नामजप के लाभ

ईश्वर का नाम, साधना की नींव है । अपने जीवन में नामजप से शारीरिक एवं मानसिकदृष्टि से क्या-क्या लाभ होते हैं, यह देखेंगे ।

 

सामान्य लाभ

१. मद्य के दुष्परिणाम एवं नामजप के सुपरिणाम

वर्तमान में अनेक लोग दुःख को भूलने के लिए मद्यपान करते हैं; परंतु मद्यपान दुःख को भूलने का साधन नहीं है । दुःख के परिहार के लिए नामजप करना ही उपयुक्त है, यह आगे दी गई तुलना से स्पष्ट होगा ।

अ. ‘मद्य संकट को आमंत्रित करता है, जबकि नाम संकट का निवारण करता है ।

आ. मद्य से रोग होते हैं, जबकि नाम से रोगों का निवारण होता है । नाम, भवरोग का निवारण करता है ।

इ. मद्य से दीनता आती है, जबकि नाम से लीनता ।

ई. मद्य से दुःख प्राप्त होता है, जबकि नाम से चिरंतन सुख (आनंद) ।

उ. मद्य से अधोगति प्राप्त होती है, किंतु नाम से ऊध्र्वगति ।

ऊ. मद्य मनुष्य को मनुष्यत्व से गिरा देता है, जबकि नाम से मनुष्य ईश्वरस्वरूप हो जाता है ।

२. नाम का पुण्य दूसरे को अर्पित करनेपर उसका कार्य सफल होना

एक ने अपने मित्र का महत्त्वपूर्ण कार्य सफल हो इस हेतु अपना एक कोटि नामजप उसके हाथपर जल छोडकर अर्पित किया । इससे उसका कार्य बन गया ।’ (१८)

 

शरीरशास्त्र की दृष्टि से लाभ

१. व्याधि का स्वरूप प्रकट होने से पूर्व ही उसके लक्षण नामजप के कारण समझ में आना

शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक कष्ट ३० प्रतिशत तक बढने के पश्चात ही उसके शारीरिक अथवा मानसिक लक्षण दिखाई देने लगते हैं । इसके विपरीत, नामजप के कारण व्याधि का स्वरूप प्रकट होने से पूर्व ही उसके लक्षण समझ में आने लगते हैं । अर्थात्, निकट भविष्य में कष्ट होनेवाला हो अथवा वर्तमान में अप्रकट स्वरूप में कष्ट हो रहा हो, तो नामजप करते समय शारीरिक एवं मानसिक स्तरपर विविध प्रकार के कष्ट होने लगते हैं । इसका कारण यह है कि व्याधि से पीडित अवयवोंपर नामजप से अच्छी शक्ति की विकिरणें (रेडिएशन) देने समान कार्य होता है । कष्ट का स्तर ३० प्रतिशत से नीचे होनेपर चिकित्सक उसका निदान नहीं कर पाते । यथा, मनोविकार ३० प्रतिशत होने के उपरांत ही यह रोग चिकित्सकों की समझ में आता है । इसके विपरीत, १० से ३० प्रतिशततक कष्ट होनेपर, (उदा. मनोविकार) नामजप के कारण वह ध्यान में आता है ।

२. मनःशांति से होनेवाले शारीरिक लाभ

नामजप से मन शांत रहनेपर मानसिक तनाव से होनेवाले शारीरिक (सायकोसोमैटिक) विकार नहीं होते एवं शरीर स्वस्थ रहता है ।

३. कुछ विकारोंपर नामजप उपयुक्त

शरीर के कुछ विकार एवं उनपर उपाय के रूप में उपयुक्त नामजप आगे दिया गया है ।

अ. शरीर में निरुपयोगी द्रव्य संचित होने से मूत्राशय का विकार, खांसी अथवा शरीर में सूजन आई हो, तो सूर्यदेव का जप करें । इस जप के कारण मन में जो उष्णता निर्मित होती है, वह उस अवयव में प्रवेश कर उसमें संचित निरुपयोगी द्रव्य को सुखा डालती है ।

आ. किसी के शरीर में जलन (दाह) हो अथवा मानसिक स्थिति अतिक्रोधायमान एवं तनावग्रस्त हो, तो चंद्रदेवता का शीतलता देनेवाला ‘श्री चंद्राय नमः ।’ नाम जपें ।

इ. रक्तस्राव के (रक्त बहनेके) विकार में ‘श्री मंगलाय नमः ।’ यह मंगलदेव का अथवा चंद्रदेव का जप उपयुक्त होता है ।

ई. गठिया में गायत्रीमंत्र का जप करना आवश्यक होता है ।

कोई रोगी जप करने में असमर्थ हो, तो उसके सगे-संबंधी, उपाध्याय अथवा पुरोहित उसके लिए वह जप करें ।

