प्रास्ताविक
अध्यात्म के सैद्धांतिक भाग का भले ही हम कितना भी अभ्यास करें, तब भी मन की शंकाओं का समाधान हुए बिना साधना ठीक से नहीं होती । इस दृष्टि से गांव-गांव के जिज्ञासु और साधकों के मन में सामान्य तौर पर निर्माण होनेवाली अध्यात्मशास्त्र के सैद्धांतिक और प्रायोगिक भाग की शंकाओं का निरसन सनातन संस्था के प्रेरणास्रोत प.पू. डॉ. जयंत आठवलेजी ने किया है । ‘शंकानिरसन’ स्तंभ से प्रश्नोत्तर के रूप में यह सब पाठकों के लिए उपलब्ध कर रहे हैं । श्रीकृष्ण के चरणों में प्रार्थना है कि इसका अभ्यास कर अधिकाधिक जिज्ञासु योग्य साधना आरंभ करें और खरे अर्थ में जीवन सार्थक करें ।
अनेक लोगों को ‘आत्मा’, ‘मुक्ति’, ‘मोक्ष’, ‘वेद’, ‘प्रारब्ध’, ‘देवता’ इत्यादि विषयों संबंधी अधिक जानकारी नहीं होती । पाठकों को नीचे दिए प्रश्नोत्तर से इन सबके मानव जीवन की अपरिहार्यता ध्यान में आएगी और हिन्दू धर्म का महत्त्व समझ में आएगा । आशा है कि इससे अधिकाधिक पाठक योग्य साधना प्रारंभ करेंगे ।
प्रश्न :आत्मा अमर है । मृत्यु के उपरांत आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है । यह सत्य है क्या ?
उत्तर : ‘आत्मा’ अलग कुछ नहीं; जैसे हवा सब जगह होती है, उसी प्रकार परमात्मा, ब्रह्म भी सब जगह है । लिंगदेह में भी है । जब हम मुक्त होते हैं, तब हमारी सभी वासनाएं, पसंद-नापसंद चली जाती हैं । जीव का विघटन होने पर, अंदर में विद्यमान आत्मतत्त्व, परमात्मा में विलीन हो जाता है । परबह्म, परमात्मा ये तत्त्व हैं । बोलते समय विषय ध्यान में आए, इसलिए हम परब्रह्म, ब्रह्म, आत्मा कहते हैं । विषय समझने में कठिन न हो; इसलिए कहते हैं ‘वह ब्रह्म और यह आत्मा’ । सही अर्थ में दोनों एक ही हैं ।
प्रश्न : मनुष्य को मुक्ति मिलती है, अर्थात क्या होता है ?
उत्तर : वह मनुष्य परमेश्वर से एकरूप हो जाता है और उसे सच्चिदानंद अवस्था प्राप्त होती है । कुछ भी हो जाए, उसे न तो सुख होता है और न ही दु:ख । उसे कायमस्वरूपी आनंदावस्था प्राप्त हो जाती है ! अर्थात वह मुक्त हो गया |
प्रश्न : अपने गतजन्मों के भले-बुरे कर्मों के कारण हमारे जीवन में सुख-दुःख आते हैं, उसे हम प्रारब्ध कहते हैं, तो यह प्रारब्ध चुकाने के लिए क्या करना चाहिए ? क्या उनकी ओर साक्षीभाव से देखें ?
उत्तर : सहस्रों (हजारों), लाखों, करोडों वर्ष पूर्व कभी तो अपना पहला जन्म हुआ था । तब जैसे चाहिए वैसे आचरण करने के लिए परमेश्वर ने सभी कुछ हमें पूर्णत: सौंप दिया था । तब हमने जो कर्म किए, वे सब क्रियमाणकर्म हुए । जो अपने हाथ में होता है, उसे क्रियमाण कहते हैं । उस जन्म में हमने कुछ अच्छे कर्म किए थे, तो कुछ बुरे । इन अच्छे-बुरे कर्मों का परिणाम हमें अगले जन्म में भोगना है, उसे संचित कहते हैं । उनमें से थोडा भाग हमने दूसरे जन्म में भोगा, तो वह प्रारब्ध हुआ । ऐसे करते-करते अब तक लाखों जन्म होकर गए और अपने अनेक जन्म हुए और अपना संचित अधिक मात्रा में एकत्र होने से उसका कुछ भाग भोग कर समाप्त करने के लिए प्रत्येक जन्म में हम उसमें से थोडा-थोडा प्रारब्ध के रूप में लेकर आते हैं । कलियुग में क्रियमाण केवल ३५ प्रतिशत है और ६५ प्रतिशत बातें प्रारब्ध के कारण होती हैं । ऐसे ही काल आगे-आगे जाकर जब कलियुग का अंत आएगा, तब अपने जीवन की १०० प्रतिशत बातें प्रारब्ध के अनुसार होंगी ।
