अनुपम प्रीति से सभी को एकसमान ईश्वरप्राप्ति के धागे में पिरोनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

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परात्पर गुरु डॉक्टरजी के अनपेक्षित दर्शन से आनंदित साधक

‘सनातन संस्था के मार्गदर्शन में साधना करनेवाले अनेक साधकों ने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को एक बार भी नहीं देखा है । ऐसा होते हुए भी वे सभी परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा बताई साधना अत्यंत श्रद्धापूर्वक कर रहे हैं । बाहर मोहमाया के प्रबल जाल होते हुए भी केवल परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी पर श्रद्धा के कारण सनातन संस्था के साधक सब मोह त्याग कर ईश्वरप्राप्ति के लिए साधना कर रहे हैं । आज समाज में साम्यवाद, निधर्मीवाद, नास्तिकतावाद संजोना, प्रतिष्ठा की बात बन चुकी है । ऐसा होते हुए भी सनातन संस्था के साधक स्वयं धर्मनिष्ठ रहकर समाज को भी धर्माधिष्ठित होने के लिए मार्गदर्शन कर रहे हैं । वे नास्तिक, आधुनिकतावादियों के विरोध का सक्षमरूप से सामना करने के लिए भी तैयार हैं । सनातन संस्था के संपर्क में आने के पश्चात इस प्रवाह के विरुद्ध तैरने के लिए बल कौन देता है ?

सनातन संस्था के कठिन काल में भी समाज में रहकर, साधना-सेवा करते हुए समाज की टीका-टिप्पणी, परिचितों के ताने, कभी-कभी घर के सदस्यों का वैचारिक विरोध सहन करते हुए भी सनातन संस्था द्वारा बताए गई साधना से साधक एकनिष्ठ हैं । साधना करने से साधकों को वातावरण की अनिष्ट शक्तियों का तीव्र कष्ट भी भोगना पड रहा है । असहनीय कष्ट भोगने पर भी साधकों ने साधना करनी नहीं छोडी । इसके विपरीत, कष्ट में भी साधक जीतोड साधना कर रहे हैं । यह सब किस कारण हो रहा है ? ऐसी कौनसी शक्ति है, जो साधकों को परात्पर गुरु डॉक्टरजी से जोडकर रखती है ? साधकों को साधना से जोडकर रखनेवाली, कठिन काल में मनोबल देनेवाली वह शक्ति है परात्पर गुरु डॉक्टरजी की साधकों के प्रति अपार प्रीति ! समष्टि के प्रति उच्च प्रीति, यह परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की एक अभूतपूर्व विशेषता है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी समान अवतारी समष्टि संतों के संदर्भ में उनकी प्रत्येक उक्ति, कृति और विचारों से समष्टि कल्याण की लगन के दर्शन होते हैं । समष्टि के प्रति प्रीति के कारण सभी वात्सल्यमय कृपाछत्र अनुभव कर पाते हैं । इसी प्रीति के चैतन्यमय धागे से आज समस्त सनातन परिवार दृढता से बंधा है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की समष्टि पर प्रीति का अल्पसा परिचय पाठकों को करवाने का प्रयत्न कर रहे हैं । श्रीगुरु की महिमा का वर्णन करने के लिए ईश्वर ही बुद्धि एवं भक्ति प्रदान करे, ऐसी उनके चरणों में प्रार्थना है !

 

१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की प्रीति की व्यापकता

१ अ. संगठनात्मक, प्रांतीय, धार्मिक बंधन नहीं !

परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रीति को संगठनात्मक, प्रांतीय अथवा धार्मिक, ऐसा कोई भी बंधन नहीं हैं । सनातन संस्था के साधकों की साधना अच्छी हो, इसके लिए वे जितने प्रयत्न करते हैं, उतने ही प्रयत्न वे अन्य संगठनों के कार्यकर्ता साधना करें, इसके लिए भी करते हैं । उन्होंने समय-समय पर साधकों को अडचन में आए हिन्दुत्वनिष्ठों को आधार देने के विषय में बताया है । विदेश से हिन्दू धर्म के विषय में समझने आए अहिन्दू जिज्ञासुओं का हिन्दू धर्म के विषय में शंकाओं का उन्होंने घंटों तक समाधान किया है ।

१ आ. विरोधकों के विषय में भी व्यक्तिगत कुंठा नहीं !

सनातन संस्था का अनेकों ने अनेक मार्गों से विरोध किया । उन सभी विरोधियों के विषय में भी उनके मन में कोई भी व्यक्तिगत बैर नहीं । ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करनेवाले साधकों को कष्ट देने से महापाप लगता है । वह पाप उस व्यक्ति को न लगे, इसके लिए ‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकों से उनका प्रतिवाद किया जाता है । ‘उनकी चूक उनके ध्यान में आए और उनका नैतिक पतन टल जाए’, ‘विरोधकों की भी हानि न हो’, यह विचार भी उनकी प्रीति ही दर्शाता है !

