१. व्याख्या
हाथ की उंगलियों की विशिष्ट मुद्रा कर उसे शरीर के कुंडलिनीचक्र अथवा अन्य किसी भाग के निकट रखना, इसे न्यास कहते हैं । न्यास शरीर से १ – २ सें.मी. के अंतर पर करें । नामजप करते समय मुद्रा एवं न्यास करना संभव न हो, तब केवल नामजप कर सकते हैं । (कुछ विचारधाराओं के अनुसार न्यास करते समय उंगलियों को शरीर से स्पर्श करते हैं; परंतु स्पर्श करने के स्थान पर १ – २ सें.मी. के अंतर पर रखकर न्यास करना अधिक लाभदायक होता है । इसका कारण इसप्रकार है – उंगलियों का शरीर को स्पर्श करने से सगुण स्तर पर उपाय होते हैं, तो स्पर्श न करने पर निर्गुण स्तर पर उपाय होते हैं । सगुण की अपेक्षा निर्गुण स्तर पर उपाय अधिक परिणामकारक होते हैं ।)
२. न्यास करने का महत्त्व
मुद्रा द्वारा ग्रहण होनेवाली सकारात्मक (पॉजिटिव) शक्ति संपूर्ण शरीरभर में फैलती है, जबकि न्यास द्वारा वह सकारात्मक शक्ति शरीर में विशिष्ट स्थान पर प्रक्षेपित कर सकते हैं । संक्षेप में, न्यास के कारण कष्टों से संबंधित स्थान पर शक्ति अधिक मात्रा में प्रक्षेपित कर पाने से कष्ट का निवारण शीघ्र हाेने में सहायता होती है ।
३. नामजप सहित मुद्रा एवं न्यास करना लाभदायक !
मुद्रा एवं न्यास के ऊपर दिए महत्त्व को देखकर यह ध्यान में आता है कि नामजप सहित मुद्रा एवं न्यास करना लाभदायक है । नामजप करते समय मुद्रा एवं न्यास करना संभव न हो, तब केवल नामजप कर सकते हैं ।
४. न्यास का कार्य
न्यास या कोई अन्य स्व-उपचार तकनीक हमेशा जप के साथ होनी चाहिए। जप करके हम उस भगवान के पहलू की दिव्य ऊर्जा को ग्रहण करते हैं जिसका नाम हम जपते हैं। न्यास करके, हम जप से प्राप्त दिव्य ऊर्जा को उस विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा केंद्र तक पहुंचाते हैं। ऐसा करने से वह ऊर्जा उस क्षेत्र के अंगों तक फैल जाती है।
५. हाथ की उंगलियों एवं तलुए से शरीर के विविध अवयवों के स्थान पर न्यास करने के लिए बताया जाना, यह मंत्रयोग में बताए गए मातृकान्यास से साधर्म्य दिखानेवाला होना
मंत्र अर्थात मातृदेवी का नादमय प्रतीक । जीवोत्पत्ति के कार्य में प्रथम सीढी अर्थात परमेश्वरीय संकल्प है । इस संकल्प से इच्छा उत्पन्न होती है । उसका रूपांतर ब्रह्म की क्रिया में होता है । यह क्रिया अर्थात परब्रह्म की शक्ति ! उसका अगला चरण है नाद अथवा विश्व का कंपन । उससे दृश्य सृष्टि उत्पन्न होती है । इस विश्वकंपन के दृश्य रूप अर्थात अक्षर । इन अक्षरों को मातृका कहते हैं । इन अक्षरमातृकाओं से मातृदेवता के अनेक मंत्र निर्माण हुए हैं ।
मातृकान्यास के दो प्रकार हैं – अंतर्मातृका एवं बहिर्मातृका ! अंतर्मातृकान्यास कुंडलिनी के षट्चक्रों के स्थान पर विद्यमान मातृका का ध्यान करना, इस स्वरूप का है । बहिर्मातृकान्यास, पांच उंगलियों एवं हथेली के योग से शरीर के विविध अवयवों के स्थान पर न्यास करना, इस स्वरूप का है । तब उस अमुक इंद्रिय के देवता का बीजमंत्र कहते हैं ।