महाराष्ट्र में सुप्रसिद्ध कुछ देवियों की जानकारी और उनका इतिहास

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नवरात्रि में जिस देवी की पूजा की जाती है, वह देवी मानव के लिए जो उत्कृष्ट गुण होते हैं उनसे सुशोभित होती है । दुर्गा का स्तवन और पूजा करते समय अभिषेक के समय उनकी नामावली कही जाती है । उस नामावली से नारी में कौनसे गुण होने चाहिए, इसका निर्देश मिलता है ।

 

१. महालक्ष्मी, मुंबई

मुंबई की महालक्ष्मी

नवरात्रि में मुंबई शहर में यदि किसी देवी के दर्शन के लिए सर्वाधिक लोग जाते हैं, तो वे हैं देवी महालक्ष्मी ! मुंबई में मुंबादेवी, गांवदेवी, प्रभादेवी, काळबादेवी इत्यादि प्राचीन प्रसिद्ध देवियों के मंदिर हैं । देवी महालक्ष्मी का वरदहस्त मानो मुंबई को मिला है इसीलिए मुंबई की समृद्धि में निरंतर वृद्धि ही होती जा रही है । मुंबई शहर के पश्चिम में वाळकेश्वर से पहले आनेवाले कुछ भाग को ‘महालक्ष्मी’ कहते हैं । इसी स्थान पर समुद्र के किनारे पर एक छोटी-सी पहाडी पर महालक्ष्मी का स्थान है ।

इस मंदिर का इतिहास बहुत मनोरंजक है । जब ७ स्वतंत्र पहाडियां थीं, तब वर्ली द्वीप (टापू) पर वर्ष १७२० तक यहां देवी महालक्ष्मी का छोटा-सा मंदिर था; परंतु विदेशी मुसलमानों के धार्मिक अत्याचार के भय से देवी के भक्तों ने देवी का निकट ही समुद्र में विसर्जन कर दिया । तदुपरांत मुंबई का हस्तांतर पुर्तगालियों और उनसे फिर अंग्रेजों को हो गया । अंग्रेज अपनी दूरदृष्टि से मुंबई का महत्त्व भली-भांति समझ गए थे; इसलिए मुंबई को एकसंघ करने के लिए धीरे-धीरे उन्होंने इन ७ द्वीपों को एकत्र करने की योजना बनाई और वर्ली पर बांध बनाना आरंभ किया; परंतु तब समुद्र हटाने का कार्य किसी भी प्रकार से पूर्ण नहीं हो रहा था । बांध के निर्माण के लिए डाले गए पत्थर अथवा मिट्टी को सागर की लहरें अपने में समा लेती थीं । इससे अंग्रेज हैरान हो गए । वे इस काम को छोड देने का विचार करने लगे । तब अंग्रेजों के इंजीनियर रामजी शिवजी प्रभु को देवी ने दृष्टांत देकर कहा, ‘क्षीरसागर से मुझे बाहर निकालकर मेरी स्थापना करो !’ इंजीनियर प्रभु ने यह दृष्टांत तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों को बताया । तब समुद्र में जाल डाले गए और डालते ही उनमें से काले पाषाण की ३ देवियों की मूर्तियां बाहर आईं । वे ३ मूर्तियां अब मंदिर में स्थापित श्री महालक्ष्मी, श्री महासरस्वती और श्री महाकाली की हैं ।

 

२. शिवनेरी की शिवाई, जिला पुणे

शिवनेरी की शिवाई

पुणे से ९४ किलोमीटर पर स्थित जुन्नर गांव से ४ किलोमीटर पर शिवनेरी गढ पर जाने का मार्ग है । किला चढकर पहले दरवाजे से ऊपर जाते ही शिवाईदेवी का छोटा-सा मंदिर है । शिवाईदेवी की मूर्ति ढाई फुट ऊंची, सिंदूर से विलेपन और महिषासुरमर्दन स्वरूप की है । यह स्थान देवी तुळजाभवानी का माना जाता है । राजमाता जीजाबाई ने इसी देवी की उपासना की और उसके ही कृपाप्रसाद से हुए पुत्र का नाम उन्होंने ‘शिवाजी’ रखा । यहां अक्षय्य तृतीया और नवरात्रि को मेला लगता है ।

 