४. नामजप का पुण्य अर्पित करनेपर मृत्युशय्यापर पडा रुग्ण ठीक होना

‘एक धनवान की पत्नी की दशा गंभीर थी । विशेषज्ञ चिकित्सकने (डॉक्टरने) उसे ठीक करने के लिए प्रयत्नों की पराकाष्ठा की । उसे महंगी औषधियां दीं, रक्त दिया, सलाईन लगाया, प्राणवायुपर (ऑक्सिजनपर) रखा, तब भी उसमें कोई सुधार नहीं हुआ । चिकित्सकने उसके जीवित रहने की आशा छोड दी । तब, वह धनवान अपने एक धार्मिक मित्र के पास गया और चिकित्सकद्वारा किए गए सभी उपचार उसे बताए । अब सारे उपाय समाप्त हो गए; यह मानकर वह निराश हो गया था । तब उस धार्मिक मित्रने उससे कहा, ‘‘इस प्रकार निराश मत हो ।’’ तत्पश्चात् उस मित्रने अपने एक कोटि नामजप का पुण्य उस धनवान के हाथपर पानी छोडकर उसे अर्पित कर दिया । एक सप्ताह के भीतर ही चिकित्सकने उस धनी मनुष्य की पत्नी के स्वास्थ्य में विलक्षण सुधार पाया और वह शीघ्र ठीक हो गई । इससे चिकित्सक विस्मित हुए । पैसा एवं चिकित्सक का ज्ञान जो नहीं कर सका, वह नामदान से हो गया ।

५. नामजप ही सर्व रोगोंपर उपचार !

एक व्यक्ति ने प.पू. काणे महाराज से पूछा, ‘मुझे अत्यंत शारीरिक कष्ट होता है; क्या करूं ?’ इसपर प.पू. महाराज बोले, ‘नामजप ही सर्व रोगों का उपचार है । नामजप बहुत बढाइए और नामजप करते हुए मृत्यु को प्राप्त कीजिए !’

६. वासना और दुःख समाप्त करने के लिए नामजप करें !

‘वासना का सुख, अर्थात् पाप । जबतक सुख की इच्छा है, तबतक दुःख है । हम आनंदस्वरूप हैं; इसलिए जहां वासना (सुख की इच्छा) समाप्त होती है, वहां दुःख समाप्त होता है और आनंद मिलता है । इसके लिए नामजप कीजिए ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.

 

मानसशास्त्र की दृष्टि से लाभ

व्यक्ति के दो देह होते हैं – स्थूलदेह एवं सूक्ष्मदेह । स्थूलदेह अर्थात् सामान्यरूप से हम जिसे शरीर कहते हैं । लिंगदेह उन्नीस घटकों से बना होता है – पंचसूक्ष्मज्ञानेंद्रियां, पंचसूक्ष्मकर्मेंद्रियां, पंचप्राण, मन (बाह्यमन), चित्त (अंतर्मन), बुद्धि एवं अहं (जीव) । पंचप्राण इन सभी को कार्य करने के लिए शक्ति की आपूर्ति करते हैं । चित्त में (अंतर्मनमें) लेन-देन, वासना, रुचि-अरुचि, स्वभाव इत्यादि केंद्र होते हैं ।

१. मनोविकारोंपर उपचार

अधिकांश मनोविकारों में नामजप से लाभ होता है । ‘निरर्थक विचार (ऑब्सेशन)’ इस मनोविकारपर तो नामजप रामबाण उपाय है ।

२. अंतर्मुखता एवं अंतर्निरीक्षण

अंतःकरण में सद्गुण बढाने के लिए अंतर्मुखता एवं अंतर्निरीक्षण दोनों की आवश्यकता होती है । नामजप की प्रक्रिया में दोनों बढने लगते हैं । अंतर्मुख हुए बिना खरा नामजप हो ही नहीं सकता । हमारा मन नामजप कर रहा है अथवा नहीं, यह जानने के लिए अंतर्मुख होना ही पडता है । मन नामजप में अधिक समय नहीं टिकता, वह अन्य कल्पनाएं करने लगता है, यह ध्यान में आनेपर उसे पुनः नामजपपर लाना पडता है । नामजपपर लौटने का कार्य करते समय समझ में आता है कि वह किस विचार एवं विकार की ओर आकृष्ट हुआ था । इसी को ‘अंतर्निरीक्षण’ कहते हैं ।

