“वाराणसी के चलते फिरते शिव” के नाम से विख्यात त्रैलंग स्वामीजी !
जन्म तिथि – पौष शुक्ल पक्ष १०/११
त्रैलंग स्वामी जी एक हिन्दू योगी थे । वे गणपति सरस्वती के नाम से भी जाने जाते थे । माना जाता है कि उनकी आयु लगभग ३०० वर्ष रही थी । उन्होंने वाराणसी में १७३७-१८८७ तक निवास किया था । लोग इन्हें भगवान शिव एवं रामकृष्ण का अवतार भी मानते हैं तथा इन्हें वाराणसी के चलते-फिरते शिव की उपाधि भी दी गई है ।
बाल्यवस्था
त्रैलंग स्वामी का जन्म १६०१ को हुआ था । उनके पिता का नाम नृसिंह राव और माता का नाम विद्यावती था । ५२ वर्ष की आयु तक उन्होंने अपने माता-पिता की सेवा की । तत्पश्चात माता के देहत्याग के उपरांत वे गुरु की खोज में निकले ।
आध्यात्मिक जीवन
उन्होंने अपनी साधना एक स्थानीय श्मशान भूमि से आरंभ की । वहां २० वर्षों तक तपस्या करने के उपरांत वे कई स्थानों पर भ्रमण करने निकले । अंत में वे वाराणसी पहुंचे । यहां उन्होंने लगभग १५० वर्ष तक निवास किया ।
१. उनका समस्त जीवन चमत्कारों से भरा था । त्रैलंग स्वामी के अनेक बार घातक विष का पान करने के बाद भी वे जीवित रहे । अनेक बार कई दिनो तक वे गंगा में जल के ऊपर बैठे रहते अथवा लंबे समय तक जल के नीचे छिपे रहते थे ।
२. गर्मी के दिनो में भी वे मणिकर्णिका घाट पर दोपहर की तपती शिलाओं पर निश्चल बैठे रहते थे । इन चमत्कारों से वे प्रमाणित करना चाहते थे कि मनुष्य ईश्वरीय चैतन्य से ही जीवित रहता है । मृत्यु उन्हें स्पर्श तक नहीं कर सकती थी ।
३. वैसे तो उनका शरीर विशालकाय था, किन्तु वे भोजन कभी-कभार ही करते थे ।
४. त्रैलंग स्वामी सदा नग्न रहा करते थे किन्तु उन्हें अपनी नग्नावस्था का तनिक भी भान नहीं होता था । पुलिस उन्हें पकडकर कारागृह में डाल देती थी । इतने में त्रैलंग स्वामी जेल की छत पर दिखाई पड़े । जिस कोठरी में पुलिस ने त्रैलंग स्वामी को बन्द कर ताला लगा दिया था, उस कोठरी का ताला ज्यों का त्यों था और त्रैलंग स्वामी जेल की छत पर होते थे । हताश होकर पुलिस अधिकारियों ने पुन: उन्हे जेल की कोठरी में बंद कर ताला लगा दिया और कोठरी के सामने पुलिस का पहरा भी बैठा दिया, किन्तु इस बार भी महान योगी कुछ क्षणों उपरांत छत पर टहलते दिखाई दिए ।
५. त्रैलंग स्वामी सदा मौन धारण किए रहते थे । निराहार रहने के बाद भक्त यदि कोई पेय पदार्थ लाते तो उसे ही गृहण कर अपना उपवास छोड़ते थे । एक बार एक नास्तिक ने गाढ़ा दही बताते हुए एक बाल्टी चूना घोलकर स्वामीजी के सामने रख दिया । स्वामी जी ने तो उसे पी लिया किन्तु कुछ ही देर बाद वह नास्तिक पीडा से छटपटाने लगा और स्वामीजी से अपने प्राणों की रक्षा की भीख मांगने लगा । त्रैलंग स्वामी ने अपना मौन भंग करते हुए कहा कि तुमने मुझे विष पीने के लिए दिया, पर तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारा जीवन मेरे जीवन के साथ एकाकार है । यदि मैं यह नहीं जानता कि मेरे पेट में उसी तरह ईश्वर विराजमान है जिस तरह वह विश्व के अणु-परमाणु में है तब तो चूने के घोल ने मुझे मार ही डाला होता । अब तो तुमने कर्म का देवी अर्थ समझ लिया है, अत: फिर कभी किसी के साथ चालाकी करने की कोशिश मत करना । त्रैलंग स्वामी के इन शब्दों के साथ ही वह नास्तिक कष्ट से मुक्त हो गया ।
आलौकिक आध्यात्मिक सामर्थ्य
त्रैलंग स्वामी की प्रबल आध्यात्मिक शक्ति के अनेक उदाहरण मिलते है ।
एक बार परमहंस योगानन्द के मामा ने उन्हे बनारस के घाट पर भक्तों की भीड़ के बीच बैठे देखा । वे किसी प्रकार मार्ग बनाकर स्वामीजी के निकट पहुंच गये और भक्तिपूर्ण उनका चरण स्पर्श किया। उन्हे यह जानकर महान आश्चर्य हुआ कि स्वामी जी का चरण स्पर्श करने मात्र से वे अत्यन्त कष्टदायक जीर्ण रोग से मुक्ति पा गये।
काशी में त्रैलंग स्वामी एक बार लाहिड़ी महाशय का सार्वजनिक अभिनन्दन करना चाहते थे जिसके लिये उन्हे अपना मौन तोड़ना पड़ा। जब त्रैलंग स्वामी के एक शिष्य ने कहा कि आप एक त्यागी सन्यासी है। अत: एक ग्रहस्थ के प्रति इतना आदर क्यों व्यक्त करना चाहते है ? इस पर त्रैलंग स्वामी बोले, ‘मेरे बच्चे, लाहिड़ी महाशय जगत जननी के दिव्य बालक हैं । मां उन्हें जहां रख देती हैं, वहीं वे रहते हैं । सांसारिक मनुष्य के रुप में कर्तव्य का पालन करते हुए भी उन्होंने मनुष्य के रुप में वह पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है जिसे प्राप्त करने के लिये मुझे सब कुछ का परित्याग कर देना पड़ा । यहां तक कि लंगोटी का भी ।