१. मुक्ताबाई का जन्म
संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज की बहन संत मुक्ताबाई ने जलगांव जिले के एदलाबाद (आज का मुक्ताईनगर) में समाधि ली थी । मुक्ताबाई का जन्म इंद्रायणी नदी के तट पर बसे आळंदी गांव के निकट सिद्धबेट पर अश्विन शुद्ध प्रतिपदा शुक्रवार शके १२०१ अर्थात इ. सन. १२७९ में हुआ । उनके माता-पिता का मूल गांव, संभाजीनगर जिले की पैठण तालुका में आपेगांव था । संत मुक्ताबाई का नाम मुक्ताई विठ्ठलपंत कुलकर्णी था । निवृत्ति, ज्ञानदेव, सोपान और मुक्ताई; इनमें सबसे छोटी मुक्ताबाई थी । बचपन में ही निवृत्तिनाथ एवं उनके भाईयों को स्वजातीयों ने ‘संन्यासी के बच्चे’ कहते हुए उन्हें बहुत कष्ट दिए, परंतु समस्त दु:ख सहते हुए इन चारों बहन-भाईयों ने ब्रह्मविद्या की अखंड उपासना की । ‘हमारे पश्चात अपने बच्चे तो सुखी रहेंगे’, इस आशा से विठ्ठलपंत-रुक्मिणी ने निर्दयी समाज द्वारा दिए गए ‘देहांत प्रायःश्चित’ का निर्णय स्वीकारते हुए त्रिवेणी संगम में देहविसर्जन किया ।
२. गुरुपरंपरा
मच्छिंद्रनाथ ऊर्फ मत्स्येंद्रनाथ – गोरखनाथ ऊर्फ गोरक्षनाथ – गहिनीनाथ – निवृत्तिनाथ – मुक्ताबाई, ऐसी यह गुरुपरंपरा है । इस महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वरादि चारों में मुक्ताबाई अपनी विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध हैं । चौदह सौ वर्ष जीवित रहनेवाले योगेश्वर चांगदेव को गर्व हो गया था । उन्हीं की गुरू मुक्ताई थीं ।
(मूल मराठी) चौदह सौ वर्ष शरीर केले जतन । नही अज्ञानपन गेले माझे ॥
अहंकारें माझें बुडविलें घर । जालों सेवा थोर स्वामीसंगे ॥
अभिमानें आलों श्रीआळंकापुरीं । अज्ञान केलें दुरी मुक्ताईनें ॥
(हिन्दी अनुवाद)
१४०० वर्ष शरीर का जतन किया ।
पर अज्ञान नहीं मेरा दूर हुआ ।।
अहंकार ने मेरा घर जलाया ।
मुक्ताबाई ने मेरा अज्ञान दूर किया ।।
ऐसी चांगदेव की स्वीकृति है । समाज से हो रहे तिरस्कार से ऊबकर संत ज्ञानेश्वर खिन्न हो गए और कक्ष में बैठ गए । उन्होंने कक्ष का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया । तब ‘ताटी उघडा ज्ञानेश्वरा’ मुक्ताबाई द्वारा रचा गया यह अभंग ‘ताटीचे अभंग’ के रूप में प्रसिद्ध है ।
अपना अवतारकार्य समाप्त कर संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर और संत सोपानदेव समाधिस्त हो गए थे । इसलिए मुक्ताई खिन्न हो गई थी ।
(मूल मराठी)
मुक्ताई उदासी जाली असे फार ।
आत्मा हें शरीर रक्षूं नये ॥
(हिन्दी अनुवाद)
मुक्ताबाई अत्यंत उदास हो गई ।
आत्मा की रक्षा करनी है, शरीर की नहीं ।।
उनके मन में भी ब्रह्मलीन होने के विचार आने लगे । वैशाख माह की कडी धूप पड रही थी । तापी के तट पर वैष्णवों का बडा समुदाय जमा था । एदलाबाद से दो मीलों के अंतर पर माणेगांव के एकांत में संत निवृत्ती महाराज ने गंगाधारा के निकट मुक्ताईं को उसके ब्रह्मभाव का स्मरण करवाया ।
अंतर बाहेर स्वामीचें स्वरूप ।
स्वयें नंदादीप उजळिला ॥
हिन्दी अनुवाद –
अंदर-बाहर स्वामी का स्वरूप ।
दिखाएं स्वयं नंदादीप ।।
अर्थात, अंदर और बाहर स्वामी का ही स्वरूप है, यह स्वयं नंदादीप ने अर्थात आत्मा ने प्रकाशित होकर दिखा दिया ।
ऐसा कहते हुए स्वरूपाकार स्थिति में आकाश गरजे और बिजली कडकी । इसके साथ ही संत मुक्ताबाई सहजस्वरूप में मिल गई ।
एक प्रहर जाला प्रकाश त्रिभुवनीं ।
जेव्हां निरंजनीं गुप्त जाली ॥
हिन्दी अनुवाद
एक प्रहर हुआ प्रकाश त्रिभुवन में ।
जब निरंजन गुप्त हो गया ।।
वैशाख कृष्ण १०, इस तिधि को संत मुक्ताबाई अंतर्धान हो गई । संत मुक्ताबाई जहां अंतर्धान हुईं वहां पास ही उनका मंदिर बनाया गया है ।’