अनुक्रमणिका
- १. आयुर्वेद में बताए अनुसार व्यायाम करने से होनेवाले लाभ !
- १ अ. व्यायाम के कारण शरीर की काली शक्ति नष्ट होकर देह के चैतन्य में वृद्धि होना, एक्युप्रेशर एवं व्यायाम के कारण शरीर एवं सूक्ष्मचक्रों का काला आवरण नष्ट होकर उनकी शुद्धि होना
- १ आ. व्यायाम के कारण स्नायु एवं हड्डियों की कार्यक्षमता बढना
- १ इ. व्यायाम के कारण क्षात्रवृत्ति बढना
- १ ई. व्यायाम के कारण मस्तिष्क और मन को जोडनेवाले कृष्णतत्त्व का बंध प्रकाशमान होकर चैतन्य मिलना, इससे शरीर चमकदार एवं चैतन्यमय दिखाई देना
- १ उ. व्यायाम के कारण शरीर की ऊर्जा और रस का रूपांतर शक्ति एवं चैतन्यरस में होता है । इससे शरीर और मन की शुद्धि होना, शरीर की चरबी पसीने द्वारा बाहर फेंकी जाना
- २. निरोगी जीवन का मूलमंत्र
- ३. रोग न हों; इसलिए आयुर्वेद ने सुझाए उपाय
- ४. शीतपेयों में स्वास्थ्य के लिए घातक घटक
- ५. पाश्चात्यों का गहरी नींद क्या होती है, यह पता न होने से विश्वभर में नींद की औषधियां की भारी मात्रा में खपत होना
- ६. अहं के कारण स्वास्थ्य बिगडने के कारण
अपना शरीर और मन आरोग्यसंपन्न रखना, मनुष्य का धर्म है । दिनचर्या और ऋतुचर्या के नियम पालन से शरीर सदृढ और आरोग्यसंपन्न रहता है । आयुर्वेद में बताए नियम समझकर, उसप्रकार अपनी दिनचर्या अथवा ऋतुचर्या निर्धारित करने से ‘जीवेत शरदः शतम् ।’ इसप्रकार १०० वर्ष आरोग्यसंपन्न जीवन जीएं, यह आयुर्वेदीय ऋषि-मुनियों का आशीर्वाद प्रत्येक को निश्चितरूप से मिलेगा ।
शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक स्वास्थ्य अर्थात सुखसंवेदना अनुभव करने की अवस्था अर्थात स्वास्थ्य ।
शारीरिक स्वास्थ्य : सुदृढ, बलवान, गठीला शरीर, तेजस्वी आंखें, कांतिमान त्वचा, चमकते केश, अच्छी भूख, शांत नींद, नाडी, श्वास, शौच-पेशाब, जोडों की हालचाल, अन्य सभी अवयवों की और सभी इंद्रियों के कार्य सुचारू और सुलभ होना शारीरिक स्वास्थ्य के लक्षण हैं ।
मानसिक स्वास्थ्य : मन में कोई भी दुःख अथवा तनाव न होना, काम-क्रोधादि षड्रिपुओं पर नियंत्रण होना, कर्तव्य में दक्ष होना, प्रत्येक कृति कुशलता से और उत्साहपूर्ण करना, ये मानसिक स्वास्थ्य के लक्षण हैं ।
आध्यात्मिक स्वास्थ्य : सतत सच्चिदानंद स्वरूप में रहना, उसके लिए स्वार्थ और आसक्ति त्याग कर निष्काम बुद्धि से भगवद्भक्ति करना और उसमें समाधानी होना, यह आध्यात्मिक स्वास्थ्य है ।
समाजस्वास्थ्य : हम समाज के एक घटक हैं । समाज सुखी होगा, तब ही हम सुखी होंगे; इसलिए अन्यों के लिए परिश्रम करने की मनोवृत्ति होना, सभी के प्रति प्रेम, क्षमाशीलता, समाजकार्य के लिए समय देना, इससे समाजस्वास्थ्य टिका रह सकता है ।
केवल रोगों से ही नहीं, अपितु भवरोगों से भी अर्थात जन्म-मरण के फेर से भी मुक्त कर मनुष्य को दुःख से हमेशा के लिए मुक्त करना और मोक्ष की प्राप्ति करवाना, यही आयुर्वेद का अंतिम ध्येय है ।
‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ = धर्म आचरण का पहला साधन शरीर है । यह कालिदासजी का वचन है । (कु.सं.५.३३).
भिषग्वर्य चरक ने भी कहा है ‘धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तम्’ = धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थाें का मूल है आरोग्य !
१. आयुर्वेद में बताए अनुसार व्यायाम करने से होनेवाले लाभ !