१ इ. विकल्पों के कारण सनातन छोडकर गए साधकों के प्रति भी अपनापन

साधना से विमुख हुए साधकों के प्रति भी उनके मन में कभी भी कलुषितता निर्माण नहीं होती । विकल्पों के कारण दूर चले गए साधक कुछ काल उपरांत पुन: लौट आने पर, परात्पर गुरु डॉक्टरजी उतनी ही सहजता से उन्हें अपना लेते हैं ।

 

२. परात्पर गुरु की प्रीति की विशेषताएं

२ अ. कुछ क्षणों के सान्निध्य में भी सामनेवाले को अपना बना लेना

परात्पर गुरु डॉक्टरजी के केवल एक बार संपर्क में आया व्यक्ति भी उनका हो जाता है । ऐसा नहीं है कि इसे केवल साधकों ने ही अनुभव किया है, अपितु समाज के धर्माभिमानियों एवं अन्य संप्रदायों के संतों ने भी अनुभव किया है । जिज्ञासु, साधक एवं धर्माभिमानियों को भी वे इतना प्रेम देते हैं, अपनेपन से बातें करते हैं कि पता ही नहीं चलता कि वे कब उनके हो गए । बाहर के कुछ संत एवं धर्माभिमानियों को भी आश्रम उनका ननिहाल लगता है । इसका कारण है आश्रम में कदम-कदम पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा बरसाई प्रीति ! वास्तव में संपूर्ण आश्रम परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रीति के स्पंदनों से ओत-प्रोत है और वही स्पंदन बाहर के संत एवं धर्माभिमानियो में आश्रम के प्रति अपनापन निर्माण करते हैं ।

२ आ. स्वयं समान ही प्रीति अन्यों में भी निर्माण करना

परात्पर गुरु डॉक्टरजी की विशेषता अर्थात उनमें विद्यमान प्रीति सनातन संस्था के सहस्रों साधकों में निर्माण की है । अपने मूल निवास से अनेक किलोमीटर दूर जाकर सेवा करनेवाले सनातन संस्था के साधक आज अनोखी कुटुंबभावना से एकदूसरे से जुडे हैं । वर्तमान में दो सगे भाइयों की भी एकदूसरे से नहीं पटती, ऐसे में सनातन संस्था के आश्रमों में सैकडों साधक प्रेम से हिल-मिल कर एकत्र रहते हैं । इसका कारण है परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने अपनी प्रीति का अंश साधकों पर अंकित किया है । गत अनेक वर्षों से परात्पर गुरु डॉक्टरजी अपने निवासी कक्ष से बाहर नहीं निकले । ऐसे समय पर उनके द्वारा समय-समय पर बताए साधना के सूत्रों के आधार पर सनातन संस्था के मार्गदर्शक साधक एवं संत सर्वत्र के साधकों को साधना के विषय में मार्गदर्शन कर रहे हैं । इन सभी माध्यमों से भी साधकों को परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रीति ही अनुभव होती है । उनकी प्रीति को स्थल-काल का कोई बंधन नहीं ।
परात्पर गुरु डॉक्टरजी की जैसे संत, साधक, धर्माभिमानी, समाज पर प्रीति है, उसीप्रकार अब साधक भी समाज में प्रसार करते समय प्रेमभाव से सभी को अपना बना लेते हैं ।

२ इ. अपना सर्वस्व साधकों के लिए समर्पित कर भी साधकों का अपने में न अटकाते हुए ईश्वरीय तत्त्व से एकरूप होने की सीख देना

समष्टि कल्याण का कार्य आरंभ होने से परात्पर गुरु डॉक्टर पर अनिष्ट शक्तियों के अनेक आक्रमण होते हैं । उनकी देह देवासुर युद्ध की युद्धभूमि ही हो गई है । स्थूल से भी एवं सूक्ष्म से भी साधकों का सर्वोंपरि ध्यान रखते हुए एवं अपना सर्वस्व साधकों के कल्याण के लिए ही दांव पर लगा देने के पश्चात भी वे साधकों को सीख देते हैं कि ‘मुझमें न अटकें कृष्ण के पास जाएं’ । उनकी साधकों पर भले ही प्रीति है, तब भी उनकी सीख है कि ‘साधक उनमें न अटकें, अपितु तत्त्व से एकरूप हों, सर्वव्यापी ईश्वर को भजें !’ इसीलिए साधकों को भी ‘गुरुदेवजी प्राणों से भी प्रिय हैं !’

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की प्रीति के कारण ही दैवीय बालक स्वयं ही आकर्षित होते हैं ! चि. न्योम सावंत (वय १० माह, मुंबई) स्वयं परात्पर गुरु डॉक्टरजी की ओर लपका, तब उसके पिता को भी आश्चर्य लगा !

 

अन्नप्राशनविधि के समय शिशु को खिलाते हुए परात्पर गुरु डॉक्टर (वर्ष २०१४)

 

दुर्धर व्याधि से निधन हुई सनातन के आश्रम की साधिका के पार्थिव पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने चंदनकाष्ठ रखा, वह हृदयस्पर्शी क्षण ! (वर्ष २००८)

 

३. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी एवं साधकों में अटूट नाता !

