अध्यात्म की सैद्धांतिक भाग का कितना भी अभ्यास करें, तब भी मन की शंकाओं का निरसन न होने पर साधना ठीक से नहीं होती है । इस दृष्टि से गांव-गांव के जिज्ञासु और साधकों के मन में सामान्यत: निर्माण होनेवाले अध्यात्मशास्त्र की सैद्धांतिक और प्रायोगिक भाग की शंकाओं का सनातन संस्था के प्रेरणास्थान प.पू. डॉ. जयंत आठवले ने निरसन किया है । ‘शंकानिरसन’ इस स्तंभ से प्रश्नोत्तर के रूप में यह सर्व ही पाठकों के लिए उपलब्ध कर रही है । इसका अभ्यास कर अधिकाधिक जिज्ञासु उचित साधना आरंभ करें और अपने जीवन का खरे अर्थ में सार्थक कर लें, यही श्रीकृष्ण के चरणों में प्रार्थना है !
कर्मकांड साधना का प्राथमिक परंतु अविभाज्य भाग है । कर्मकांड में पालन करने योग्य विविध नियम, आचरण कैसे होना चाहिए, इस विषय में अनेक लोगों को जानकारी होती है; परंतु उसके पीछे का कारण और शास्त्र के विषय में हम अनभिज्ञ होते हैं । प्रत्येक कृति के पीछे का शास्त्र ध्यान में रखने से भगवान पर श्रद्धा बढने में सहायता होती है । इस दृष्टि से पूछे गए विविध प्रश्नों के उत्तर इसमें दिए हैं ।
प्रश्न : स्त्रियां गुरुचरित्र का वाचन न करें, गायत्रीमंत्र न बोलें, इसके पीछे क्या कारण है ?
उत्तर : वर्तमान काल में स्त्रियां पुरुषों समान आचरण करने का प्रयत्न करती हैं । हमें भी पुरुषों समान अधिकार चाहिए, ऐसा कहते हुए वे लडती हैं । दोनों की देह तो भिन्न है । पुरुषों की जननेंद्रीय बाहर की ओर हैं, जबकि स्त्रियों की अंदर की ओर हैं, उदा. गर्भाशय । कोई भी साधना तपश्चर्या है, तप है, उससे उष्णता निर्माण होती है । उसका पुरुषों की जननेंद्रियों पर कोई परिणाम नहीं होता; इसलिए कि वे बाहर की ओर होती हैं । हवा लगती रहती है । इससे उनका तापमान अल्प होता है; परंतु स्त्रियों की जननेंद्रीय अंदर की ओर होने से अधिक तापमान में अधिक समय कार्य नहीं कर सकती हैं । इसलिए गायत्री की अथवा ओंकार की साधना, सूर्याेपासना ऐसी तीव्र साधना करने से लगभग २ प्रतिशत स्त्रियों को गर्भाशय के विकार आरंभ हो जाते हैं । स्त्रीबीज निर्माण करनेवाली जो ग्रंथियां हैं, उनके विकार आरंभ हो जाते हैं । माहवारी के समय कोई न कोई कष्ट अवश्य होता है । गुरु ने यदि किसी को इस प्रकार की साधना बताई, तो प्रश्न ही नहीं उठता; इसलिए कि गुरु को सब पता ही होता है, किसे क्या करना आवश्यक है । किसी कारणवश शरीर को कोई विकार हो जाए, तो प्रतिजैविक लेकर वह ठीक कर सकते हैं; परंतु इन शक्तियों के कारण कुछ कष्ट निर्माण होने पर वहां वैद्य कोई सहायता नहीं कर सकते हैं । इसलिए वैसा करने की अपेक्षा अपनी परंपरा के अनुसार ही करना चाहिए । अर्थात भगवान के नाम के आगे ॐ लगाना टालें ‘ॐ नमः शिवाय ’ के स्थान पर केवल ‘नमः शिवाय’ बोलें । गायत्री की उपासना करना टालें ।
प्रश्न : हम रूढिप्रिय होेते हैं और रूढि के अनुसार दादा, परदादा अथवा अपने से पूर्व की पीढियों ने जो बताया है, उसप्रकार हम कुछ करते हैं । साधक की दृष्टि क्या यह योग्य है ?
उत्तर : रूढि को कोई अर्थ नहीं होता । शास्त्र में जो है, उसी प्रकार करना चाहिए । शास्त्र का अर्थ है ‘साइन्स’ । जो बात प्रमाणसहित सिद्ध की गई होती है, वह पुनःपुन: सिद्ध की जा सकती है; परंतु अनेक कुटुंबों में रूढि शास्त्र से भी अधिक बलवान होती है । ऐसे में यदि हम शास्त्र बताने गए, तो कोई सुनेगा नहीं । उसके स्थान पर जो वे करते हैं, उन्हें वैसे करने देना है । एक बार उनका साधना पर विश्वास हो जाए, तो वे हमारे शब्दों पर विश्वास रखेंगे । शब्दप्रमाण निर्माण होने पर, हम बता सकते हैं कि वह रूढि है । तब तक बताना टालें ।
प्रश्न : क्या गुरुपुष्यामृत के दिन सत्यनारायण की पूजा करें ?
उत्तर : सत्यनारायण की पूजा, यह एक रुढि का भाग है । गत सौ वर्षों से वह हमारे पास आ गई है । धर्मशास्त्र में उसका उल्लेख नहीं है । बंगाल से वह हमारे पास आई है । धर्मशास्त्र में नियम बताए गए हैं । पंडितजी हमें बताते हैं कि इस विधि के लिए यह योग अच्छा है, अथवा दिन अच्छा है, नक्षत्र अच्छा है, उस प्रकार वह विधि करनी चाहिए । भक्तिभाव से करने पर कोई बंधन नहीं होता, कोई भी विधि कभी भी करें ।
प्रश्न : कहते हैं कि गांव में गणपति बिठाए हैं, तो अन्यत्र बिठाने की आवश्यकता नहीं है । इसके पीछे क्या शास्त्र है ?
उत्तर : यह प्रथा अत्यंत अयोग्य है । जहां-जहां अलग रसोई बनती है, वहां पर अलग-अलग देवघर होना चाहिए । केवल बडा भाई ही भगवान का सर्व करता है, तो भगवान भी सब कुछ केवल बडे भाई के लिए ही करेंगे औरों के लिए कुछ नहीं करेंगे ।