देवालय का महत्त्व

‘देवालय’ का अर्थ है, देवता का आलय, अर्थात जहां साक्षात भगवान का वास है । दर्शनार्थी देवालय में इस श्रद्धा से जाते हैं कि वहां जाने पर उनकी प्रार्थना भगवान के चरणों में अर्पित होती है और उन्हें मन:शांति का अनुभव होता है । ‘दर्शन’ अर्थात मन में ऐसा भाव रखना कि देवालय की मूर्ति मेरे अंतर का मूल चैतन्य है ?

भक्तियोगानुसार महत्त्व

१. देवालय में दर्शन करने से वहां की सात्विकता ग्रहण कर सकते हैं तथा वहां का सात्विक वातावरण देवता के प्रति भक्तिभाव बढाने में सहायक होता है ।

२. देवतापूजन, अभिषेकादि धार्मिक विधि तथा आरती के समय देवता के पवित्रक (सूक्ष्मातिसूक्ष्म चैतन्यकण) देवता की मूर्ति की ओर अत्यधिक मात्रा में आकर्षित होते हैं । उस समय देवालय में उपस्थित भक्तों को उन पवित्रकों का लाभ होता है ।

३. स्वयंभू एवं जागृत देवस्थानों में (उदा. बारह ज्योतिर्लिंग) तथा संतों द्वारा निर्मित देवालयों में शाक्ति एवं चैतन्य की मात्रा अधिक होने से, ऐसे देवस्थानों में दर्शन हेतु जाना भक्तों के लिए अधिक लाभदायी होता है ।

संतोंद्वारा निर्मित देवालयों में वहां की
शाक्ति एवं चैतन्य के फलस्वरूप हुई एक अनुभूति

गोंदवले के श्रीराम देवालय में शक्ति एवं चैतन्य के कारण प्रथम कष्ट होना, तदुपरांत सिर पर आया दबाव न्यून होना एवं नामजप अपनेआप प्रारंभ होना : ‘एक बार हम गोंदवले गए । वहां पर प.पू. गोंदवलेकर महाराजजी द्वारा निर्मित प्रभु श्रीराम के देवालय में पग रखते ही मुझे उबासी आने लगी । मेरे नेत्र लाल हो गए । उसके उपरांत मेरे माथे पर आया दबाव न्यून हुआ एवं मेरा नामजप अपनेआप प्रारंभ हुआ । हम देवालय में मात्र पांच मिनट ही थे । उस समय ‘संतों द्वारा निर्मित देवालय में कितनी शक्ति एवं चैतन्य होता है’ इसकी अनुभूति मुझे हुई । – एक साधिका

(उपरोक्त अनुभूति का आध्यात्मिक स्तर पर किया गया विश्लेषण : साधिका को अनिष्ट शक्ति का कष्ट था । साधिका में विद्यमान अनिष्ट शक्ति को देवालय की सात्विक शक्ति एवं चैतन्य सहन नहीं हुए तथा उसका प्रकटीकरण होने लगा । परिणामस्वरूप साधिका को उबासियां आने लगीं एवं उनके माध्यम से उसकी काली शक्ति निकलने लगी । साधिका में विद्यमान अनिष्ट शक्ति प्रकट होने का प्रयत्न कर रही थी, इसीलिए उसके नेत्र लाल हुए । – संकलनकर्ता)

 

