अनुक्रमणिका
१. ‘औक्षण’ शब्द का आध्यात्मिक अर्थ क्या है ?
‘औक्षण’ अर्थात दीपक की ज्योति की सहायता से कार्यरत ब्रह्मांड के देवताओं की तरंगों के पृथ्वी पर पदार्पण के क्षण का स्वागत करना एवं उस क्षण को ध्यान में रखकर उन तरंगों की शरण जाना ।
२. औक्षण का महत्त्व क्या है ?
अ. संरक्षककवच निर्माण होना
औक्षण करते समय थाली के दीपक की सहायता से प्रक्षेपित अथवा ग्रहण की जानेवाली तरंगों से आरती करवानेवाले जीव की देह की चारों ओर गतिमान संरक्षककवच निर्माण होता है ।
आ. देवता के आशीर्वाद प्राप्त होने में सहायता मिलना
जीव में ईश्वर के प्रति जागृत हुए भाव के कारण, देवताओं की कार्यतरंगों के स्रोत से देवताओं की कृपादृष्टि जीव के लिए कार्य करती है । औक्षण करते समय देवताओं की शरण जाकर अपनी आध्यात्मिक उन्नति हेतु प्रार्थना करने से अपेक्षित फलप्राप्ति में सहायता मिलती है एवं वास्तविक रूप से औक्षणकर्म का ध्येय साध्य होता है, अर्थात औक्षण के माध्यम से देवताओं के आशीर्वाद प्राप्त करना सुलभ होता है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , २७.१.२००५, दोपहर १२.२९)
३. औक्षण किसका करें ?
बालक, संस्कार्य व्यक्ति, स्वागतमूर्ति, युद्ध के लिए निकले सैनिक, राजा तथा संतों का औक्षण करें ।
४. औक्षण कहां करें ?
साधारणत: व्यक्ति को गृहमंदिर में देवता के समक्ष बिठाकर औक्षण किया जाता है । विशेष कार्य (उदा. यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, इत्यादि) हो, तो उस कार्यस्थल पर औक्षण करें ।
५. द्वार पर न कर, वास्तु अथवा घर के अंदर औक्षण क्यों करें ?
‘पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगों को ग्रहण कर उन्हें पुन: पाताल में संक्रमित कराने का उत्तम माध्यम है देहरी । ये कष्टदायक तरंगें द्वार की चौखट पर घनीभूत होती हैं । द्वार पर खडे रहने से इन रज-तमात्मक तरंगों से आवेशित क्षेत्र से जीव को कष्ट होता है । जीव के चारों ओर इन कष्टदायक तरंगों का कोष निर्माण होता है । इनका प्रभाव जीव के मनोमयकोष पर पडता है तथा वहां के रज-तम कणों की प्रबलता बढने से जीव में चिडचिडाहट उत्पन्न होती है । इस कारण द्वार पर औक्षण करने के विषय में हिन्दू धर्म सहमत नहीं है ।
द्वार पर औक्षण करने की अपेक्षा द्वार के भीतरी भाग में अर्थात वास्तु में, संभव हो तो पूजाघर के समक्ष औक्षण करें । पूजाघर के समक्ष रंगोली से स्वस्तिक बनाकर, उस पर पीढा रखने के पश्चात ही आरती करें । ऐसा करने से वातावरण में विद्यमान देवता का चैतन्य जीव के भाव के कारण कार्यरत होता है । जीव को इसका अपेक्षित लाभ प्राप्त होने में तथा आगे के कार्य हेतु अपेक्षित, देवता का आशीर्वादरूपी बल प्राप्त होने में सहायता मिलती है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , २५.१.२००५, रात्रि ९.२६)
(यदि किसी व्यक्ति को अनिष्ट शक्तियों का कष्ट हो, तो उसे दूर करने के लिए राई-नमक एवं लाल मिर्च से उसकी नजर उतारते हैं तथा नारियल से उतारा करते हैं । द्वार पर नजर उतारते हैं । इस उतारे में प्रयुक्त नारियल को देहरी के बाहर फोडते हैं; इसलिए कि कष्टदायक तरंगों को पाताल तक संक्रमित करने का उत्तम माध्यम है देहरी । – संकलनकर्ता )
