१. साधकों का मन जानकर उन्हें आनंद देनेवाले गुरुदेवजी !
अ. सभा हेतु गोवा आने पर घर जाकर माता-पिता से मिलने
तथा सभा होने के पश्चात सभास्थल से ही मुंबई जाने हेतु कहना
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी आरंभ में अध्यात्मप्रसार हेतु गोवा आते थे । उस समय गोवा में ५ स्थानों पर सार्वजनिक सभा का नियोजन था । गुरुदेवजी के साथ मैं भी गोवा आया था । गोवा आने पर उन्होंने मुझसे कहा कि मनोज, तुम घर जाओ । माता-पिता से मिलकर फोंडा की सभा में पहुंचो । हम वहीं पर मिलेंगे तथा पेडणे, गोवा की अंतिम सभा होने पर वहीं से मुंबई जाएंगे । बहुत सेवा शेष है । गुरुदेवजी द्वारा बताए अनुसार मैं घरवालों से मिलकर आया और फोंडा सभा में उनसे मिला ।
गोवा में एक साधक द्वारा बताए अनुसार
शक्तिरथ में मित्रों के साथ जाने की इच्छा होना
मुझे शक्तिरथ (सभा में लगनेवाला साहित्य ले जानेवाला चौपहिया वाहन) के साथ आए एक साधक श्री. विजय कदम मिले । उन्होंने कहा कि तुम हमारे साथ शक्तिरथ में चलो । आनंद आएगा । मैंने उन्हें हां कहा; परंतु तब ध्यान आया कि मैंने तो गुरुदेवजी को उनके साथ जाने हेतु हां कहा है । परंतु मेरे मन में मित्रों के साथ शक्तिरथ में जाने की इच्छा थी । इस विचार से कि मैं सेवा करता रहूंगा, तो गुरुदेवजी चले जाएंगे और मुझे शक्तिरथ से जाने के लिए मिलेगा । सभा समाप्त होने पर मैं शक्तिरथ में भरने हेतु सामग्री एकत्र करने की सेवा करता रहा ।
इ. अपने साथ साधक न होने की बात ध्यान में आते ही परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा गाडी पुन:
घुमाना तथा साधक द्वारा कुछ पूछने से पूर्व ही उसकी इच्छानुसार अन्य साधकों के साथ आने को कहना
सभा के उपरांत गुरुदेवजी तथा उनके साथ जानेवाले साधक गाडी में बैठकर जाने हेतु निकले । यह देखकर मुझे अच्छा लगा; परंतु कुछ ही दूर जाने पर उन्हें ध्यान में आया कि मैं उनके साथ नहीं हूं । वे गाडी घुमाकर पुन: सभा के स्थान पर आए । उन्होंने मुझे बुलाने हेतु एक साधक को भेजा । मैं गुरुदेवजी के सामने आया, तो उन्होंने पूछा कि तुम नहीं आ रहे हो ? इससे पहले कि मैं उन्हें पूछता कि शक्तिरथ के साथ आऊं क्या ? उन्होंने ही पूछ लिया कि तुम्हें शक्तिरथ के साधकों के साथ आना है क्या ? मैंने तुरंत हां कहा । इसपर वे ठीक है, मित्रों के साथ आनंद लेते हुए आओ कहकर निकल गए । इस प्रसंग से मुझे यह सीखने को मिला कि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी कितने दयालु हैं ।
२. घर में होनेवाले पूर्वजों के कष्ट दूर करने हेतु साधक को धार्मिक विधि करने को कहकर उसकी
रक्षा करनेवाले और विधि के लिए सहायता करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवले !
अ. पिताजी के स्वीकार न करने पर भी घर में पूर्वजों के कष्ट होने से
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा साधक को ही नारायण-नागबलि विधि करने को कहना
एक बार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी प्रसार हेतु गोवा आए थे । फोंडा में साधकों के लिए सत्संग था । मैं भी गुरुदेवजी के साथ गोवा आया था । सत्संग के उपरांत गुरुदेवजी हमारे घर आए थे । घर में सभी से बात करने के पश्चात मैं भी उनके साथ मुंबई लौटा । लौटते समय गाडी में ही गुरुदेवजी ने मुझसे कहा कि तुम्हारे घर में पूर्वजों का कष्ट है । नारायण-नागबलि करना चाहिए । तुम अध्यात्म में हो, इसलिए तुम्हें पूर्वज अधिक कष्ट देंगे । मैंने सुना था कि यह विधि परिवार के बडे सदस्य द्वारा की जानी चाहिए और उसके लिए व्यय भी बहुत होता है । मेरे मन में विचार आया कि पिताजी इतना व्यय कर यह विधि करने को तैयार नहीं होंगे । मैंने गुरुदेवजी को यह बात बताई । उसपर उन्होंने कहा कि पिताजी नहीं करेंगे, तो तुम यह विधि करो ।
आ. नारायण-नागबलि विधि करने को कहने पर भी साधक द्वारा उसकी ओर
अनदेखी करना, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा विधि करने के लिए पुन: कहना
इतना कहने पर भी मैं नारायण-नागबलि करने की ओर अनदेखी करता रहा । छुट्टी के दिन कभी-कभी मैं मित्रों के साथ घूमने जाता था और गुरुदेवजी को बिना बताए ही दोपहिया वाहन चलाना सीख रहा था । जहां भीड न हो, ऐसे मार्ग पर अभ्यास करते हुए एक बार मैं दोपहिया से गिर पडा । मुझे अधिक चोट नहीं आई । दूसरी बार पुन: गिरा । उस समय मैं लेन हायवे पर दोपहिया चलाने का अभ्यास कर रहा था । मेरा भाग्य बलवान था; इसलिए उस समय मार्ग पर कोई वाहन नहीं था । इस बार मुझे पहले की अपेक्षा अधिक चोट आई थी । अंदरूनी चोट भी लगी थी । मित्र के दोपहिये का हैंडल टेढा हो गया था और उसे भी थोडी चोट आई थी । थोडी देर बाद गुरुदेवजी हमारे कक्ष में आए और मुझे देखकर बोले, दोपहिया वाहन चलाना सीखते समय गिरकर आए हो न ? उसपर मैंने हां कहा । तब उन्होंने नारायण-नागबलि विधि करने के संदर्भ में पुन: एक बार स्मरण करवाया ।
– श्री. मनोज कुवेलकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.