प्रारब्ध के तीन प्रकार हैं । मंद प्रारब्ध, मध्यम प्रारब्ध और तीव्र प्रारब्ध । मंद प्रारब्ध साधना से टाल सकते हैं । उसके लिए साधना कौन-सी करनी है, तो कुलदेवता की उपासना करनी चाहिए । प्रारब्धभोग सहन करने की क्षमता बढाना अथवा मंद प्रारब्ध होगा, तो उसे नष्ट करना, यह सर्व कुलदेवता की उपासना से साध्य होता है । पूर्वजों की आत्मा कष्ट दे रही हो, तो दत्त की उपासना अथवा भूतबाधा, करनी में से कुछ हुआ हो, तो उसके लिए हनुमान, कालीमाता इन देवताओं की उपासना करनी चाहिए । कुंडलिनीचक्र अथवा नाडी में बाधा हो, तो उन-उन चक्रों का बीजमंत्र है, उसकी उपासना करनी चाहिए । प्राणशक्ति अल्प होने पर शिव, विष्णु, गणपति, महालक्ष्मी समान उच्चकोटि के देवताओं की उपासना करनी चाहिए । इन सभी के पीछे शास्त्र है । वैद्य जिस प्रकार विविध व्याधियों पर भिन्न-भिन्न प्रतिजैवक देते हैं, उसी प्रकार जीवन की विविध अडचनों पर साधना बताई गई है । जीवन की ६५ प्रतिशत समस्याएं प्रारब्ध के कारण निर्माण होती हैं । प्रत्येक व्यक्ति को कुलदेवता का कुछ न कुछ करना आवश्यक ही है । इसलिए भगवान हमें ऐसे स्थान पर जन्म देते हैं, जहां के कुलदेवता का नाम प्रारब्ध नष्ट करने के लिए उपयुक्त है ।
हमारे जन्म लेने के मुख्य दो उद्देश्य हैं । पहला उद्देश्य हमें साधना कर, पुन: परमेश्वर के पास जाने का अवसर मिले । प्रत्येक जन्म में हमसे चूकें होने से ही भगवान हमें बार-बार अवसर दे रहे हैं । जिससे इस जन्म में तो साधना कर, हम अगले लोक में जाएं और दूसरा कारण यह कि हमारा लेन-देन पूर्ण करना, अर्थात प्रारब्ध भोगकर समाप्त करना ।
मध्यम प्रारब्ध नष्ट करने के लिए संतों की अथवा गुरु की कृपा होनी चाहिए । उनके संकल्प से ही वह नष्ट हो सकता है । उनके संकल्प से ही वह जा सकता है । तीव्र प्रारब्ध होने से संत और गुरु भी उनके रास्ते नहीं आते । तीव्र प्रारब्ध के भोग परमेश्वर द्वारा ही भोगने के लिए दिए जाने से तथा परमेश्वर और संत अथवा गुरु भिन्न न होने से वे इसमें हस्तक्षेप नहीं करते हैं । गुरु उसे भोगने की क्षमता अंत तक देते रहते हैं ।
संतों को प्रसन्न करने के लिए क्या करना चाहिए ? उनके कार्य में सहभागी हो जाएं । संतों का, परमेश्वर का, अवतारों का एक ही कार्य होता है, और वह है लोगों को साधना की ओर मोडना और उनकी प्रगति करवाना । इस कार्य में हम भी सहभागी होंगे तो हम पर भी संतों एवं गुरु की कृपा होती है । किसी समारोह में हमें जो दायित्व सौंपा है, उस कार्य में यदि कोई हमारी सहायता के लिए आए, तो जैसे वह हमें अपना लगता है । उसी प्रकार संतों का जो कार्य है समाज में अध्यात्म का प्रसार करना, लोगों में उसकी रुचि उत्पन्न करना, इस कार्य में अपने प्राण झोंक देने से संत कहेंगे ही कि यह मेरा है । अर्थात मध्यम प्रारब्ध समाप्त होगा ही ।
प्रश्न : प्रत्येक गांव में शंकर का कम से कम एक मंदिर तो होता ही है । उन्हें रामेश्वर, कलेश्वर तथा गंगेश्वर क्यों कहते हैं ? शंकर तो एक ही हैं; परंतु शंकर का मंदिर सहसा कहीं मिलता नहीं, अनेक स्थानों पर उनके भिन्न-भिन्न नाम होते हैं । ऐसा क्यों ?
उत्तर : शंकर का ही क्यों, ‘विष्णुसहस्रनाम’ है । ‘गणेश सहस्रनाम’ है । अनेक देवताओं के ऐसे भिन्न-भिन्न नाम हैं । वह इसलिए कि जहां जो नाम है, उस नाम में ‘शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और शक्ति’ सर्व एकत्र होते हैं । अर्थात भगवान को कोई कार्य करना होता है, तो वह उस कार्य के लिए अवतार लेता है । वह उस कार्य के लिए पूरक शक्ति लेकर ही आता है और उस शक्ति का रूप एवं नाम भी उस कार्य के अनुरूप होता है ।
‘शंकर एक है’ ऐसा भले ही लगता हो, तब भी रामेश्वर, कलेश्वर और गंगेश्वर में सूक्ष्म भेद होता है । उनके कार्य में भी थोडा-थोडा भेद होता है । उसके अनुरूप उनके विविध नाम होते हैं । साधना बढने पर आप किसी मार्ग से जा रहे हैं और रास्ते में कोई मंदिर दिखाई दिया, तो आपको स्वयं ही समझ में आएगा कि यह गणपति का, दत्त का, शंकर का, राम का अथवा विष्णु का मंदिर है । उससे जो स्पंदन निर्माण होते हैं, उससे समझ में आता है । अगले चरण की प्रगति होने पर यह भी समझ में आने लगता है कि मंदिर रामेश्वर का है या गंगेश्वर का अथवा कलेश्वर का । ये नाम विविध शक्तियां हैं । साधना से उन सूक्ष्म शक्तियों को अनुभव कर सकते हैं ।