जातिभेद का विषैला कलंक पोंछकर साधनारूपी अमृत देनेवाले प.पू. डॉक्टरजी के चरणों में साधक द्वारा व्यक्त की गई कृतज्ञता !

 

परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी के कार्य में सम्मिलित होकर स्वयं का कल्याण कर लें !

अनेक समाजसुधारकों ने अपने ढंग से जाति-निर्मूलन का कल्याणकारी कार्य किया है । एक जन्म के लिए तथा कुछ भौतिक वस्तुआें की प्राप्ति के लिए उनके अच्छे प्रयास हुए हैं । समाज ने भी उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए उनके पुतले बनाए एवं उनका मानसम्मान भी किया । परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी ने मेरा केवल इसी जन्म का ही नहीं, अपितु जन्मजन्मांतर का कल्याण किया है । मैंने अपने मनमंदिर में परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी की प्रतिमा सदा के लिए उकेरकर रखी है । मैं उनकी पूजा अर्थात समष्टि सेवा (राष्ट्र एवं धर्म की सेवा) करने का प्रयास कर रहा हूं । उन्होंने मुझ जैसे लाखों दु:खी, पीडितों का कल्याण किया है । उन्होंने जातिभेद का विषैला कलंक केवल मिटाया ही नहीं, बल्कि विविध अंगों से मेरा जीवन समृद्ध भी किया है । मेरा विश्‍वास है कि परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी के कार्य में सम्मिलित होकर समाज के अन्य लोग भी साधना करेंगे, तो उनके जीवन का भी कल्याण होगा ।

मैं वर्ष १९८९ में प.पू. (परम पूज्य) डॉक्टरजी के संपर्क में आया । मेरा सौभाग्य है कि निरंतर २८ वर्ष प.पू. डॉक्टरजी ने मुझे अपने चरणों में स्थान दिया है । प.पू. डॉक्टरजी मेरे साथ पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे । प.पू. डॉक्टरजी मेरे संपूर्ण जीवन में छाए हैं । इस विषय में चिंतन करने पर प.पू. डॉक्टरजी के जातिवाद तथा वर्णव्यवस्था के संदर्भ में किए कार्य की विशेषता ध्यान में आती है !

१. प.पू. डॉक्टरजी के संपर्क में आने पर जाति-वर्ण की समस्या हल होकर चिंतामुक्त होना

मेरा जन्म पिछडे वर्ग के वीरशैव ढोर कक्कया जाति में हुआ है । इस जाति के लोगों का मुख्य व्यवसाय जानवरों की चमडी उतारना है । यह गंदगी का व्यवसाय होने के कारण इस जाति के लोगों को समाज ने दूर रखा है । मेरे मन से जाति तथा मेरे अस्पृश्य होने का दृढ संस्कार और दलित होने की बेचैनी कम नहीं हो रही थी; क्योंकि उस विषय में किसी ने शास्त्रीय विश्‍लेषण नहीं किया था और न ही अपने कृत्य से १०० प्रतिशत मुझे अपनाया था । मैं पिछडा हूं, मैं न्यून हूं, इन कारणों से मुझे अपने अधिकार मिलने चाहिए, यह मुझे स्वीकार नहीं था । संयोग से १९८९ में प.पू. डॉक्टरजी के संपर्क में आने से मेरे जीवन को दिशा मिली और हल न होनेवाले जाति-वर्ण की समस्या से मैं सदा के लिए चिंतामुक्त हो गया । प.पू. डॉक्टरजी ने पिछले २८ वर्षों में मैं किस जाति का हूं ?, यह कभी नहीं पूछा । जाति-धर्म पर कभी छूट नहीं दी और कभी अन्याय भी नहीं किया है । उन्होंने शारीरिक अथवा मानसिक स्तर पर कभी आचरण नहीं किया । उन्होंने मुझे सदा ही साधना करनेवाले जीव के रूप में देखा है ।

२. प.पू. डॉक्टरजी द्वारा श्रीकृष्ण समान ही चार्तुवर्ण व्यवस्था बताकर साधना करवा लेना

प्रगतिशील, नेता, बुद्धिवादी, जाति निर्मूलन करनेवाले, अंधश्रद्धा-निर्मूलन करनेवाले, समाजवादी आदि केवल बात करते हैं, कुछ थोडा बहुत कार्य भी करते हैं; परंतु प.पू. डॉक्टरजी ही आत्मीयता से सबसे यह करवाकर लेते हैं । द्वापरयुग में जैसे श्रीकृष्ण ने चार्तुवर्ण व्यवस्था बताकर साधना करवाई थी, वैसे ही प.पू. डॉक्टरजी ने जातिभेद का कलंक मिटाकर मुझसे चार्तुवर्णानुसार साधना करवाकर मुझे मोक्ष के मार्ग पर चलाया है ।

३. प.पू. डॉक्टरजी की कृपा से अनेक संतों का सत्संग मिलना तथा जातिभेद की रेखा नष्ट होकर जीवन में आनंद मिलना

आरंभिक काल में सेवा के निमित्त मैं निरंतर १० वर्ष प.पू. डॉक्टरजी के पास जाता था । तब मेरे साथ परिवार के एक सदस्य के रूप में आचरण किया गया । वर्ष १९९२ से १९९५ तक की ३ वर्षों की अवधि में प.पू. डॉक्टरजी ने मुझे महासत्संग प्राप्त करवाया । प.पू. भक्तराज महाराज और उनके उत्तराधिकारी शिष्य प.पू. रामानंद महाराज हमारे घर आए । वेदसंपन्न ऐसे संत प.पू. काणे महाराज तथा प.पू. जोशीबाबा का मुझे ७ से १० वर्ष सत्संग मिला । प.पू. डॉक्टरजी की ही कृपा से जाति-भेद की रेखा मिट गई तथा जीवन में मुझे आनंद मिलता गया ।

४. सनातन संस्था में साधक एवं संत जातिभेद की सीमा लांघकर एक ही आध्यात्मिक स्तर पर आनंद लेने की अनुभूति होना

प.पू. डॉक्टरजी ने मुझसे प्रधानता से ब्राह्मण वर्ण की सेवा करवा ली । आश्रम में शारीरिक सेवा करते समय शूूद्र वर्ण की, हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा धर्मरक्षा हेतु सेवा करते समय क्षत्रिय वर्ण की, धर्मप्रसार व ग्रंथों के संदर्भ में सेवा करते समय ब्राह्मण वर्ण की तथा अर्पण प्राप्त करने हेतु प्रयास करते समय वैश्य वर्ण की सेवा होती है । साधना होने हेतु प्रत्येक साधक को चारों वर्णों की सेवा करनी पडती है । इसमें जात-पात का नाम भी नहीं होता । पहले जैसे संत रविदास, संत कबीर, संत तुकाराम महाराज, संत नामदेव, संत गोरा कुंभार, ये सभी संत आध्यात्मिक स्तर पर रहे, वैसे ही सनातन संस्था में साधक व संत जातिभेद की सीमा लांघकर आध्यात्मिक स्तर पर आनंद लेने की अनुभूति मुझे हो रही है ।

– श्री. शिवाजी वटकर, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल

Leave a Comment