३. मन की एकाग्रता बढना

नामजप से चित्तपर ‘नामका’ संस्कार होने से चित्त के विविध केंद्रों के संस्कार घटने में सहायता मिलती है । चित्त के केंद्रों में संस्कार जितने अल्प, चित्त से मन की ओर आनेवाली संवेदनाएं भी उतनी ही अल्प होती हैं एवं मन की एकाग्रता बढती है । सनातन संस्थाद्वारा संचालित बालसंस्कारवर्ग की एक बालसाधिका को नामजप के कारण हुआ एकाग्रता का अनुभव आगे दिया गया है, जिससे इस सूत्र का महत्त्व समझ में आएगा ।

नामजप के कारण मन की एकाग्रता बढकर पढाई अच्छी होना : ‘बालसंस्कार वर्ग के साधकों ने मुझे सिखाया कि नामजप कैसे करें, किसका करें एवं उससे लाभ क्या है । मैंने घर लौटकर नामजप किया । तत्पश्चात् मैं पढाई के लिए बैठी । उसी समय मेरे चाचाजी ने दूरदर्शन यंत्र लगाया; किंतु मेरा ध्यान एक बार भी उस ओर नहीं गया । मेरा मन पढाई में ही मग्न रहा ।’ – कु. श्वेता दिलीप पारठे, बालसंस्कारवर्ग, वडाळा, मुंबई, महाराष्ट्र.

४. मौन की भांति होनेवाले लाभ

नामजप करना एक प्रकार का मौन ही है । इसलिए मौन के निम्नलिखित मानसशास्त्रीय लाभ नामजप से भी होते हैं ।

अ. सांसारिक समस्याएं न्यून होना : अधिकांश सांसारिक समस्याएं बोलने से उत्पन्न होती हैं । स्वाभाविक है कि मौन रहने से वे उत्पन्न नहीं होंगी ।

आ. झूठ बोलना टल जाता है ।

इ. षड्रिपुओंपर नियंत्रण : क्रोधादि भावना व्यक्त न करने से धीरे-धीरे उनपर नियंत्रण आता है ।

 

नामजपके संदर्भ में श्रीमद भागवत में एक कथा है ।

कान्यकुब्ज (कन्नौज) में एक ब्राम्हण रहता था । उसका नाम था अजामिल । अजामिल बडा वैज्ञानिक था । शील, सदाचार और सद्गुणों का तो वह भण्डार ही था । ब्रह्मचारी, विनयी, जितेंद्रिय, सत्यनिष्ठ, मंत्रवेत्ता और पवित्र भी था । उसने गुरु, संत-महात्मा सबकी सेवा की थी । एक बार अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहां से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर वापस आया । लौटते समय उसने मदिरा पीकर एक व्यक्ति को किसी वेश्या के साथ विहार करते हुए देखा ।

अजामिल ने पाप किया नहीं केवल आंखों से देखा और काम के वश हो गया । अजामिल ने अपने मन को रोकने का बहुत प्रयास किया किंतु असफल रहा । अब वह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिंतन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया । अजामिल सुंदर-सुंदर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएं, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता । यहां तक कि उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया । इस वेश्या के चक्कर में उसने अपनी कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया और उस वेश्या के साथ रहने लगा । यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहां कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता । उस वेश्या के बडे कुटुंब का पालन करने में ही वह व्यस्त रहता ।

एक बार कुछ संत उसके गांव में आए । गांव के बाहर संतों ने कुछ लोगों से पूछा कि भैया, किसी ब्राह्मण का घर बताइए हमें वहां पर रात व्यतीत करनी है । इन लोगों ने संतों के साथ उपहास किया और कहा- हमारे गांव में तो एक ही श्रेष्ठ ब्राह्मण है जिसका नाम है अजामिल । वह भगवान का इतना बडा भक्त है कि गांव के बाहर ही रहता है ।

अब संत जन अजामिल के घर पहुंचे और द्वार खटखटाया- ‘भक्त अजामिल द्वार खोलो ।’ जैसे ही अजामिल ने दरवाजा खोला तो संतों के दर्शन करते ही मानो आज अपने पुराने अच्छे कर्म उसे याद आ गए । अजामिल ने सुंदर भोजन तैयार करवाया और संतों को करवाया । उसके उपरांत संतों ने सुंदर कीर्तन प्रारंभ किया और उस कीर्तन में अजामिल भी बैठा । सारी रात कीर्तन चला और अजामिल की आंखों से खूब आंसू गिरे । मानो आज आंखों से आंसू नहीं सारे पाप धुल गए हों । सारी रात भगवान का नाम लिया । सुबह जब संत जन चलने लगे तो अजामिल ने कहा- महात्माओं, मुझे क्षमा कर दीजिए । मैं कोई भक्त वक्त नहीं हूं, मैं तो महापापी हूं । मैं वेश्या के साथ रहता हूं और मुझे गांव से बाहर निकाल दिया गया है । केवल आपकी सेवा के लिए मैंने आपको भोजन करवाया, नहीं तो मुझसे बडा पापी कोई नहीं है ।

संतों ने कहा- अरे अजामिल ! तूने ये बात हमें कल क्यों नहीं बताई, हम तेरे घर में रुकते ही नहीं । अब तूने हमें आश्रय दिया है तो चिंता मत कर । ये बता तेरे घर में कितने बालक हैं । अजामिल ने बता दिया कि महाराज 9 बच्चे हैं और अभी ये गर्भवती है । संतों ने कहा कि इस बार जो तेरे संतान होगी वो तेरा पुत्र होगा और तू उसका नाम नारायण रखना, तेरा कल्याण हो जाएगा !