एक प्रसंग में एक साधिका अपना स्वप्न परात्पर गुरु डॉक्टरजी को बता रही थी । उस स्वप्न में उसने देखा कि परात्पर गुरु डॉक्टर उसे छोड कर चले गए हैं । उसका यह वाक्य पूरा होने से पहले ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी बोले, ‘‘मैं अपने साधकों को कभी भी छोडकर नहीं जाता ।’’ तदुपरांत संवाद पूर्ण होने तक उन्होंने यही वाक्य २-३ बार कहा । एक बार आश्रम में आए एक संत को विदा कर परात्पर गुरु डॉक्टरजी अपने निवासकक्ष की ओर जा रहे थे । तब मार्गिका के कुछ साधकों ने उन्हें हाथ हिलाकर ‘टाटा’ किया । इस पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी बोले, ‘‘विदा मुझे क्या करते हो । जहां हैं साधक, वहीं हूं मैं ॥’

परात्पर गुरुदेवजी के लिए साधक ही सर्वस्व हैं । उन्होंने एक बार ऐसा भी कहा था ‘मुझे सभी फूलों में ‘साधक फूल’ सबसे प्रिय है’ ।
‘तुम सभी साधकों का एवं तुम्हारे कुटुंब का भी दायित्व मुझ पर है ।’ – परात्पर गुरु डॉ. आठवले (सावंतवाडी के मंदिर में साधकों को किया मार्गदर्शन)

वास्तव में उन्हें ऐसा लगता है कि ‘साधकों के लिए कितना करूं और क्या-क्या करूं ?’ उन्होंने साधकों का हाथ छोडने के लिए नहीं, अपितु जन्म-जन्म साथ देने के लिए, मोक्षप्राप्तितक ले जाने के लिए पकडा है !

 

४. सर्व स्तरों पर, सभी आयुवर्ग के साधकों पर कृपाछत्र होना

‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी का निर्धन-धनवान, शिक्षित – अशिक्षित, छोटे – बडे आदि सभी साधकों पर कृपाछत्र है । यह मैंने स्वयं अनुभव किया है । वे आवश्यकता अनुसार प्रत्येक की सहायता करते हैं । उन्हें आध्यात्मिक कष्टों पर नामजपादि उपाय बताते हैं । उनके कृपाछत्र में जो भी साधक हैं वे सदैव ही आनंदी रहते हैं ।’

– श्री. प्रकाश रा. मराठे, रामनाथी, गोवा.

 

५. साधकों के आनंद के क्षण मनाना

५ अ. साधिका के आश्रम के पहले जन्मदिन पर उसे मनपसंद साडी देना

‘आश्रम की कु. कनकमहालक्ष्मी देवकर को साडी पहनना अच्छा लगता है; परंतु उसके पास साडी नहीं थी । यह परम पूज्य को पता चलने पर उन्होंने उसे साडी देने के विषय में तुरंत ही बताया । कुछ दिनों में उसका आश्रम में पहली बार जन्मदिन मनाया जानेवाला था । तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी बोले, ‘‘आज कनकमहालक्ष्मी का जन्मदिन है ना ! उसे हम आज साडी भेट देंगे । उसके पास साडी नहीं है ना ! उसे जो रंग अच्छा लगता है, उस रंग की साडी वह चुन सकती है । आश्रम में पहले जन्मदिन पर उसे जन्मदिन की पहली साडी मिलेगी !’’
– कु. वैभवी सुनील भोवर (वय १६ वर्ष) (२३.६.२०१३))

इस प्रकार आश्रम के सभी साधकों का जन्मदिन मनाया जाता है । साधकों के जन्मदिन के उपलक्ष्य में आश्रम के भोजनकक्ष के फलक पर साधक का नाम लिखकर उसे शुभकामनाएं दी जाती हैं । इसलिए सभी साधकों को उस साधक के जन्मदिन के विषय में समझ में आता है । उस साधक के साथ सेवा करनेवाले साधक उसके लिए अपने हाथों से सुंदर शुभेच्छापत्र बनाते हैं । उनकी गुणविशेषताओं का वर्णन करनेवाली कविता रची जाती है । आश्रम के अनेक साधक साधना के लिए शुभकामनाएं देते हैं । इसप्रकार साधक का जन्मदिन अत्यंत आनंद से मनाया जाता है ।

५ आ. विवाह, उपनयन संस्कार आदि मंगल कार्य के उपरांत भी परात्पर गुरु डॉक्टर नवदंपति को अथवा संबंधित कुटुंबियों को मिलते हैं । उन्हें आशीर्वाद देते हैं । जीवन के नए पर्व का आरंभ करते समय गुरु का यह अनमोल आशीर्वाद साधक भी हृदयमंदिर में संजोकर रखते हैं ।

 

६. साधक घर जाते समय उनके साथ सभी के लिए मिठाई भेजना

६ अ. साधकों को उनकी पसंद अनुसार मिठाई अथवा नमकीन भेजना

‘परात्पर गुरु डॉक्टर अनेक साधकों को मिठाई देने के लिए कहते हैं । तब वे युवा, छोटे बच्चे, वृद्ध इत्यादि बातों का विचार कर उन्हें जो अच्छा लगे, वैसा खाद्यपदार्थ देते हैं । ‘मीठा अच्छा लगता है अथवा तीखा ?’, यह भी पूछते हैं । जिन साधकों को अनिष्ट शक्तियों का कष्ट है, उनकी भी पसंद का ध्यान रखकर उन्हें मिठाई भेजते हैं । वे आश्रम से घर जानेवाले साधकों के साथ उनके घर के साथ-साथ वहां के संत एवं धर्माभिमानी, सभी को मिठाई देने के लिए कहते हैं । इतना ही नहीं, अपितु उस साधक के गांव के साधकों को भी बिना भूले मिठाई भेजने के लिए कहते हैं ।’

– श्री. प्रकाश रा. मराठे, गोवा.

