‘रत्नागिरी जिले के एक साधक एक निजी आस्थापन में नौकरी के लिए थे । वे आस्थापन में प्रामाणिकता से काम करते थे । इसलिए उन्हेें आस्थापन के मालिक ने ‘आदर्श कामगार पुरस्कार’ प्रदान किया । तदुपरांत उन्होंने दो वर्षों में पूर्ण काल साधना के लिए स्वेच्छा निवृत्ति ली । स्वेच्छा निवृत्ति लेने पर आस्थापन के मालिक ने उन्हें बताया, ‘‘आप आस्थापन में (कंपनी में) काम करने के लिए रुकिए । कुछ काम न भी करें, तो भी कोई बात नहीं । केवल आस्थापन में आएं ।’’ फिर भी सेवा के कारण वह साधक वहां जा नहीं पाते थे, तब ‘उन्हें खर्च करने के लिए पैसे मिलें’, इसके लिए आस्थापन के मालिक ने उन्हें १० प्रतिशत वेतन देना जारी रखा । ‘तदुपरांत कुछ माह में दिवाली में खर्च करने के लिए उन्हें पैसे कम पड रहे होंगे’, ऐसे आस्थापन के मालिक को लगा; इसलिए उन्होंने २ सहस्र रुपये वेतन बढा दिए । उसी माह में उस साधक की मां को फेफडों का कष्ट शुरू हो गया और उसके लिए उन्हें महीने में २ सहस्र रुपयों की औषधियां लग रही थीं । ‘साधना करने से भगवान साधकों की कैसेे सहायता करता है ?’, इसका यह एक उत्तम उदाहरण है ।’