स्वामी विवेकानंद के पिताश्री का निधन होता है । सिर पर बहुत ऋण था । इस संदर्भ में अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से अनुरोध करने पर वे कहते हैं, “दुर्गामाता को बताओ । वही सब निपटाएगी ।”
विवेकानंदजी मंदिर में जाते हैं । परमहंसजी द्वार के पास बैठते हैं । एक घंटे के उपरांत विवेकानंदजी जब आते हैं, तो उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे । परमहंसजी पूछते हैं, “मां से पूछा ?” विवेकानंदजी कहते हैं, “अरे ! वह तो मैं भूल ही गया ।” दूसरे दिन भी वही । तीसरे दिन भी वही ।
स्वामी विवेकानंद सीधे बता देते हैं, “यह मुझसे नहीं होगा । मैं भीतर जाता हूं और माता की मूर्ति के सामने खडा होता हूं, तब मेरे सुख-दुःख का प्रश्न ही नहीं उठता । भूख होने पर भी मेरा शरीर से संबंध टूट जाता है । मां भगवती की ऐसी महिमा होते हुए उसके सामने घर की क्षुद्र और तुच्छ बातें क्यों बताऊं ? यह जीवन चार दिन का है । हम भूखे हैं, ऐसी शिकायत परमात्मा के पास क्यों करें ? अब फिर से न भेजें । क्षमा करें । मैं नहीं जाऊंगा ।”
जब परमहंसजी कहते हैं, “मांगना समाप्त होने पर, खरी प्रार्थना होती है ! तुम्हारे अंतरंग में प्रार्थना का बीज अंकुरित होकर वृक्ष पल्लवित हुआ । तुम्हारी छाया में सहस्रों लोग निश्चिंत होंगे ।”
(संदर्भ : घनगर्जित, अक्टूबर २०१२)