सनातन के अनेक साधक विविध जिलों में, विविध राज्यों में धर्मप्रसार के लिए जाते हैं । ऐसे समय पर अन्य प्रांतों में जाने पर वहां जो उपलब्ध होगा, वह प्रसाद के रूप में ग्रहण कर वे आनंद से धर्मप्रसार करते हैं । अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन अथवा साधनासंबंधी शिविर के उपलक्ष्य में जब सर्वत्र के साधक रामनाथी में सनातन के आश्रम में एकत्र आते हैं, तब कुछ कारणवश दूर गए हुए बच्चों के लौटने पर मां को जैसे प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार आनंद से विविध व्यंजन बनाए जाते हैं । वर्ष में कभी-कभी ही गुरुदेव के पास आनेवाले इन साधकों की रुचि-अरुचि ध्यान में रखकर पदार्थ बनाकर उन्हें खिलाने की सीख भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की ही है ! घर रहकर प्रसारसेवा करनेवालों को अथवा आश्रमों में रहकर धर्मसेवा करनेवाले साधकों को भी किसी न किसी कारण से मीठा इत्यादि दिया जाता है । जो साधक बाहर के प्रांतों में जाकर धर्मसेवा करते हैं, उनकी प.पू. डॉक्टरजी विशेष प्रशंसा करते हैं ।

ऐसे एक नहीं अनेक प्रसंगों में गुरुदेव साधकों पर अपना वात्सलमयी कृपाछत्र प्रदान करते हैं । सगे परिवारजन भी इतना प्रेम नहीं कर सकते, इतनी प्रेमवर्षा वे करते हैं ! उनके प्रीति के प्रसंग व्यक्त करने के लिए शब्द ही नहीं हैं । केवल वह वात्सल्यमय प्रीति अनुभव कर उनके प्रीतिसागर के क्षणमोती मनमंदिर में संजोकर रखना, इतना ही हम कर सकते हैं । हे गुरुदेवजी, कृतज्ञता क्या व्यक्त करेंगे ? हमें अपनी प्रीति के बंधन में रखें, अपने श्रीचरणों में स्थान दें, यही प्रार्थना है !

 

७. साधिका के प्राणों की रक्षा होने के लिए स्वयं का जीवन उसे देने की इच्छा व्यक्त करना

सनातन के ६९ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर की साधिका कु. दीपाली मतकर की तबियत अक्टूबर २०१६ में अत्यंत गंभीर थी । उन पर यह प्राणांतिक संकट दूर होने के लिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने संतों का नामजप करने के लिए कहा । महर्षि से भी कु. दीपाली की प्रकृति के लिए परिहार पूछकर यज्ञ किया गया । कु. दीपाली मतकर के स्वास्थ्य में सुधार आने पर जब वे परात्पर गुरु डॉक्टरजी से मिलने आईं, तब हुआ अत्यंत हृदयस्पर्शी संवाद –

परात्पर गुरु डॉक्टर : मुझे अपनी एक चूक ध्यान में आई । तुम्हारी स्थिति गंभीर है, ऐसा समझ में आने पर मुझे लगा, ‘मैं अपना जीवन तुम्हें दे दूं; परंतु फिर मुझे ध्यान में आया कि संतों के बताए अनुसार अब मेरा जीवन अधिक से अधिक २ – ३ वर्ष का ही है । उतना ही जीवन तुम्हें देने से क्या लाभ ? तुम्हें अभी भी ५० – ६० वर्ष कार्य करना है ।’’

कु. दीपाली मतकर : आपके कारण ही मैं जीवित हूं । आपकी कृपा के कारण ही महर्षि, संत एवं साधक नामजपादि उपाय कर रहे थे । महर्षिजी ने सद्गुरु गाडगीळ काकू से कहा था कि परम गुरुजी ही (प.पू. डॉक्टर ही) बचा सकेंगे !’ इसीलिए आपके कारण ही मैं जीवित हूं । (‘तब मुझे बहुत कृतज्ञता लग रही थी । मैं ही नहीं, अपितु सभी साधक इस घोर कलियुग में गुरुदेव के कारण ही सुरक्षित हैं । उनकी कृपा के कारण ही श्वास ले रहे हैं । साधकों का सर्व कष्ट वे अपने पर ले रहे हैं ।’ – कु. दीपाली मतकर)

 

