मार्च २०२३ से आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करने का स्थान सिर पर आना, अर्थात वह स्थान मस्तिष्क से, अर्थात कृति से संबंधित होना

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अनुक्रमणिका

सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळ

१. किसी अवयव में विकार (रोग) उत्पन्न होने का मुख्य कारण, शरीर के चक्रों पर अनिष्ट शक्तियों ने किया आक्रमण

‘नामजपादि उपाय करते समय शरीर के षड्‍चक्र एवं सहस्रार महत्त्वपूर्ण होते हैं । अपने अवयवों को कार्य करने के लिए जिस ऊर्जा (प्राणशक्ति) की आपूर्ति की जाती है, वह इन षड्‍चक्र एवं सहस्रार के माध्यम से ही होती है; कारण अपने अवयव किसी न किसी एक चक्र से जुडे होते हैं । अवयवों को ऊर्जा मिलने में सतत बाधा निर्माण होने पर, उनमें विकार (आजार) उत्पन्न होते हैं । मनुष्य को जो विकार होते हैं, उनका मुख्य कारण ‘आध्यात्मिक कष्ट’ होता है और विविध आध्यात्मिक कष्टों में से ‘अनिष्ट शक्तियों का कष्ट’ यह कारण मुख्यरूप से होता है । अनिष्ट शक्तियां मनुष्य को कष्ट देने के लिए एक अथवा कुछ चक्रोंपर आक्रमण कर उनमें कष्टदायक शक्ति (काली शक्ति) संग्रहित करती हैं । इससे उस चक्र से अथवा चक्रों से संबंधित अवयवों को प्राणशक्ति अल्प मिलती है और उनके कार्य में बाधा निर्माण होती है, अर्थात उन अवयवों में विकार उत्पन्न होते हैं ।

२. अवयवों में निर्माण हुए विकार दूर करने के लिए हाथों की उंगलियों की ‘मुद्रा’ कर उस मुद्रा से शरीर पर ‘न्यास’ एवं ‘नामजप’ करते हुए चक्र को ऊर्जा की आपूर्ति कर उसकी कष्टदायक शक्ति दूर करना

किसी अवयव को ऊर्जा मिलने में बाधा आने से उसमें उत्पन्न हुए विकार दूर करने के लिए उस अवयव से संबंधित चक्र पर आध्यात्मिक स्तर पर उपाय कर, अर्थात उस चक्र को ऊर्जा की आपूर्ति कर कष्टदायक शक्ति दूर करनी होती है । चक्र को ऊर्जा देने के लिए पंचमहाभूतों में से यथोचित महाभूत से हाथ की संबंधित उंगलियों की ‘मुद्रा’ कर उस चक्र पर ‘न्यास’ करना होता है, इसके साथ ही उस  पंचमहाभूत से संबंधित ‘नामजप’ भी करना होता है । इसप्रकार उपाय करने से अवयव पुन: अच्छी प्रकार से कार्यरत होते हैं ।

३. कालानुसार उपायों के समय न्यास करने के मुख्य स्थान में होते गए परिवर्तन

३ अ. सूक्ष्म गतिविधियां समझने के लिए आज्ञाचक्र महत्त्वपूर्ण होने से अनिष्ट शक्तियों का मुख्यरूप से साधकों के आज्ञाचक्र पर आक्रमण करना

गत कुछ वर्ष साधकों को उपाय ढूंढकर देते समय ध्यान में आया कि न्यास करने के स्थान एक तो केवल आज्ञाचक्र मिलता है अथवा  आज्ञाचक्र एवं उसके साथ अन्य कोई एक चक्र मिलता है । अध्यात्म सूक्ष्म गतिविधियों से संबंधित है । उसे समझने के लिए आज्ञाचक्र महत्त्वपूर्ण होता है । इसलिए अनिष्ट शक्तियां मुख्यरूप से साधकों के आज्ञाचक्र पर आक्रमण करती हैं ।

३ आ. हम आंखों से संपूर्ण जगत देखते हैं और आंखों से ही अच्छी शक्ति अथ‌वा अनिष्ट शक्ति सहजता से शरीर में ग्रहण होना; इसलिए आज्ञाचक्र पर उपाय करने के स्थान पर आंखों पर उपाय करना अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, ऐसा एक वर्ष पूर्व ही ध्यान में आना

एक वर्ष पूर्व मेरे ध्यान में आया कि आज्ञाचक्र पर उपाय करने की अपेक्षा आंखों पर उपाय करना अधिक महत्त्वपूर्ण है; कारण हम आंखों से संपूर्ण जगत देखते हैं और उस माध्यम से अच्छी एवं बुरी शक्ति सहजता से अपने शरीर में ग्रहण होती है । आंखें तेजतत्त्व से संबंधित होती हैं । इसके साथ ही ऐसा भी ध्यान में आया कि आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करते समय कुंडलिनीचक्रों की कष्टदायक शक्ति भले ही दूर हो जाए, परंतु आंखों में कष्टदायक शक्ति फिर भी शेष रहती है । इसलिए अंत में आंखों पर उपाय करने से शरीर की कष्टदायक शक्ति पूर्णरूप से दूर हो जाती है ।

३ इ. मार्च २०२३ से उपायों का मुख्य स्थान ‘सिर के बाईं ओर’ आता था; कारण अनिष्ट शक्तियों द्वारा साधकों की कृतियों पर नियंत्रण पाने के लिए मस्तिष्क पर आक्रमण करना आरंभ होना

मार्च २०२३ से उपाय ढूंढते समय ऐसे ध्यान में आया कि उपायों का मुख्य स्थान ‘आज्ञाचक्र’ अथवा ‘नेत्र’ नहीं, अपितु ‘सिर का बाईं ओर’ है और वहां उपाय करने से वह अधिक परिणामकारक हो रहा है । सिर का भाग मस्तिष्क से संबंधित होता है । मस्तिष्क अपनी कृतियों का नियमन करता है । इसलिए अनिष्ट शक्तियां साधक के मस्तिष्क पर आक्रमण कर उसकी कृतियों पर नियंत्रण पाने का प्रयत्न करती हैं । उसीप्रकार गत २ दशकों से अनिष्ट शक्तियां साधकों पर अधिकतर सूक्ष्म से आक्रमण करती थीं; परंतु अब साधकों की साधना बढने से वे पराजित हो जाती हैं । उनकी शक्ति अल्प होना आरंभ होने से वे अब साधकों को शारीरिक कष्ट देने लगी हैं । इसका ही एक उदाहरण है अनिष्ट शक्तियों का साधकों की कृतियों पर नियंत्रण पाने के लिए उनके मस्तिष्क पर आक्रमण करना ।

इसप्रकार अनिष्ट शक्तियों ने कालानुसार साधकों पर आक्रमण करने में चाहे कितने भी तरीके अपनाए, तब भी गुरुकृपा से योग्य उपाय  मिलते जाते हैं । इसलिए साधक अनिष्ट शक्तियों पर मात कर सकते हैं । इसके लिए मैं श्रीगुरुचरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करता हूं ।’

– (सद़्‍गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ, गोवा. (१८.५.२०२३)

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