६. औक्षण हेतु आवश्यक सामग्री एवं थाली में उसकी रचना
अ. औक्षण हेतु आवश्यक सामग्री
हलदी-कुमकुम, अक्षत, कपास की बाती, तेल, निरांजन (पंचबातीवाला सकर्ण दीप), सोने की अंगूठी, पूजा की सुपारी आदि ।
आ. थाली में सामग्री की रचना एवं उसका आधारभूत शास्त्र
१. औक्षण की थाली में अपनी बाई ओर किसी भी कार्य को बल देनेवाली आदिशक्ति के प्रतीकस्वरूप हलदी व कुमकुम रखें । हलदी-कुमकुम से प्रक्षेपित सूक्ष्म-गंध की ओर ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओं के पवित्रक शीघ्र आकृष्ट होते हैं ।
२. अंगूठी एवं सुपारी प्रत्यक्ष कार्य करनेवाले शिव के (पुरुषतत्त्वके) प्रतीक हैं; इसलिए उन्हें अपनी दाहिनी ओर रखें ।
३. अक्षत सर्वसमावेशक हैं, इसलिए अक्षत को मध्यभाग अर्थात थाली के केन्द्रबिंदु का स्थान दें ।
४. अक्षत से किंचित आगे; परंतु मध्यभाग में दीपक को स्थान दें । दीपक जीव की आत्मशक्ति के बल पर कार्यरत सुषुम्ना नाडी का प्रतीक है । हलदी-कुमकुम के माध्यम से आदिशक्ति का योग तथा अंगूठी एवं सुपारी के माध्यम से शिव का योग प्राप्त होता है । इनके कारण देवताओं से प्रक्षेपित आशीर्वादात्मक तरंगें अक्षत से जीव की ओर संक्रमित हो पाती हैं । दीपक के माध्यम से कार्यरत सुषुम्ना नाडी के कारण जीवद्वारा अपने हाथ में लिया गया कार्य देवता की कृपा से सफल होता है । इस प्रकार थाली में घटकों की योग्य रचना से जीव को देवता के तत्व का अधिक लाभ प्राप्त होता है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , २८.१.२००५, दोपहर १२.५२)
संकलनकर्ता : ऐसा बताया गया है कि औक्षण की थाली में ‘हलदी-कुमकुम अपनी बाई ओर रखेें’; परंतु ‘पूजा की थाली में घटकों की रचना में ’ बताया गया है कि, ‘हलदी-कुमकुम अपनी दाहिनी ओर रखें’ ।इन दोनों विधानों में समन्वय कैसे साध्य करें ?
पूजा के समय विशिष्ट तत्व को आकृष्ट कर पूजास्थल को शुद्ध करने के उद्देश्य से व्यापक भाव के स्तर पर पूजा की थाली में घटकों की रचना बताई गई है । इस थाली में समाविष्ट घटक रंग व गंध कणों से संबंधित हैं, इसलिए शक्ति वर्धक कार्यकारी रजोगुणी सगुणतत्व इन सब घटकों में से हलदी एवं कुमकुम की ओर संक्रमित होता है । अत: उन्हें जीव की दाहिनी ओर स्थान दिया गया है; परंतु कनिष्ठ स्तर पर औक्षण की थाली में अंगूठी एवं सुपारी के समावेश से वह विशिष्ट कार्यत्व (कार्यतरंगें) हलदी एवं कुमकुम के घटकों की अपेक्षा कनिष्ठ स्तर पर कार्यरत रजोगुण की ओर संक्रमित होता है । हलदी-कुमकुम को जीव की बाई ओर कर अंगूठी एवं सुपारी जैसे प्राबल्य से कार्यरत रजोगुणी घटकों को जीव की दाहिनी ओर स्थान दिया गया है । विशिष्ट विधिमें कार्यरत रजोगुणी उद्देश्य के अनुसार विशिष्ट घटक को जीव की दाहिनी अथवा बाई ओर दर्शाया गया है । – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , २१.११.२००६, रात्रि १०.११)
७. आरती उतारने की पद्धति
अ. एक पीढे के चारों ओर रंगोली बनाएं । जिसकी आरती उतारनी है, उसे (संस्कार्य व्यक्ति को) पीढे पर बिठाएं ।