८. विवाह सुनिश्चित हुई साधिका को जो अच्छा लगता है, वह सब देने के लिए कहना

‘वर्ष २००६ में एक साधिका का विवाह सुनिश्चित हो गया था । मैं उसे मिलने के लिए जानेवाली थी । मेरे निकलने से पहले प.पू. डॉक्टरजी ने मुझे बुलाकर थोडे से पैसे दिए और बोले, ‘‘तुम दोनों खरीदी करने बाहर जानेवाली हो न । तब उसे क्या अच्छा लगता है, उसे खरीदकर देना । बाहर जाओगी तब खाने-पीने के लिए इन पैसों का उपयोग करना । कुछ भी कम न पडने देना । आजकल कितने पैसे लगते हैं, मुझे पता नहीं । यदि और चाहिए तो बताना । आईस्क्रीम अथवा जो कुछ भी उसे अच्छा लगता है, उसे लेकर देना । अपनी ओर से उसे विवाह से पहले का प्रीतिभोज भी करना । हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?’

– श्रीमती मनीषा पानसरे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

अब भी आश्रम के साधकों का विवाह से पहले प्रीतिभोज (मराठी में उसे केळवण कहते हैं ।) किया जाता है । उस समय साधक के विभाग के साधक एकत्र आकर उस साधक को आगे के वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं देते हैं ।

 

९. बीमार साधकों का सर्वोपरि ध्यान रखनेवाले भक्तवत्सल !

तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो । तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो ॥ तुम ही हो साथी, तुम ही सहारे । कोई ना अपना सिवा तुम्हारे ॥

बेलगांव (कर्नाटक) कै. पू.(डॉ.) नीलकंठ दीक्षित (वय ९१ वर्ष) को ‘वीलचेयर’ से ले जाते हुए परात्पर गुरु डॉक्टर । साथ में श्रीमती विजया दीक्षित

९ अ. बीमार साधक को कुछ कम न पडे; इसलिए सतत उसकी पूछताछ करना

‘बीमार साधक से मिलने के लिए स्वयं को सीढियां चढना संभव न होते हुए भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी सीढियां चढकर बीमार साधक से मिलने जाते थे । उससे मिलकर, उनका हालचाल लेते और उसे पूछते, ‘‘कोई अडचन तो नहीं हैं न ?’’ उसे जो अच्छा लगता है, वह पदार्थ बनाकर देने के लिए कहते । उस साधक को कुछ भी न्यून नहीं पडना चाहिए; इसका वे ध्यान रखते हैं । इसके साथ ही विविध उपायपद्धतियां ढूंढकर उस साधक को शीघ्र ठीक करते हैं ।’

– कु. तृप्ती गावडे, रामनाथी, गोवा. (१०.५.२०१८)

९ आ. साधिका को मृत्यु के समय याताना न हो, इसलिए वे स्वयं नामजपादि उपाय कर साधिका के प्राण ऊपर सरकाना

दुर्धर व्याधि से पीडित एक साधिका की मृत्यु के समय उसकी वेदना सुसह्य हो, इसलिए प.पू. डॉक्टरजी ने स्वयं नामजप किया । इसलिए मृत्यु के समय किसी भी प्रकार की यातना नहीं हुई और आनंद से उसने मृत्यु को गले लगाया । प.पू. डॉक्टरजी की प्रीति के कारण अनेक साधकों का जीवन एवं मृत्यु सुसह्य हो गई है ।’

– कु. मधुरा भोसले, रामनाथी, गोवा. (८.१.२०१३)

९ इ. त्वचारोग के कारण जर्जर हुए विदेश का एक साधक अपनी बीमारी के कारण अन्यों की घिन न लगे, इसलिए अपना संपूर्ण शरीर ढककर रखता था । उसे प.पू. डॉक्टर के सामने जाने में संकोच होता था । इसलिए प.पू. डॉक्टरजी ने उसे एक बार बुलाकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा । फिर उसे पैर के मोजे निकालने के लिए कहा और उसकी बीमारी का स्वरूप देखा । उनके इस प्रेम के कारण उस साधक में जीने का नया उत्साह निर्माण हुआ ।

– श्री. योगेश जलतारे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

 

१०. अब भी सनातन के आश्रम में साधकों का अत्यंत प्रेम से एवं अपनेपन से ध्यान रखा जाता है !

परात्पर गुरु डॉक्टरजी की सीख के कारण सनातन के आश्रमों के सभी साधक बीमार एवं वृद्ध साधकों का अत्यंत प्रेम से ध्यान रखते हैं । उन्हें वैद्यकीय सुविधा उपलब्ध करवाना, उनके परहेज के अनुसार आहार देना, इसप्रकार पूरा ध्यान रखा जाता है । यदि किसी साधक को वैद्यकीय परामर्श अनुसार अपने कक्ष में बिस्तर पर ही सोकर रहना हो, तो वे उस साधक से मिलते हैं और साधनासंबंधी सूत्र बताकर प्रोत्साहित करना, पढने के लिए कुछ ग्रंथ उपलब्ध करवाना इत्यादि भी अत्यंत प्रेम से करते हैं । गत कुछ वर्षों पूर्व ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने कहा था कि आनेवाले काल में सनातन वानप्रस्थाश्रम की भी स्थापना करनेवाला है । जिन साधकों ने आजीवन ईश्वरप्राप्ति के लिए साधना की है, उन साधकों के मन आयु ढलने पर माया में नहीं रमते । ऐसे साधकों की देखभाल उनकी अंतिम श्वास तक कर सकें और उन्हें साधना के लिए पूरक वातावरण मिले, यह उसके पीछे का उद्देश्य है । वास्तव में, उनके प्रेम को कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती ।