३. प्रतापगढ की भवानीमाता, जिला सातारा

प्रतापगढ की भवानीमाता

छत्रपति शिवाजी महाराजजी ने अफजलखान का वध किया । तदुपरांत उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक श्री भवानीमाता के दर्शन लिए । जिस भवानीदेवी ने विजय दिलवाई, उनकी उन्होंने प्रतापगढ पर प्रतिष्ठापना करने का निश्चय किया । उसके लिए उन्होंने हिमालय की त्रिसूल गंडकी, श्वेतगंडक एवं सरस्वती; इन नदियों के संगम स्थान से शिला मंगवाकर, नेपाल के शिल्प कारीगरों से मूर्ति बनवाई । इस काम के लिए महाराज ने मंबाजी नाईक-पानसरे की विशेष नियुक्ति की थी । देवी की प्रतापगढ में विधिपूर्वक वर्ष १६६१ में स्थापना की । यह मूर्ति काले पाषाण की और अष्टभुजी है । घाट से घाटी में उतरते ही मुख्य मंदिर मिलता है ।

 

४. श्री तुलजाभवानी, जिला धाराशिव

तुलजापुर की श्री तुलजाभवानी

महाराष्ट्र के धाराशिव जिले में तुलजापुर में यह पीठ है । ये देवी छत्रपति शिवाजी महाराजजी की कुलदेवी थीं । कर्दभऋषि की भार्या अनुभूति, तपस्या कर रही थीं । तभी कुकुट नामक दैत्य के मन में उनके प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ । तब अनुभूति ने आदिशक्ति पार्वती की आर्तता से पुकारा । देवी पार्वती उस स्थान पर प्रकट हुईं और उन्होंने कुकुट का वध किया । देवी तुरंत दौडी आईं; इसलिए वे ‘तुलजा-तुलजा’ नाम से पहचानी जाने लगीं । ये देवी सिंहासनी एवं अष्टभुजी हैं । उनके हाथ में त्रिशूल, बाण, चक्र, धनुष्य इत्यादि आयुध हैं । मुकुट पर मोती और लिंग की आकृतियां हैं । उनका उत्सव नवरात्रि में आरंभ होता है ।

 

५. कोल्हापुर की श्री महालक्ष्मी

कोल्हापुर की श्री महालक्ष्मी

महाराष्ट्र के मुख्य साढे तीन शक्तिपीठों में से कोल्हापुर एक पूर्ण पीठ है । इस स्थान पर देवी ने ब्रह्मदेव के मानस पुत्र करवीर का वध किया । उस असुर की इच्छा अनुसार इस शहर को ‘कोल्हापुर’ और ‘करवीर’ नाम प्राप्त हुए ।

भृगुकुल में जन्म लेनेवाले गरुडाचल नामक एक ब्राह्मण की कन्या थी माधवी ! वह अपने पिता के साथ बैकुंठ गई थी, तब अपने बालस्वभावानुसार भगवान विष्णु के पास उनके पलंग पर जाकर बैठ गई । तब लक्ष्मी ने उसे शाप दिया कि तुझे अश्वमुख प्राप्त होगा ।’ आगे ब्रह्मदेव के वरदान से वह शापमुक्त हुई और ‘महालक्ष्मी’ नाम से प्रसिद्ध हुई ।

कोल्हापुर में महालक्ष्मी का मंदिर दर्शनीय है । मंदिर के प्रांगण में प्रवेश करने के लिए ४ प्रवेशद्वार हैं । पश्चिम दरवाजे को ‘महाद्वार’ कहते हैं । विस्तृत आवार में महालक्ष्मी की प्रमुख मूर्ति के साथ महाकाली, महासरस्वती, कात्यायनी, शाकंभरी इत्यादि देवियों की मूर्तियां हैं ।

महालक्ष्मी चतुर्भूज हैं । उनके हाथों में मातुलिंग (नीबू समान फल, जो कि आकार में बहुत बडा है), गदा, ढाल एवं पानपत्र (कटोरा) है । सिर पर नाग का फन है । मुकुट पर लिंग एवं योनी की आकृतियां हैं । मूर्ति की ऊंचाई लगभग ३ फुट है और वह काले पाषाण की है । वर्ष में निर्धारित ३ दिन मूर्ति पर सूर्यकिरणें आती हैं, उस समय रत्नजडित अलंकारों से देवी को सुशोभित किया जाता है ।

 