ज्ञानयोगानुसार महत्त्व

‘द्रष्टा दृश्यवशाद्बद्धः दृश्याभावे विमुच्यते ।’ अर्थात ‘द्रष्टा (जीव) जिस दृश्य के कारण बद्ध होता है एवं जिस दृश्य के अभाव में अथवा लोप से वह मुक्त होता है’, उदा. अपनी रुचि का व्यंजन दिखाई दे, तो खाने की इच्छा होती है, अन्यथा ऐसा नहीं होता; परंतु दृश्य तो एक के उपरांत एक आते ही रहते हैं, फिर दृश्यों का अभाव कब होगा ? ऐसी स्थिति में द्रष्टा के लिए मुक्ति का एक ही मार्ग संभव है, और वह है, दृष्टि के समक्ष ऐसे दृश्य लाए जाएं जिनसे बद्ध होने पर भी उसे मुक्त होने में सहायता मिले अर्थात उसकी वृत्ति तम से रज एवं रज से सत्त्व में प्रवेश करती रहे । जिन दृश्यों से बद्ध होने पर द्रष्टा मुक्त हो सकता है, ऐसे दृश्यों में से एक है ‘देवालय’ । देवालय में अध्यात्मवृत्ति के लिए पोषक ईश्वरावतारों की जन्म-कर्म कथाओं एवं लीलाओं तथा उनके भक्तों का गुणगान करनेवाले प्रवचनों एवं भजनों का प्रस्तुतिकरण होता है । उनके श्रवण से सुननेवाले का मनन होता है और उसकी परिणिति निजध्यास में होती है, फलस्वरूप उसे आत्मसाक्षात्कार में सहायता मिलती है ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.

देवालय के कारण दशदिशाओं का चैतन्यमय होना

‘प्रत्यक्ष ईश्वरीय ऊर्जा के आकर्षण, प्रक्षेपण एवं संचारण के केंद्र होते हैं ‘देवालय’ । इसलिए देवालय से ईश्वरीय ऊर्जा निरंतर आकर्षित होती है तथा उसका प्रक्षेपण सर्व दिशाओं में होता है । इस प्रकार सगुण रचनाक्षेत्र में संचारण के माध्यम से वायुमंडल की एवं जीव की शुद्धि होती है ।’ – एक ज्ञानी (श्री. निषाद देशमुख के माध्यम से , ४.१.२००७, सायं. ६.५३)

१. अधोदिशा : ‘देवालय की नींव भरते समय किए जानेवाले शिलान्यास के फलस्वरूप देवालय की अधोदिशा में वातावरण चैतन्यतरंगों से युक्त होता है ।

२. अष्टदिशा : देवालय में देवता की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा के कारण अष्टदिशाएं चैतन्यमय बनती हैं ।

३. ऊध्र्वदिशा : देवालय के कलश से फुवारे समान प्रक्षेपित सात्विकता से उसके समीप के क्षेत्र की ऊध्र्वदिशा का वायुमंडल शुद्ध होता है । साथ ही, दशदिशाओं से प्रवेश करनेवाली अनिष्ट शक्तियों से गांव की रक्षा होने में सहायता होती है ।’ – एक विद्वान [ (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , १४.१.२००५़]

हिन्दुओं के देवालयों के कारण ग्रहणकाल में पृथ्वी की ओर आनेवाली काली शक्ति से भारित रज-तमात्मक तरंगें पृथ्वीतल से ५ कि.मी. ऊंचाई पर ही नष्ट होना तथा कुछ पंथों के प्रार्थनास्थलों द्वारा ग्रहणकाल में रज-तमात्मक तरंगें ग्रहण की जाना : ‘ग्रहणकाल में पृथ्वी पर काली शाक्ति से भारित तरंगें आती हैं । हिंदुओं के देवालयों में प्रतिष्ठित देवताओं की ओर से प्रक्षेपित दैवीतत्त्व, चैतन्य, सात्विकता एवं मारक शाक्ति के कारण ये रज-तमात्मक तरंगें पृथ्वीतल से ५ कि.मी. ऊंचाई पर ही नष्ट होती हैं एवं पृथ्वी पर उनका संभावित अनिष्ट परिणाम घट जाता है । इसके विपरीत, कुछ पंथों के प्रार्थनास्थलों में काली शाक्ति का संचय होता है एवं उनके द्वारा निरंतर रज-तमात्मक तरंगों का प्रक्षेपण होता रहता है । ग्रहणकाल में प्रक्षेपित काली शक्ति से भारित रज-तमात्मक तरंगें इन प्रार्थनास्थलों द्वारा त्वरित ग्रहण की जाती हैं एवं इन प्रार्थनास्थलों में संचित काली शक्ति का संचयस्तर ५ से १० प्रतिशत बढता है ।’ – ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यमसे ४.१०.२००५, दोपहर २.५० से ३.०८ तक)

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘देवालय में दर्शन कैसे करें ?’ (भाग १)

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