१० अ. गुरुदेव साधकों की प्रतीक्षा में रात ढाई बजे तक जागते रहे और फिर बाहर से आए साधकों को स्वयं भोजन परोसा

वर्ष १९९९ में गुरुपूर्णिमा होने के पश्चात हम मुंबई में अगली सेवा सीखने के लिए गए थे । एक बार हमें एक साधक के घर से सेवा समाप्त कर सेवाकेंद्र में लौटने में रात के ढाई बज गए । हमने शाम को चाय एवं अल्पाहार लिया था और उस साधक के घर थोडा-बहुत खाया था । रात में टैक्सी से उतरने पर हमने देखा कि गुरुदेवजी के कक्ष की ब‌त्ती जल रही थी और वे हमारी प्रतीक्षा में जाग रहे थे । हम उद्वाहक से (लिफ्ट से) ऊपर आए । तब वे उद्वाहक का पास आकर ठहरे थे । वे हमसे बोले, ‘‘हाथ-पैर धोकर भोजन करने आओ ।’’ तब हम दोनों ने झूठ बोल दिया कि ‘हमारा भोजन हो गया है’ । तब उन्होंने हमारी एक न सुनी और हमें रसोईघर में लेकर गए । वहां पटल पर दो थालियां लगी हुईं थीं । गुरुदेवजी ने हमें बैठने के लिए कहा और स्वयं भोजन परोसा । हमने उनसे कहा, ‘‘हम परोस लेंगे । आप सोने जाएं ।’’ तब वे बोेले, ‘‘तुम प्रतिदिन जागरण करते हो । मैंने एक दिन कर लिया तो क्या हुआ ? रसोईघर की सेवा करनेवाली साधिकाओं को सवेरे जल्दी उठकर यहां से नौकरी जानेवाले साधकों के लिए भोजन का डिब्बा एवं अल्पाहार बनाना पडता है । वे थक जाती हैं; इसलिए मैंने उनसे सो जाने के लिए कहा और मैं रुक गया । अब कल से शाम को जाते समय भोजन का डिब्बा लेकर जाना; तब ऐसे झूठ नहीं बोलना पडेगा ।’’ उनकी बात सुनकर हमारी आंखों में अश्रु आ गए । इतना प्रेम और ध्यान घर में भी कोई नहीं करेगा ।’

– कु. शशिकला कृ. आचार्य, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (२८.११.२०१६)

१० आ. वर्षा में भीगे साधक को सभास्थान पर जाने के लिए अपनी पैंट देने के लिए तैयार

‘परात्पर गुरु डॉक्टर पहले विविध जिलों में ‘सार्वजनिक (जाहिर) सभाएं लेते थे । जत (जिला सांगली) में सभा के एक घंटा पहले आंधी-पानी आने से मैदान के स्थान पर विद्यालय के सभागृह में सभा लेना तय हुआ । इसलिए व्यासपीठ, बैनर एवं कनात इत्यादि निकालते समय हम आठ-दस साधक वर्षा में सिर से पैर तक पूरे भीग गए । विद्यालय के सभागृह में सभा आरंभ होने से पूर्व कपडे बदलने के लिए हम श्री. होमकरकाका के घर गए । उनकी ऊंचाई कम होने से उनके द्वारा दिया गया पायजमा मुझे बहुत छोटा हो रहा था । वहां उपस्थित अन्य साधकों के ध्यान में यह नहीं आया । मैं वही पायजमा पहने वैसे ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी के कक्ष में गया । मुझे देखते ही परात्पर गुरु डॉक्टर तुरंत उठे और मेरे साथ में खडे रहकर हाथ से उनकी और मेरी लंबाई नापने लगे । वे क्या कर रहे हैं, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था । तदुपरांत वे बोले, ‘‘यह पायजामा तुम्हें काफी ऊंचा हो रहा है । मेरी पैंट की ऊंचाई तुम्हें ठीक रहेगी, मैं तुम्हें पहनने के लिए अपनी पैंट देता हूं । ऐसा ऊंचा पायजामा पहनकर सभा के स्थान पर न जाओ । उस समय वहां उनका वाहन चलाने की सेवा करनेवाले साधक श्री. प्रमोद बेंद्रे थे । वे तुरंत बोले, ‘‘नहीं, परात्पर गुरु डॉक्टर ! मैं इन्हें अपनी पैंट देता हूं । उन्हें वह ठीक बैठेगी ।’’ फिर मैंने श्री. बेन्द्रे की पैंट पहनी । इस छोटे से प्रसंग से यह देखने मिला कि ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी दूसरों का कैसे विचार करते हैं ।’

– डॉ. चारुदत्त पिंगळे (अभी के सद्गुरु (डॉ.) चारुदत्त पिंगळे), हिन्दू जनजागृति समिति (५.४.२०१७)