६. वणी की सप्तशृंगी, जिला नासिक

आदिशक्ति पीठ का यह प्रमुख पीठ नासिक से ७७ किलोमीटर के अंतर पर वणी के निकट है । जिस पहाडी पर देवी विराजमान हैं, वह लगभग सवा पांच सहस्र फुट ऊंचा है । ऊपर जाने के लिए पत्थर की सीढियां बनी हैं । यह सीढियां अठारहवीं शताब्दी में बनाई गईं हैं । मार्कंडेय ऋषि की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें दर्शन दिए । देवी की आज्ञा पर मार्कंडेयजी ने इस स्थान पर स्वयंभू देवी की स्थापना की । वे उन्हें नित्य पुराण सुनाते थे । देवी के १८ हाथ हैं । उन्होंने हाथ में बाण, तलवार, वज्रपाश, शक्ति, चक्र, गदा इत्यादि आयुध धारण किए हैं । मूर्ति की ऊंचाई १० फुट है । मूर्ति को सिंदूर का लेप किया जाता है । चैत्र नवरात्रि में यहां वार्षिक मेला लगता है ।

मंदिर की सीढियां चढते समय प्रथम गरुड, शीतलातीर्थ, कूर्मतीर्थ एवं गणेशजी की भव्य मूर्तियों के दर्शन होते हैं । शिवतीर्थ पर हरा पानी और भगवती तीर्थ पर मटमैला पानी दिखाई देता है । सप्तशृंगीदेवी के गर्भगृह का निर्माण नहीं किया गया है; कारण मूर्ति के ऊपरी भाग में उतनी जगह ही नहीं है । इस मूर्ति पर सिंदूर का विलेपन से रक्तवर्णी है ।

 

७. श्री सालवणदेवी, श्रीगोंदा, जिला अहिल्यानगर.

श्री सालवणदेवी

श्रीगोंदा रेल्वेस्टेशन से १८ किलोमीटर के अंतर पर सालवणदेवी का मंदिर है । नवरात्रि में यहां होम-हवन किया जाता है । इसके साथ ही सप्तशती का पाठ किया जाता है । मंदिर के गर्भगृह में एक भव्य सिंदूरी शिला है । यह शिला ही श्री सालवणदेवी हैं । ये देवी अत्यंत जागृत हैं । ऐसी भी मान्यता है कि सालवणदेवी, माहूर की रेणुकादेवी के स्थान पर हैं ।

इस संदर्भ में कथा प्रचलित है । ‘श्रीगोंदा’ के एकनाथ पाठक नामक भक्त को वृद्धत्व के कारण माहूर जाना असंभव लगने लगा । वैसी स्थिति में भी वे वहां गए और उन्होंने देवी से प्रार्थना की, ‘हे देवी मां ! इसके आगे अब मेरे लिए प्रतिवर्ष माहूर आना लगभग असंभव है । इस कठिन प्रसंग में आप ही मार्ग दिखाएं ।’ तब देवी बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारे साथ ही गांव चलती हूं; परंतु घर पहुंचने तक मुझे देखना मत !’’ आगे ‘श्रीगोंदा के निकट पहुंचने पर एकनाथ पाठक के मन में ये देखने की इच्छा हुई कि क्या वास्तव में देवी मेरे पीछे आ रही हैं ?’; और जैसे ही वे पीछे मुडे तब देवी वहीं अदृश्य हो गईं ।’ श्री सालवणदेवी इस भाग के अनेक घरानों की कुलदेवी हैं ।

 

८. श्री कालरात्रि देवी, परली वैजनाथ, जिला बीड.

परली वैजनाथ की श्री कालरात्रि देवी

महाराष्ट्र के ज्योतिर्लिंग क्षेत्र परली वैजनाथ धाम के परिसर में श्री कालरात्रि देवी का स्थान है । यह स्वयंभू स्थान है । इन्हें मानव का मोह, संभ्रम जैसी अवस्थाओं का नाश करनेवाली देवी माना जाता है । वेदों में इनका एक शक्तिसूत्र है । महाकोशल देश के राजा विश्वपति के बेटे को भ्रमविकार हो गया । राजा द्वारा उस स्थान पर लाखों अनुष्ठान करने पर उसका भ्रमविकार नष्ट होने की कथा है ।

दशहरे के दिन श्री वैजनाथ ज्योतिर्लिंग प्रभु की पालकी शोभायात्रा में श्री कालरात्रि देवी के मंदिर में आती हैं और वहां से दोनों पालकियां ‘सदानंदी का उदे उदे, वैजनाथ प्रभु की जय !’ इस जयघोष में सीमोल्लंघन के लिए जाती हैं । परली में ही नारायण पर्वत की आग्नेय दिशा में ४ किलोमीटर पर गोधुधाम पर्वत पर अंबाआरोग्य भवानीदेवी का स्थान है । जग के वैद्यों के नाथ इसी क्षेत्र में होने से उनकी औषधीय वनस्पतियों का संग्रह यहां आरोग्य भवानी ने किया है । दुर्लभ वनस्पतियों की प्राप्ति के लिए दूर-दूर से वैद्य यहां आते हैं ।