संत जन आशीर्वाद देकर चले गए । समय बीता उसके पुत्र हुआ, नाम रखा नारायण । अजामिल अपने नारायण पुत्र में बहुत आसक्त था । अजामिल ने अपना संपूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था । हर समय अजामिल कहता था नारायण भोजन कर लो, नारायण पानी पी लो । नारायण तुम्हारे खेलने का समय है तुम खेल लो । हर समय नारायण नारायण करना प्रारंभ हुआ । इस तरह अट्ठासी वर्ष बीत गए । वह अतिशय बूढा हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुंची है ।

अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के संबंध में ही सोचने-विचारने लगा । इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिए अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आए हैं । उनके हाथों में फांसी की रस्सी है, मुंह टेढे-मेढे हैं और शरीर के रोंगटे खडे हैं । उस समय बालक नारायण वहां से कुछ दूरी पर खेल रहा था । यमदूतों को देखकर अजामिल डर गया और अपने पुत्र को कहता है नारायण! नारायण मेरी रक्षा करो! नारायण मुझे बचाओ! भगवान के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बडे वेग से झटपट वहां आ पहुंचे । उस समय यमराज के दूत दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे । विष्णुदूतों ने उन्हें बलपूर्वक रोक दिया ।

उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा ‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करनेवाले तुम लोग हो कौन ? तुम किसके दूत हो, कहां से आए हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो ?

भगवान के पार्षदों ने कहा यमदूतों ! इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्‍चित कर लिया है । क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है । जिस समय इसने ‘नारायण’, इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्‍चित हो गया । तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ । इसने सारे पापों का प्रायश्‍चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान के नाम का उच्चारण किया है । इस प्रकार भगवान के पार्षदों ने अजामिल को यमदूतों के पाश से छुडाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया । भगवान की महिमा सुनने से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया । अब उसे अपने पापों को याद करके बडा पश्‍चाताप होने लगा । अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा ‘अरे, मैं कैसा इंद्रियों का दास हूं ! धिक्कार है ! मुझे बार-बार धिक्कार है ! मैं संतों के द्वारा निंदित हूं, पापात्मा हूं ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया ! मैंने यमदूतों के डर से अपने पुत्र नारायण को पुकारा और भगवान के पार्षद प्रकट हो गए यदि मैं वास्तव में नारायण को पुकारता तो क्या आज श्री नारायण मेरे सामने प्रकट नहीं हो जाते?

अब अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो गया । सबसे संबंध और मोह को छोडकर वे हरिद्वार चले गए । उस देवस्थान में जाकर वे भगवान के मंदिर में आसन पर बैठ गए और उन्होंने योग मार्ग का आश्रय लेकर अपनी सारी इंद्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला दिया । इसके उपरांत आत्मचिंतन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक कर लिया तथा अनुभव स्वरूप भगवान के धाम को परब्रह्म से जोड दिया । इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान के स्वरूप में स्थित हो गई, तब उनके सामने वे ही चारों पार्षद खडे दिखे । उनका दर्शन पाने के उपरांत उन्होंने उस तीर्थस्थान में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और उन्हें तत्काल भगवान के पार्षदों का स्वरूप प्राप्त हो गया । अजामिल भगवान के पार्षदों के साथ स्वर्णिम विमान पर आरूढ होकर आकाश मार्ग से भगवान लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ लोक को चले गए ।

शुकदेव जी महाराज कहते हैं – परीक्षित ! यह इतिहास अत्यंत गोपनीय और समस्त पापों का नाश करने वाला है । जो पुरुष श्रद्धा और भक्ति के साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरक में कभी नहीं जाता । यमराज के दूत तो आंख उठाकर उसकी ओर देख भी नहीं सकते । देखो अजामिल जैसे पापी ने मृत्यु के समय पुत्र के बहाने भगवान नाम का उच्चारण किया ! उसे भी वैकुण्ठ की प्राप्ति हो गई ! जो लोग श्रद्धा के साथ भगवन्नाम का उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ नामजपका महत्त्व एवं लाभ

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