१० इ. साधकों पर उपचार करने के लिए प्रधानता देना

‘कुडाल के वैद्य सुविनय दामले उपचार करने के लिए आश्रम में आए थे । मुझे अनेक व्याधि होने से वैद्य मेघराज पराडकर ने पूछा, ‘‘आप पर क्या उपचार करने के लिए वैद्य को बताऊं?’’ तब मुझसे सहजता से उ‌त्तर दिया गया, ‘‘मेरा जीवन समाप्त होने को आया है इसलिए वैद्य दामले को साधकों पर उपचार करने दो । साधकों का अब भी बहुत जीवन शेष हैं । उन्हें उपचारों का अनेक वर्षों तक लाभ होगा ।’’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

फर्श चिकनी होने से पानी गिरने पर पैर फिसल सकता है, इसलिए आश्रम में बर्तन धोने के स्थान पर थोडी खुरदरी टाईल्स लगवाई गईं । उसका निरीक्षण करते हुए परात्पर गुरु डॉक्टर ! साथ में सद्गुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळ

१० ई. चालक साधक को अपने हाथ से ग्रास खिलानेवाले परात्पर गुरु डॉक्टर !

‘मैं परात्पर गुरु डॉक्टरजी के साथ पुणे जा रहा था । समय पर पहुंचना था इसलिए बीच में ही रुककर भोजन का डिब्बा खाना संभव न था । तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी बोले, ‘‘मैं एक-एक ग्रास तोडकर देता हूं । तुम खाते-खाते गाडी चलाओ ।’’ वे एक-एक ग्रास तोडकर मुझे देते जा रहे थे और में खाते-खाते गाडी चला रहा था । बीच में ही ट्रफिक जाम हो गया था । तब वे बोले, ‘‘बहुत भीड है । हाथ मत छोडना । तुम मुंह खोलो । मैं ग्रास डालता हूं ।’’ प.पू. डॉक्टरजी के हाथों से ग्रहण किया हुआ वह ग्रास जीवन के सर्वोच्च आनंद का क्षण बन कर रह गया ।’

– श्री. पाटील (२३.३.२००४)

१० ए. सर्व साधक वातानुकूलित यंत्र का उपयोग नहीं कर पाते अत: स्वयं भी गर्मी होते हुए भी वातानुकूलन यंत्र का उपयोग न करना

काफी गर्मी होते हुए भी परात्पर गुरु डॉक्टरजी के निवासकक्ष में लगा वातानुकूलित यंत्र (ए.सी.) का उपयोग नहीं करते । उस विषय में उन्हें पूछने पर वे बोले, ‘सभी साधकों के लिए वातानुकूलित यंत्र नहीं है, इसलिए मैं भी उपयोग नहीं करता !’ इस प्रसंग से मैं परात्पर गुरु डॉक्टरजी की साधकों के प्रति प्रीति को मैं अनुभव कर पाया । विशेष बात यह कि ‘सुविधा होते हुए भी साधकों के प्रति प्रेम के कारण सभी को वह न मिलने से उन्होंने भी उसका उपयोग नहीं किया’, यह उनका बडप्पन है !

– श्री. प्रकाश मराठे

१० ऐ. साधक की वेदना की तीव्रता ध्यान में आने के लिए स्वयं पत्थर तराशना

‘वर्ष २००३ में एक बार निर्माणकार्य विभाग के एक साधक को पत्थर तराशने के कारण हाथों में छाले पड गए । उस साधक के हाथों के छाले देखकर प.पू. डॉक्टरजी के नेत्रों में अश्रु आ गए । तदुपरांत उन्होंने स्वयं पत्थर तराशने की सेवा की । इससे प.पू. डॉक्टरजी के हाथों पर भी छाले पड गए । सहसाधक को होनेवाली उस वेदना की तीव्रता ध्यान में आए; इसलिए स्वयं प.पू. डॉक्टरजी ने वह सेवा कर देखा ।’
– श्रीमती श्रद्धा, रामनाथी, गोवा. (२८.६.२०१४)

१० ओ. साधक से आदरपूर्वक बर्ताव

‘साधक आश्रम की मार्गिका से जाते समय यदि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी सामने आए, तो वे प्रथम साधक को जाने के लिए आदरपूर्वक मार्ग देते हैं । इन सभी बातों से ध्यान में आया कि हम उन्हें आदर देने के स्थान पर उनका ही हमारे प्रति अत्यधिक आदरभाव है ।’

– डॉ. अजय गणपतराव जोशी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१७.५.२०१७)

 

११. प्रीति को अन्य ‌विशेषताओं की सुंदर जोड

११ अ. साधकों की साधना की हानि टालने के लिए उनकी तत्त्वनिष्ठा

किसी साधक के स्वभावदोषों के कारण अथवा अहं के कारण उनसे साधना में गलतियां हो रही हों और वह ईश्वर से दूर जा रहा हो, तो वे प्रसंग आने पर कठोर होकर उसे स्वभावदोषों से लडने का भान करवाते हैं । एक ही प्रकार की चूक यदि बारंबार होने लगे तो परात्पर गुरु डॉक्टर संबंधित साधक को आश्रम के फलक पर चूक लिखकर प्रायश्चित लेने के लिए कहते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा समय-समय दिए ‘फलक/प्रायश्चित’ हमारे दोष दूर करने के लिए वरदान ही सिद्ध होता है; कारण उस गलती के संदर्भ में गंभीरता से प्रक्रिया के उपरांत पुन: वैसी चूक नहीं होती ।