श्रीधनमांना (ढोमणा) देवी क्षेत्र एवं दक्षिणी मार्ग पर पर्वत के उत्तर में ढोमणादेवी का स्थान है । ऐसा कहा जाता था कि उनके नीचे अगणित द्रव्य थे । एक राजा को इस संपत्ति की इच्छा उत्पन्न हुई । राजा को पता चला कि उपनयन हुए पहले पुत्र की जो भी बलि देगा, उसे यह संपत्ति प्राप्त होगी । इसके लिए राजा ने एक ब्राह्मण दंपति को उसके लिए तैयार किया । बलिदान के दिन पूरी बात उस बटुक को ध्यान में आई, तो उसने अत्यंत आर्तता से देवी से प्रार्थना की । तब देवी ने बटुक के माता-पिता और राजा का वध किया और बटुक की रक्षा की । देवी को मूलस्थान से उठाकर नई घाट की तलहटी पर स्थापित किया है । कहा जाता है कि ऐसा करने के पीछे भी संपत्ति की कथा ही कारणीभूत है ।

 

९. आणव्या की आजूबाई, जिला संभाजीनगर

आणव्या की आजूबाई, जिला संभाजीनगर

मराठवाडा में संभाजीनगर जिले में जगप्रसिद्ध अजंता की गुफाओं की ओर जाते समय संभाजीनगर-अजंता मार्ग पर गोळेगांव बसस्थानक से लगभग १२ किलोमीटर पर आणवा गांव है ।

इसी गांव में भवानी आजूबाई का स्वयंभू जागृत देवस्थान है । आजूबाई का एक मंदिर गांव में और दूसरा गांव के बाहर है । गांव में जो आजूबाई का मंदिर है, वह देवी का निवासस्थान है । इसी स्थान पर देवी का जन्म हुआ था । आज इस स्थान पर भव्य सिंदूरी शिला है । गांव के बाहर लगभग एक किलोमीटर के अंतर पर भवानी आजूबाई की स्वयंभू मूर्ति है । आज यही आजूबाई की स्वयंभू मूर्ति बडा तीर्थक्षेत्र बन गई है । देवी के मंदिर के सामने भव्य कुंड है, उसे ‘कल्लोली तीर्थ’ कहते हैं । इस स्थान पर खाज अर्थात एकप्रकार का छुतहा चर्मरोग (scabies) और त्वचा के रोग ठीक होते हैं ऐसा मानना हैं; इसलिए असंख्य श्रद्धालु स्नान के लिए यहां आते हैं ।

मराठवाडा में कुछ काल निजाम का शासन था । हिन्दुओं पर अत्याचार और मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया जा रहा था । ऐसे ही एक प्रसंग में कुछ उपद्रवी लोगों ने देवी आजूबाई की मूर्ति नष्ट करने का विचार किया । आक्रमणकर्ताओं के मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचते ही उनकी दृष्टि ही चली गई । प्रतिवर्ष यहां नवरात्रि में चैत्र एवं आश्विन माह में देवी का बडा उत्सव होता है । नवरात्रि में होम-हवन इत्यादि कार्यक्रम होते हैं, इसके साथ ही ९ दिन बडी यात्रा होती है । चैत्र माह की नवरात्रि में देवी की जन्मपत्रिका का वाचन होता है । अष्टमी की रात देवी की शोभायात्रा निकलती है । उस समय मनौती मांगनेवाले लोग देवी के सर्वओर मशाल जलाकर भक्तिगीतों पर भावविभोर होकर नाचते-गाते हैं । इसी को कहते हैं ‘देवी का पोत खेलना’। प्रतिवर्ष पोत खेलनेवालों की संख्या १ सहस्र से १ सहस्र २०० होती है । श्रद्धालुओं के अंतःकरण में अपार श्रद्धा है कि आजूबाई जागृत देवस्थान होने से माता भवानी मनौती पूरी करती हैं । यहां अन्य धर्म के लोग भी देवी से मनौती मांगते हैं ।

– पां. पि. घरत

(साभार : ‘ज्ञानदूत’, दीपावली अंक १९७५)

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