८ मार्च १९१० को अमेरिका के कोपेनहेग में आयोजित दूसरे अंतरराष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन में वस्त्रोद्योग क्षेत्र के स्त्री-श्रमिकों के ऐतिहासिक आंदोलन के स्मरण में प्रतिवर्ष ८ मार्च को विश्व महिलादिन मनाने के लिए प्रस्ताव पारित हुआ । उस समय स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार भी देने की मांग की गई । भारत में यह दिन वर्ष १९४३ से मनाया जाता है । अब यह दिन अधिकोषों (बैंकों), शासकीय तथा निजी कार्यालयों, सामाजिक संस्थाओं, मंडलों, विद्यालयों, महाविद्यालयों, सभी प्रचारमाध्यमों, सामाजिक सूचना जालस्थलों आदि स्थानों पर मनाया जाता है । आजकल ये दिन मनाने का चलन इतना बढ गया कि इस बात की जांच होने की आवश्यकता है कि इस कार्यक्रम से कुछ साध्य होता भी है अथवा नहीं । इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता दिखाई दे रहा है; क्योंकि, यह सिद्धांतहीन है । किसी क्षेत्र में अच्छा कार्य की हुई महिला की प्रशंसा करने तक तो यह कार्यक्रम ठीक है; पर इसके कारण पत्रकारदिन, महिलादिन जैसे दिवस मनाना उचित नहीं लगता । पश्चिमी देशों की यह परंपरा कुछ वर्ष पहले की है । भारतीय संस्कृति में बहुत पहले से तिथियों पर आध्यात्मिक ढंग से त्योहार मनाए जाते हैं । इससे सबको चैतन्य मिलता है ।
भारतीय संस्कृति में स्त्रियों के शीलरक्षण का विशेष महत्त्व है । इसी कारण रामायण और महाभारत हुआ था । आज भारतीय स्त्रियों के शीलरक्षण को महत्त्व नहीं दिया जाता । इसके लिए पुरुष तथा महिलाएं समानरूप से दोषी हैं । फिर भी, इस महिलादिन पर इस समस्या का ठोस उपाय निकलता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है । इसके विपरीत, इस बार तो औषध-निर्माता प्रतिष्ठानों ने महिलादिन पर, स्त्री शरीर को सुडौल बनानेवाले विज्ञापन लगवाए हैं । क्या ऐसा करना, महिलादिन पर महिलों का अपमान नहीं है ? ये विज्ञापन, एक बार पुनः स्त्री के शरीर को उपभोग की वस्तु मानने के लिए पुरुषों को प्रेरित करेंगे । जिस उद्देश्य के लिए स्त्री-मुक्तिवादी संघर्ष कर रहे हैं, क्या ये विज्ञापन उसे विफल नहीं बना रहे हैं ?
नैतिक अवमूल्यन रोकने के लिए प्रयत्न आवश्यक !
पश्चिमी देशों में पूर्णतः विफल रहा समाजवादी स्त्री-पुरुष समानता का विषय यहां बार-बार उपस्थित किया जाता है । इसी प्रकार, स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश की अनुमति न देकर, उन पर कितना बडा अन्याय किया जा रहा है, यह चिल्ला-चिल्ला कर बताया जाता है । जिस प्रकार, समाज में सब लोग समान नहीं होते, उसी प्रकार, प्राकृतिकरूप से भिन्न रचना के स्त्री-पुरुष समान नहीं हो सकते । दोनों अपने-अपने स्थान पर श्रेष्ठ हैं । परंतु, इन दोनों की अपनी-अपनी मर्यादाएं भी हैं । ये प्रत्येक बात में समान नहीं हो सकते । उनकी समानता का आग्रह करना, लिंग-परिवर्तन कराने जैसा हास्यास्पद है । भारतीय संस्कृति नारी-शक्ति को सदैव से जानती है और उसे अपनी शक्ति दिखाने का अवसर भी देती है । कभी-कभी कुछ लोग परिवार में लडकियों अथवा स्त्रियों से किए जानेवाले भेदभाव के अपवादात्मक उदाहरणों के बहाने अपनी स्त्रीसमानता की बात को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं, जो अनुचित है । क्योंकि, उस भेदभाव का कारण कुछ अलग ही होता है । स्त्रियों के जीवन में आनेवाले दुःखों का कारण, उनका ‘स्त्री’ होना है, यह बात ऊपरी स्तर पर भले ही उचित लगे; परंतु इस पर पाश्चात्य विचारधारा का प्रभाव है, जो भारतीय विचारधारा के पूर्णतः विपरीत है । भारतीय आध्यात्मिक विचारधारा के अनुसार दुःख, प्रारब्ध का एक भाग है । यह सत्य न समझ पाने के कारण आधुनिक विज्ञानवादी और प्रगतिवादी लोग तुरंत आग-बबूला होकर कहते हैं, देखो-देखो, प्रतिगामियों के स्त्रियों से अन्याय करनेवाले विचार ! इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि स्त्रियों पर होनेवाला अन्याय दूर करने का प्रयत्न नहीं होना चाहिए । परंतु, आजकल महिलाओं के लिए जो संगठन कार्य कर रहे हैं, उनके प्रयत्न केवल मानसिक और सामाजिक स्तर के होते हैं, इसलिए अपूर्ण हैं । इसी प्रकार, अधिकांश समय तो उनके कार्य की दिशा ही भटकी होती है । भारत में बलात्कार की घटनाओं के आंकडे भयानकरूप से बडे होते जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में स्थान-स्थान पर सरकार और निजी संस्थाओं को स्त्रियों के लिए आत्मरक्षा प्रशिक्षण वर्ग चलाना चाहिए तथा बलात्कारियों को शीघ्र कठोरतम दंड दिलाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । आज की स्त्री घर में और बाहर भी सुरक्षित नहीं है । आज ऐसी कोई युवती न होगी, जिसे पुरुषों की कुदृष्टि अथवा लैंगिक अत्याचार का सामना न करना पडा हो । प्रचारमाध्यम, सरकार तथा स्त्रियों के लिए काम करनेवाले संगठनों को समाज का यह नैतिक अवमूल्यन रोकने के लिए महिलादिन के अवसर पर विशेष प्रयत्न करना चाहिए । परंतु इसके विपरीत, ये तीनों संगठन सौंदर्यप्रसाधनों, छोटे कपडे, फैशन, सौंदर्य-प्रतियोगिताएं, मॉडेलिंग आदि के लिए स्त्रियों को बढावा दे रहे हैं । स्त्री-भ्रूण हत्या तथा स्त्रियों के साथ होनेवाला अन्याय केवल धर्माचरण और साधना से रुकेगा । भारतीय संस्कृति साधना और उपासना करनेवाले सहिष्णु समाज की संस्कृति है । साधना करनेवाला समाज कभी स्त्रियों के साथ अन्याय नहीं करता । इसके विपरीत, उसका सम्मान ही करता है और इसीलिए वहां कभी स्त्री-पुरुष समानता-जैसे हास्यास्पद विषय नहीं होते । इसलिए, उनके लिए, समाजवादियों तथा साम्यवादियों की भांति अलग से समानता की बात नहीं करनी पडती । हिन्दू राष्ट्र में ऐसे महिलादिन नहीं होंगे !