साधक का साधना की हानि ‌टालने के लिए प्रसंग पडने पर गुरु द्वारा बोले गए कठोर शब्द भी उस साधक पर गुरु की प्रीति ही है । परात्पर गुरुदेव द्वारा बताई गई स्वभावदोष निर्मूलन एवं अहं निर्मूलन प्रक्रिया कर आज अनेक साधकों को जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण सकारात्मक एवं आनंदी हो गया है ।

११ आ. अखिल मानवजाति की मूलभूत भलाई करने की लगन

मानवी जीवन में अनेक समस्याएं आती हैं । वर्तमान में राष्ट्र एवं धर्म के सामने भी अनेक समस्याएं हैं । ऐसा होते हुए भी वे प्रत्येक समस्या पर कौन-सा मार्ग अपनाएं, इसपर समय व्यर्थ किए बिना वे बारंबार सभी के मन पर अंकित करते हैं कि साधना करने से ही व्यक्ति का मूलभूत भला होनेवाला है । अखिल मानवजाति को अगले सहस्रों वर्ष मार्गदर्शन करने के लिए वे अखंड ग्रंथलेखन का कार्य कर रहे हैं । प्राणशक्ति अत्यंत अल्प होते हुए भी वे उस स्थिति में भी ग्रंथलेखन का कार्य पूर्ण करने को प्रधानता देते हैं । वास्तविक उनके समान उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त अध्यात्म के अधिकारी व्यक्ति को इतनी कठिन स्थिति में सेवा करने की क्या आवश्यकता है ? परंतु अखिल मानवजाति का कल्याण हो, इसलिए वे अब भी ग्रंथलेखन कर रहे हैं । उनकी इस प्रीति को उपमा ही नहीं !

इस एवं इस समान अनेक दैवीय गुणविशेषताएं उनमें हैं । इन सभी दैवीय लक्षणों में सर्वश्रेष्ठ गुण है उनकी प्रीति ! इसीलिए सभी उन्हें अपने ही लगते हैं और सभी को परात्पर गुरु डॉक्टरजी भी अपने से लगते हैं । ऐसी है यह गुरु-शिष्य की प्रीति का अनोखा संगम ! अनेक वर्ष हम साधक श्रीगुरु की प्रीति के सागर में गोते लगा रहे हैं । इस सागर के कुछ मोतियों का कथन यहां कर पाए । हम पर शब्दों के परे कृपावर्षाव करनेवाले श्रीगुरु की महिमा का शब्दों में वर्णन करने के लिए हमारी वाणी असमर्थ है । उनके कृपाछत्र में साधना कर उस प्रीति के वर्षाव की अनुभूति लेना, यही उन्हें समझना है !’

संकलक : कु. सायली डिंगरे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (४.५.२०२०)

ईश्वर का उनके भक्तों पर अटूट प्रेम होता है । भक्तों के उद्धार के लिए ही पुनःपुन: अवतार लेनेवाला वह भगवान भक्तों के बंधन में है । संत जनाबाईं के घर चक्की पीसनेवाला, संत एकनाथ के घर पानी भरनेवाला, भक्तों की पुकार पर सदैव दौडे चले आनेवाला करुणाकर ईश्वर स्वयं ही भक्तों की सेवा करता रहता है । जातिव्यवस्था के अत्यंत कठोर बंधनवाले काल में एक पिछडी जाति की महिला के पुत्र को चिलचिलाती धूप में पैर जलने से बचाने के लिए उच्च वर्ण के संत एकनाथ महाराजजी ने गोद में लिया था । रामेश्‍वरक्षेत्र में नाथ ने प्यास से तडपते गधे को गंगाजल पिलाया आदि कथाएं हमें पता ही हैं । अब परात्पर गुरु डॉक्टरजी के रूप में उस श्रीहरि के ही दर्शन होते हैं ! वास्तव में भक्त के घर रहनेवाला वह श्रीहरि ही अपने अवतारत्व की विविध लीलाएं साधकों को गुरुरूप में दिखा रहा है । अन्यों के लिए कैसे त्याग कर सकते हैं, मानों इसकी सीख श्रीगुरु ने अपने आचरण से दी है । श्रीगुरु अपनी प्रत्येक कृति, प्रत्येक शब्द, मन के प्रत्येक विचार से साधकों को कैसे निरंतर सिखाते रहते हैं, इसकी पग-पग पर अनुभूति होती है । शब्दों में एवं शब्दों से परे, स्थूल की एवं सूक्ष्म की श्रीगुरु की प्रत्येक कृति समष्टि के लिए दिशादर्शक होती है ! हम साधकों का यह परम सोैभाग्य है कि ऐसे भक्तवत्सल श्रीगुरु हमें मिले ! उनके चरणों में अनंत अनंत कृतज्ञता !

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