१ अ. व्यायाम के कारण शरीर की काली शक्ति नष्ट होकर देह के चैतन्य में वृद्धि होना, एक्युप्रेशर एवं व्यायाम के कारण शरीर एवं सूक्ष्मचक्रों का काला आवरण नष्ट होकर उनकी शुद्धि होना
‘व्यायाम के कारण शरीर के सूक्ष्मचक्रों के (सप्तचक्रों के) सर्व ओर काली शक्ति के आवरण चक्रों के स्थान पर (अर्थात उस बिन्दू पर) दाब देने से प्रारंभ में विरल (कम घने) होते हैं । व्यायाम करने में सातत्य रखने से वे नष्ट हो जाते हैं । इसलिए सूक्ष्मचक्रों के अधिपत्य में जो भी अवयव हैं उनकी काली शक्ति विरल होती है और शरीर के सूक्ष्मचक्रों की शुद्धि होती है ।
१ आ. व्यायाम के कारण स्नायु एवं हड्डियों की कार्यक्षमता बढना
व्यायाम के कारण होनेवाली स्नायुओं और हड्डियों की लयबद्ध हालचाल, स्नायुओं की आकुंचन और प्रसरण की क्रियाओं के कारण स्नायुओं एवं हड्डियों के सर्व ओर विद्यमान काली शक्ति की सतह (थर), अर्थात रज-तम कणों का बंध विरल होता है । इससे स्नायु और हड्डियां खुल जाती हैं और उनका जडत्व कम होकर उनमें हलकापन लगता है और शिथिलता कम होकर कार्यक्षमता बढती है । व्यायाम करते समय प्रार्थना एवं नामजप करने से स्नायु एवं हड्डियों के चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता बढकर टिकी रहती है ।
१ इ. व्यायाम के कारण क्षात्रवृत्ति बढना
साधकों के लिए व्यायाम करना, यह युद्ध ही है । व्यायाम के कारण साधक की क्षात्रवृत्ति ३० प्रतिशत बढ जाती है ।
१ ई. व्यायाम के कारण मस्तिष्क और मन को जोडनेवाले कृष्णतत्त्व का बंध प्रकाशमान होकर चैतन्य मिलना, इससे शरीर चमकदार एवं चैतन्यमय दिखाई देना
व्यायाम के कारण मन के रज-तम कण न्यून होकर काली शक्ति का आवरण अल्प होना । इसलिए मन की शक्ति २ प्रतिशत बढ जाती है । व्यायाम के कारण मन और मस्तिष्क को जोडनेवाले कृष्णतत्त्व का बंध प्रकाशमान होकर उसका चैतन्य मन में परावर्तित होता है । इससे मन प्रसन्न और आनंदी होता है । यही चैतन्य आगे शरीर के सभी अवयवों में फैलता है । इसकारण काली शक्ति नष्ट होती है और व्यायाम करनेवाले व्यक्ति का शरीर चमकदार और चैतन्यमय दिखाई देता है ।
१ उ. व्यायाम के कारण शरीर की ऊर्जा और रस का रूपांतर शक्ति एवं चैतन्यरस में होता है । इससे शरीर और मन की शुद्धि होना, शरीर की चरबी पसीने द्वारा बाहर फेंकी जाना
आयुर्वेद में कहा जाता है कि व्यायाम शरीर में रस और तेजतत्त्व जागृत करनेवाला है । व्यायाम के कारण शरीर में तैयार होनेवाली ऊर्जा और रस संग्रहित किए जाते हैं । आगे उनका शक्ति और चैतन्यरस में रूपांतर होता है । इसलिए शरीर एवं मन की शुद्धि होकर कार्यक्षमता बढती है । शरीर का रस जागृत होने से शरीर के आपतत्त्व की मात्रा संतुलित रहती है । शरीर में (सूक्ष्मरूप में) विद्यमान टाकाऊ मूलद्रव्य चरबी के स्वरूप में होते हैं । वह व्यायाम के कारण पसीने द्वारा बाहर निकल जाते हैं ।’ – श्रीमती कोमल जोशी (वर्ष २००६)
२. निरोगी जीवन का मूलमंत्र
१. शरीर निरोगी रहने के लिए आहार अच्छा होना चाहिए । आहार अच्छा होने के साथ ही सात्त्विक होने पर, शरीर के सत्त्वगुण के बढने में भी सहायता होती है । सात्त्विक आहार के सेवन से अपना शरीर, मन और बुद्धि सात्त्विक बनती है । शरीर का सत्त्वगुण बढने से, ईश्वरप्राप्ति का ध्येय सुलभ होता है ।
२. शरीर की स्नायुओं को पर्याप्त व्यायाम न मिलने से वे निर्बल हो जाते हैं और अनेक शारीरिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं । बैठकर / संगणकीय काम करनेवालों में यह विशेषरूप से दिखाई देता है । स्नायु निर्बल न हों, इसलिए प्रतिदिन कुछ समय अपनी शारीरिक क्षमतानुसार व्यायाम करना चाहिए ।
३. रोग न हों; इसलिए आयुर्वेद ने सुझाए उपाय
