चैतन्यस्फूर्ति से लडनेवाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की स्मृतियां संजोनेवाले छायाचित्र

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राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा के लिए झंझावाती प्रवास जहां आरंभ हुई, वह स्थान !

श्रीक्षेत्र काशी के भदोंनी घाट में झांसी की रानी का जन्मस्थान

 

शानदार झांसी किले का प्रवेश द्वार

 

किले पर भवानी शंकर तोप । यह तोप मोतीबाई नामक महिला चलाती थी । इस तोप पर श्री गणपति का मुख उत्कीर्ण है ।

 

झांसी किले से ग्वालियर रास्ते पर जाने का गुप्त मार्ग

 

किले पर पानी की टंकी । सुंदर नक्काशी उत्कीर्ण कर, टंकी भी आकर्षक बनाई गई है ।

 

चैतन्य का प्रक्षेपण होने हेतु रानी लक्ष्मीबाई द्वारा किले पर स्थापित की हुई श्री दुर्गादेवी की मूर्ति

 

किले पर भगवान शिव का मंदिर । चैतन्य ग्रहण करने हेतु इस मंदिर में रानी लक्ष्मीबाई प्रतिदिन पूजा के लिए जाती थीं ।

 

झांसी, उत्तरप्रदेश में किला

 

झांसी, उत्तरप्रदेश में यह किला राजा वीरसिंह जुदेव बुंदेल ने वर्ष १६१३ में बनाया था । राजा बुंदेल के राज्य की यह राजधानी थी । यह किला १५ एकड की भूमि पर बनाया गया है । यह किला राजा गंगाधरराव नेवाळकर के पूर्वज श्री नारूशंकर नेवाळकर को राजा जुदेव बुंदेल ने उपहारस्वरूप दिया था । राजा गंगाधरराव की मृत्यु के उपरांत रानी लक्ष्मीबाई ने यहीं से आयु के २३ वें वर्ष राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली । १८५८ में ब्रिटिशों के आक्रमण के पश्चात यह किला ब्रिटिशों के नियंत्रण में चला गया । इस किले में कुल २२ गुंबद (मंडप) हैं ।

अंग्रेज सेनापति सर ह्यू रोज, जिसके साथ रानी का अंतिम संग्राम हुआ था । उन्होंने कहा है, ‘झांसी की रानी सर्वोत्कृष्ट थी । उनके समान धैर्यवान योद्धा हमने नहीं देखा !’ झांसी की स्वतंत्रता के लिए सैनिकों की टुकडी रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में तीन माह प्राण हथेली पर लेकर लड रही थी । उस काल में अत्यंत अल्प अश्वपारखियों में रानी की गणना होती थी । घोडे पर डटकर बैठकर वे दोनों हाथों में तलवार लेकर लड सकती थीं और अंत में वैसे वे लडीं भी । भले ही नारी हों, तब भी एक सामर्थ्यशाली राज्यकर्ता के रूप में किसी भी प्रकार के कर्तव्यपालन में तनिक भी कम नहीं, यह उन्होंने सिद्ध किया । अपने राज्य में प्रजा निर्भय एवं निश्चिंत होकर जीवनयापन करे, इसका उन्होंने ध्यान रखा ।

ग्वालियर, मध्यप्रदेश में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का समाधिस्थल

 

वर्ष १८५७-५८ के स्वतंत्रतासंग्राम के समय झांसी पर ब्रिटिशों के आक्रमण करने के पश्चात सिंधिया राजा से सहायता मांगने के लिए रानी ग्वालियर आईं; परंतु तब सिंधिया राजा के रानी की सहायता न करने से रानी लक्ष्मीबाई युद्ध में घायल हो गईं । तदुपरांत उनका शरीर अंग्रेजों के हाथों न लगे; इसलिए युद्धभूमि से दूर जाने पर रानी का घोडा धराशायी हो जाने से उन्होंने उस स्थान के महंत गंगासागर नामक संन्यासी से रानी ने विनती की ‘मेरे देहत्याग के पश्चात मेरा शरीर अंग्रेजों के हाथों नहीं लगना चाहिए । तब महंत ने अपने कुटी की घास रानी लक्ष्मीबाईं के पार्थिव पर डालकर उनकी दहनक्रिया उसी स्थान पर कर दी । वर्ष १९२० में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस स्थान पर रानी का अश्वारूढ पुतला बनाया ।

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