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हम सभी ने कहीं न कहीं पढा ही होगा कि पूर्व के काल में ऋषि-मुनियों के आश्रम में पशु-पक्षी निर्भयता से विचरते थे । ऋषि-मुनियों की तपस्या की सात्त्विकता पशु-पक्षियों को भी ध्यान में आती है । प्रकृति भी उस सात्त्विकता को प्रतिसाद देती है, इसीलिए ऋषि-मुनियों के आश्रम में भी बहार आ जाती थी । सत्य, त्रेता एवं द्वापर युगों में ऋषि-मुनियों के आश्रम मेें जो दृश्य देखने मिलता था, कुछ वैसा ही दृश्य कलियुग के सनातन के आश्रम, सद्गुरु, संत एवं साधक के संदर्भ में भी देखने मिलता है । इस लेख में सद्गुरु के सान्निध्य में पशु-पक्षी जो निर्भय वातावरण अनुभव करते हैं, उस विषय में संक्षेप में समझ लेते हैं !
सनातन के संत सहजावस्था में होते हैं । संतपद पर विराजमान होने के पश्चात भी वे सतत सीखने की स्थिति में होते हैं । उनके नाम ‘चैतन्यानंद’, ‘स्वामी’ इस प्रकार के न होने से समाज के व्यक्तियों को सहजता से ध्यान में भी नहीं आता कि ‘वे संत हैं ।’ – वस्त्र, आभूषण जैसी बाह्य बातों में फंसे सामान्य व्यक्ति को यद्यपि संतत्व ध्यान में नहीं आता, तब भी प्रकृति, सात्त्विक पशु-पक्षी उसे समझ सकते हैं । वे संतों का संतत्व केवल समझते ही नहीं, अपितु उन्हें प्रतिसाद भी देते हैं, यही नीचे दिए कुछ उदाहरणों से ध्यान में आता है !
१. सद्गुरु (कु.) स्वाती खाडये के सत्संग का लाभ लेनेवाली सात्त्विक बिल्ली !
‘सनातन के धर्मप्रचारक सद्गुरु (कु.) स्वाती खाडये कुडाळ सेवाकेंद्र में जब थीं तब एक बिल्ली का बच्चा लाए । वह बार-बार बीमार पड जाता था । १- २ बार तो उसे अस्पताल भी ले जाना पडा । एक बार सद्गुरु स्वाती दीदी ने कुडाळ सेवाकेंद्र से अन्य स्थान के लिए निकलते समय बिल्ली के बच्चे पर सनातन के भीमसेनी कपूर का चूरा डाला और बोलीं, ‘बीमार न पडना हं’; तब ऐसा लगा मानो उनका संकल्प ही हो गया है । उस दिन से लेकर आज तक बिल्ली कभी भी बीमार नहीं पडी ।
वह बिल्ली आरती के समय, साधक के नामजप करते समय और सत्संग के समय वहां आकर शांति से बैठ जाती है । सद्गुरु स्वाती दीदी के सत्संग में बोलते समय वह उनके चरणों के समीप जाकर बैठती है ।’
– कु. वैभवी सुनील भोवर (वय २५ वर्ष, आध्यात्मिक स्तर ६८ प्रतिशत), कुडाळ सेवाकेंद्र, जिला सिंधुदुर्ग. (२.३.२०२२)
२. मूल्की के सनातन सेवाकेंद्र में प्रतिदिन आनेवाला सात्त्विक मोर !
‘सनातन के मूल्की सेवाकेंद्र में प्रतिदिन सवेरे एक मोर आता है । वह सवेरे एवं शाम, दाेनों बार अल्पाहार के समय आता है और खाने के लिए देने पर चला जाता है । विशेष बात यह है कि यदि उसका पेट न भरा हो, तो वह वहीं खडा रहता है । इससे ध्यान में आता है कि उसका पेट भरा नहीं है । उसे पुन: खाने पर देने पर वह खाकर चला जाता है । अब उसके सेवाकेंद्र में आने पर यदि कोई साधक न दिखाई दे, तब भी वह प्रतीक्षा करता है और साधकों के उसे खाने के लिए देने पर ही वहां से जाता है । प्रारंभ में मोर के सेवाकेंद्र में आने पर, उसे खाने के लिए दूर रखना होता था । अब वह साधक के हाथ से लेकर खाता है और सेवाकेंद्र के परिसर में भी निर्भयता से घूमता है । कभी-कभी वह सेवाकेंद्र में आते समय एक-दो मोरों को भी साथ लेकर आता है । अन्य दो मोर हाथ में लिए पदार्थ लेकर नहीं खाते ।’
– सद्गुरु सत्यवान कदम, कर्नाटक (२४.६.२०१५)
३. सद्गुरु नंदकुमार जाधव के सान्निध्य में आनंदी होनेवाला श्वान ‘हीरा’ !
‘जलगांव सेवाकेंद्र में ‘हीरा’ नामक श्वान का पिल्ला है । सद्गुरु पिताजी (सनातन के धर्मप्रचारक सद्गुरु नंदकुमार जाधव) साधकों का मार्गदर्शन करने के लिए जब निकलते हैं तो वह उनके आसपास घूमता रहता है, जिससे सद्गुरु पिताजी उसे भी अपने साथ ले जाएं । फिर जब उसकी समझ में आता है कि ‘मुझे नहीं ले जा रहे’, तब वह किसी छोटे बच्चे समान ऐसे बैठ जाता है मानो रूठ गया हो । सद्गुरु पिताजी के पुन: लौटने पर वह आनंद से उछलते-कूदते उनके पास जाता है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसे भी उनमें विद्यमान चैतन्य ध्यान में आता है । कई बार ‘हीरा’ हठ भी करता है, तब सद्गुरु पिताजी के कहने पर तुरंत शांत हो जाता है ।’
– कु. अनुराधा जाधव (सद्गुरु नंदकुमार जाधव की पुत्री), फोंडा, गोवा.
४. सद्गुरु नीलेश सिंगबाळ के हाथों पर निर्भयता से बैठी गिलहरी !
‘अगस्त २०१९ में वाराणसी आश्रम में एक गिलहरी आई थी । सामान्यतः गिलहरियां चंचल होती है; परंतु यह गिलहरी धर्मप्रचारक सद्गुरु नीलेश सिंगबाळ की हथेली पर बडी सहजता से बैठ गई । फिर सद्गुरु नीलेश सिंगबाळ ने उसकी पीठ पर धीरे से हाथ फेरा, तब भी वह निर्भयता से स्थिर बैठी रही ।’