१. प्रज्ञापराध होने न देना
२. मन और इंद्रिय नियंत्रण में रखना और काम, क्रोध इत्यादि आवेगों का नियंत्रण करना
३. खांसी, हिचकी, शौच, पेशाब इत्यादि प्राकृतिक वेग काे दबाकर न रखना
४. स्वास्थ्य के लिए हितकर और अहितकर आहार-विहार कौन से हैं, इसपर विचार कर, उस अनुसार हितकर आहार-विहार करना
५. वसंत ऋतु में कफ न बढे; इसलिए उलटी करें, शरद ऋतु में पित्त न बढे; इसलिए रेचक दें, वर्षा के मौसम में वात न बढे, इसलिए एनिमा दें ।
६. देश और काल के अनुसार दिनचर्या और ऋतुचर्या बनाएं ।
७. प्रत्येक कृति विचारपूर्वक करना
८. विषयों के प्रति आसक्ति (लगाव) न रखना
९. दान करना, दूसरों की सहायता करना
१०. सत्य बोलना, तप और योगसाधना करना
११. सगे-संबंधियों की (जिन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ है) सेवा करना, उनके उपदेश के अनुसार आचरण करना
१२. सद्वर्तन करना
१३. सभी के साथ स्नेहभाव और समतापूर्ण आचरण
१४. अध्यात्मशास्त्र का चिंतन करना और उस अनुसार आचरण करना
४. शीतपेयों में स्वास्थ्य के लिए घातक घटक
१. कार्बन डाइऑक्साईड : ‘शीतपेय में झाग आने की क्रिया इस वायु के कारण होती है ।
दुष्परिणाम : यह वायु मात्रा से अधिक पेट में जाने पर डकार आना, सिर चकराना, बेहोश होना इत्यादि ।
२. कैफीन : मस्तिष्क को उत्तेजना (किक) देता है, इससे उस समय के लिए तरोताजा लगता है ।
दुष्परिणाम : शरीर बारंबार मांग करने लगता है आैर व्यसनी बनाता है ।
३. फॉस्फरिक एसिड : यह तीव्र आम्ल जलन-सा स्वाद देता है । प्रत्येक घूंट जलन पैदा करते हुए जाता है । दिलखुलासा करने की भावना निर्माण होती है ।
दुष्परिणाम : दांतों पर का आवरण और हड्डियां खोखली और कमजोर होती हैं । यकृत एवं अंतडियों पर इसका परिणाम होता है और उन्हें निष्क्रिय बनाता है ।
४. एस्फोर्टेम : मधुरता एवं मिठास लाती है । यह पदार्थ शक्कर से १८० गुना मीठा होता है ।
दुष्परिणाम : मस्तिष्क, मज्जातंतु, रक्त पर घातक परिणाम करती है । कर्करोग, मधुमेह जैसे रोगों को निमंत्रण देती है ।
५. एथायलिन : द्रावण (पेय) को अधिक ठंडा रखने का काम करता है ।
दुष्परिणाम : पचनसंस्था, मूत्रपिंड, मस्तिष्क, हृदय पर मंद गति से विपरीत परिणाम करता है ।’
(सत्यवेध, १.११.२०१०)
५. पाश्चात्यों का गहरी नींद क्या होती है, यह पता न होने से विश्वभर में नींद की औषधियां की भारी मात्रा में खपत होना
गहरी नींद हमें पता नहीं । गहरी नींद शिखिध्वज की, मुचकुंद की, कपिल की, वसिष्ठ की और निष्पाप बालक की ! शंकराचार्य समान सिद्ध महापुरुष की ! वह अखंड अद्वैत में स्थिर है । पश्चिमी अब गहरी निद्रा पर शोध कर रहे हैं । गहरी नींद क्या है, यह उन्हें पता है क्या ? इसका उत्तर है नहीं ! विश्वभर नींद की औषधियों की भारी मात्रा में खपत है । मद्य एवं अति उग्र नशा लानेवाले पदार्थाें का भारी मात्रा में उपयोग किया जाता है ।’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (‘घनगर्जित’, मई २०११)
६. अहं के कारण स्वास्थ्य बिगडने के कारण
१. जीव के आसपास अहं के बढते आवरण के कारण जीव के मन की कारकता बढकर स्थूलदेह के लोह और कैल्शियम का संतुलन बिगड जाता है ।
२. अहं के कारण स्थूलदेह को जडत्व आकर जीव की चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता का लोप होता है । शरीर की पेशी-पेशी में चैतन्य अल्प होकर स्नायु और हड्डियों को शिथिलता और शुष्कता आती है ।
३. अहं के कारण मस्तिष्क के आसपास विद्यमान कृष्णतत्त्व का विघटन होकर मस्तिष्क की कार्यक्षमता अल्प होती है और उसका परिणाम स्वास्थ्य पर होकर विविध शारीरिक और मानसिक विकार होते हैं । साधना के कारण अहं का लय होने पर रोग के प्रारब्ध सहन कर पाते हैं ।