आ. संस्कार्य व्यक्ति के मस्तक पर मध्यमा (बीचवाली उंगली) सेें गीला कुमकुम लगाकर उस पर अक्षत लगाएं ।
इ. निरांजन की थाली उठाकर, उसमें सेें अंगूठी (अथवा कोई स्वर्ण आभूषण) एवं सुपारी को हाथ में लें और व्यक्ति के चेहरे के चारों ओर आगे दिए अनुसार घुमाएं ।
इ. १. सर्वप्रथम व्यक्ति के आज्ञाचक्र के स्थान पर अंगूठी एवं सुपारी को एक साथ स्पर्श करवाएं ।
इ. २ . व्यक्ति के दाहिने कंधे से (घडी के कांटों की दिशा में) अंगूठी एवं सुपारीसे आरती उतारना आरम्भ कर, बाएं कंधेतक आएं । इसी प्रकार विपरीत दिशा सेें आरती उतारते हुए दाहिने कंधेतक आएं । ऐसे तीन बार करें । प्रत्येक बार अंगूठी एवं सुपारी को थाली सेे स्पर्श करवाएं ।
ई. आरती थाली से संस्कार्य व्यक्ति की आरती उतारें ।
उ. संस्कार्य व्यक्ति को मिठाई खिलाएं ।
ऊ. उसकी मंगल कामना के लिए प्रार्थना करें ।
ए. आरती की थाली नीचे अक्षत पर रखें ।
८. औक्षण के संदर्भ में शंकानिरसन
अ. जन्मदिन पर जीव का औक्षण करते समय
जीव के अनाहतचक्र से थाली घुमाकर आज्ञाचक्र तक लाने का भावार्थ क्या है ?
जीव की उन्नति अनाहतचक्र से आज्ञाचक्रतक हो । अनाहतचक्र भावना का प्रतीक है, जबकि आज्ञाचक्र भाव का प्रतीक है । आरती उतारते समय उद्देश्य यही रहता है कि, जीव की भावना कम होकर उसके भावमेें वृद्धि हो अर्थात उसके जीवन का मार्गक्रमण माया से ब्रह्म की ओर हो । माया का आकर्षण कम होकर ब्रह्म की ओर जाने से ही जीव की उन्नति होती है । ऐसा होने पर ही हम सोच सकते हैं कि, वास्तविक अर्थ में जीव का विकास हुआ है और हम उसका जन्मदिन मना सकते हैं । – ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यम से, १३.५.२००५, रात्रि ८.०४ से ८.२२)
आ. संतों का औक्षण करते (आरती उतारते) समय केवल एक ही बार आरती
क्यों उतारें ? (संत शिवदशा में होते हैं, इसलिए उनकी आरती एक ही बार उतारते हैं)
संतों की औक्षणविधि में उनकी आरती एक ही बार उतारी जाती है । ऐसा करना उनकी शिवदशा के कार्य का प्रतीक है । शिवदशा में स्थित संत निर्गुण के बल पर एक निमिषमात्र में संपूर्ण ब्रह्मांड की परिक्रमा कर सकते हैं । औक्षण का एक ही गोलाकार फेरा संतों द्वारा ब्रह्मांड के एक फेरे का प्रतीक है । उसी प्रकार संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्गुण के बल पर किए गए क्षणभर के उनके कार्य का यह द्योतक है । औक्षण का एक ही फेरा द्वैत से अद्वैत की ओर ले जानेवाली संतों की कार्यरत ज्ञानशक्ति का प्रतीक है । ऐसी असीमित क्षमतावाले सगुण ईश्वररूपी अंश का यह सम्मान है ।
आरती उतारने (औक्षण) से पूर्व संतों की पाद्यपूजा कर मन से उनकी शरण जाना कर्मयोग का प्रतीक है । कुमकुम-तिलक लगाकर एवं हार अर्पण कर उनके सगुण ईश्वरीय तत्त्व की पूजा करना भक्तियोग का प्रतीक है । शाल एवं श्रीफल देकर उनका सम्मान करना, सत्कार करनेवाले जीव के वैराग्ययोग का प्रतीक है तथा एक ही बार संतों के औक्षण द्वारा उच्चतम निर्गुण ईश्वरीय तत्त्व की कृपा प्राप्त करना ज्ञानयोग का अर्थात श्रेष्ठ मुक्ति का प्रतीक है । – एक विद्वान [सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २८.१.२००५, दिन ११.४२]