‘धर्म के अधिष्ठान पर ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ आधारित होगा, इसलिए हिन्दू राष्ट्र-स्थापना हेतु सर्वत्र धर्मप्रसार का कार्य होना नितांत आवश्यक है । धर्मप्रसार का कार्य होने में ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति एवं क्रियाशक्ति, इनमें से ज्ञानशक्ति का योगदान सर्वाधिक है । ज्ञानशक्ति के माध्यम से कार्य होने का सर्वाधिक प्रभावी माध्यम है ‘ग्रंथ’ ! संक्षेप में ‘ग्रंथों के माध्यम से धर्मप्रसार करना’, वर्तमान काल की श्रेष्ठ साधना है । इसीलिए ‘आपातकाल के पूर्व ग्रंथों के माध्यम से अधिकाधिक धर्मप्रसार हो’, यह सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की तीव्र उत्कंठा है । इस उत्कंठा के कारण वे आज भी प्राणशक्ति अत्यल्प होते हुए भी ग्रंथकार्य गति से होने हेतु प्रयत्नशील हैं । ग्रंथकार्य के लिए एक प्रकार से उनका संकल्प है । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी जैसी महान विभूति के संकल्प के अनुसार साधक भी ग्रंथकार्य गति से होने हेतु उत्कंठापूर्वक प्रयास करें, तो उस संकल्प का फल साधकों को मिलेगा, अर्थात साधकों की आध्यात्मिक उन्नति गति से होगी । इसीलिए ग्रंथकार्य में सम्मिलित होकर सभी इस अवसर का अधिकाधिक लाभ लें !
ग्रंथसेवा के अंतर्गत संकलन, भाषांतर, संरचना, मुखपृष्ठ-निर्मिति, ग्रंथों की छपाई से संबंधित सेवाएं इत्यादि विविध सेवाओं में सम्मिलित होने के इच्छुक साधक अपनी जानकारी सनातन के जिलासेवकों के माध्यम से भेजें । जिनके लिए समाजमें जाकर समष्टि साधना करना सम्भव नहीं है, वे संकलन एवं भाषांतर सेवा सीखकर घर रहकर भी वह सेवा कर सकते हैं । ग्रन्थोंकी सेवा भी परिणामकारक समष्टि साधना है ।
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– (पू.) संदीप आळशी, सनातन के ग्रंथों के संकलनकर्ता (२१.६.२०२१)