गई । कुछ भी न बताते हुए भी वे सबकुछ जान गए थे । मैंने किसी भी साधक को मेरे मन की स्थिति के बारे में बताया नहीं था । मैंने साधिका को वह चिठ्ठी दिखाई । उसे भी आश्‍चर्य हुआ कि उसमें जो लिखा था, वह सब उन्होंने पूछा था ।

 

४. अल्पसंतुष्ट न रहकर साधना में
आगे-आगे का ध्येय देनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवले !

एक बार सेवा करते समय मैं मन ही मन में हंस रही थी । उन्होंने मुझे पूछा, ‘‘हंस क्यों रही हो ?’’ मैंने कहा, ‘‘आप को देखकर और सुनकर मेरे भाव जागृत हुए । उसीका स्मरण कर मैं हंस रही थी ।’’ इसपर उन्होंने कहा, ‘‘अब तुम्हें अगले चरण में जाना है । मुझे देखकर और सुनकर भाव जागृत हुए, ऐसा नहीं चाहिए । मेरे न होते हुए भी तुम्हें निर्गुण तत्त्व से एकरूप होकर भाव जागृत करने हैं, पूज्य फडकेदादी समान !’’ (तब केवल पूज्य फडकेदादी ही संत थी ।)

 

५. कृतज्ञता और प्रार्थना

‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी, आप हमें कला के माध्यम से ईश्‍वर की ओर ले जा रहे हो । ‘आप ने जैसे हमें बनाया, वैसा सदैव होकर कला के ज्ञान के माध्यम से अनेक पिढियों में कलाकार बनते रहे और उनका उद्धार होता रहे’, यही आप के चरणों में प्रार्थना !’

– कु. भाविनी कपाडिया, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

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