आयुर्वेद के चूर्ण, गोलियां, दंतमंजन, केश तेल इत्यादि औषधियों पर निश्चित समाप्ति तिथि (एक्सपायरी डेट) लिखी होती है । इस दिनांक के उपरांत औषधि लेने पर, उसका कुछ दुष्परिणाम होता है क्या ? मान लीजिए अमुक वर्ष की ३१ जुलाई को यह दिनांक किसी औषधि की समाप्ति तिधि हो, तो उस वर्ष १ अगस्त को वह औषधि लेने पर क्या वह विष बन जाएगी ?
१. समाप्ति तिथि के संदर्भ में आयुर्वेद शास्त्र का मत
‘आयुर्वेदीय औषधि निर्मिति के संदर्भ में ‘शार्ङ्गधर संहिता’ तेरहवीं शताब्दी का एक प्रमाणभूत संस्कृत ग्रंथ है । इसमें औषधि चूर्ण, घी, तेल इत्यादि कितनी अवधि के उपरांत ‘हीनवीर्य’ होते हैं, इसकी जानकारी दी है । ‘हीनवीर्य’ अर्थात ‘औषधि के औषधीय गुण पहले की तुलना में न्यून होना ।’ यहां ध्यान देने समान अर्थात ग्रंथ में ‘हीनवीर्य’ शब्दप्रयोग किया गया है । ‘नष्टवीर्य (औषधीय गुण नष्ट होना)’ अथवा ‘निर्वीर्य (औषधीय गुण निकल जाना)’ ऐसा शब्दप्रयोग नहीं किया गया है । औषधि बनने से उस पर वातावरण एवं काल का प्रभाव आरंभ हो जाता है । (इसलिए उसके औषधीय गुणधर्म अंश-अंश से न्यून होना आरंभ हो जाता है; परंतु समाप्ति तिथि के उपरांत औषधि तुरंत ही विष नहीं बनती । ढलती आयु में व्यक्ति जैसे वृद्ध होने से उसकी क्षमता न्यून होती जाती है, उसी प्रकार औषधि की प्रभावकारिता थोडी-थोडी न्यून होती जाती है; परंतु वे औषधियां यदि उसके अपने गंध, रस (स्वाद) इत्यादि गुणों से परिपूर्ण होंगी, तो कालांतर में भी वे उतनी ही प्रभावकारी होती हैं । आयुर्वेद के ‘आसव’ अथवा ‘अरिष्ट’ प्रकार की औषधियां (उदा. द्राक्षासव, सारस्वतारिष्ट), इसके साथ ही धातुओं की भस्मयुक्त औषधियां (उदा. चंद्रामृत रस, वसंत मालती रस (स्वर्ण)) ये भले कितनी भी पुरानी हो जाएं, तब भी उनका औषधीय तत्त्व न्यून नहीं होता । इसलिए इस प्रकार की औषधियों पर समाप्ति तिथि नहीं होती है ।
२. व्यवहार में समाप्ति तिथि की अपेक्षा
औषधियों की गंध, रस (स्वाद) इत्यादि गुणधर्म देखना अधिक योग्य !
वर्तमान में पश्चिमी वैद्यकीय शास्त्र के प्रभाव के कारण, इसके साथ ही अन्न एवं औषधीय प्रशासन के नियमों के कारण आयुर्वेद की औषधियों पर समाप्ति तिथि लिखनी होती है । समाप्ति तिथि एवं शार्ङ्गधर संहिता में दिए हीनवीर्यता के काल में बहुत अंतर है । औषधि को हवा न लगे, इस पद्धति से डिब्बी का ढक्कन कसकर लगाने से औषधि की गंध, रस (स्वाद) इत्यादि गुणों में अंतर नहीं आएगा । अत: ऐसे में औषधियों का रूपांतर विष में नहीं होता; इसलिए उन्हें फेंके नहीं ।
३. सोंठ चूर्ण, पिंपली चूर्ण इत्यादि
आयुर्वेद की औषधियों में कीडे हाेने पर क्या करें ?
‘अदरक की कंद, पिंपली के फल इत्यादि वनस्पति पदार्थों में पिष्टमय पदार्थों की (स्टार्च कीचे) मात्रा अधिक होती है । इसलिए अदरक से बननेवाला सोंठ चूर्ण, पिंपळी के फलों से बननेवाला पिंपळी चूर्ण इत्यादि आयुर्वेदीय औषधियों में चावल समान कीडे (घुन अथवा सूंडी) होती हैं । चावल में कीडे होने पर हम चावल फेंक नहीं देते, अपितु उसे चलनी से छानकर उपयोग करते हैं । उसीप्रकार सोंठ चूर्ण, पिंपळी चूर्ण इत्यादि औषधियों में कीडे होने पर उसे फेंकें नहीं, अपितु चलनी से छानकर उसका उपयोग कर सकते हैं । ऐसे चूर्ण चलने के उपरांत डिब्बी में भरकर उसका कसकर ढक्कन लगा दें और सूखे वातावरण में रखें । यह चूर्ण प्रशीतक (फ्रिज) में रखने पर अधिक समय तक सुरक्षित रहता है ।’
– वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२३.७.२०२२)