परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय के संगीत विभाग की साधिका को हुई अनुभूतियां

कु. तेजल पात्रीकर

१. वर्ष २००१ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी पहली बार अमरावती (महाराष्ट्र) आए थे । उस समय उन्होंने मुझसे और मेरी बहन श्रीमती अनघा जोशी से संगीत के विषय में आधा से पौन घंटा बात की । हमने उनसे पूछा, संगीतक्षेत्र में आगे अभ्यास करें क्या ? उन्होंने कहा, अभी नहीं । समय आने पर बताऊंगा । तुम दोनों बहनों की साधना संगीत के माध्यम से है । उसके पश्‍चात १५ वर्ष तक संगीत से मेरा कोई संबंध नहीं रहा । अप्रैल २०१६ में उन्होंने अचानक मुझे संगीतसाधना करने का संदेश भेजा । इससे उनकी दूरदर्शिता का ज्ञान होता है ।

२. एक दिन मुझे अपने स्वभावदोष और अहं का अनुभव तीव्रता से हो रहा था और मन में विचार उठ रहे थे कि ये कब जाएंगे ? मुझमें इतना अहं है, तो मैं संगीत-साधना कैसे कर पाऊंगी ? इन विचारों के कारण मन को बहुत खेद हो रहा था । इसके लिए दिनभर उनके चरणों में प्रार्थना ही व्यक्त हो रही थी । उस दिन किसी कारण मैं एक संत से दूरभाष पर बात कर रही थी । उस समय उन संत ने कहा, आज मुझे तुमसे बात कर अच्छा लगा । मेरी हंसी सुनकर उन्होंने कहा, पहले तुम इस प्रकार हंसती नहीं थी । उन्हें मेरे मन के विचार बिना बताए ही पता चल गए । यह मेरे लिए अनुभूति ही थी ।

३. इस प्रसंग से मैंने सीखा कि अपने दोषों और अहं के कारण हंसी बनावटी लगती है । ये दोष घटने पर ही हास्य से सहजता और आनंद प्रतीत होता है । संगीत, नाद-साधना है । इसलिए स्वभावदोष और अहं जाने पर ही, चैतन्यदायी गायन हो पाएगा ।

– कु. तेजल पात्रीकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

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