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‘ज्योतिषशास्त्र अर्थात ‘भविष्य बतानेवाला शास्त्र’ ऐसी अनेकों की समझ होती है और इसलिए उन्हें लगता है कि ज्योतिषी हमारा भविष्य विस्तार से बताए । क्या वास्तव में ज्योतिष भविष्य बतानेवाला शास्त्र है, यह इस लेख द्वारा हम समझ लेंगे । उससे पूर्व ज्योतिषशास्त्र का प्रयोजन समझ लेंगे ।
१. ज्योतिषशास्त्र का प्रयोजन
१ अ. ‘काल का प्रभाव पहचानना’ यह ज्योतिषशास्त्र का प्रयोजन होना
सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ काल के अधीन है । सत्त्व, रज एवं तम, इन त्रिगुणों से युक्त किसी भी पदार्थ पर काल का प्रभाव होता ही है; केवल त्रिगुणातीत परमेश्वर ही कालातीत है । किसी भी पदार्थ में होनेवाला परिवर्तन काल के ही कारण दिखाई देता है । इसलिए ‘काल का प्रभाव पहचानना’ ज्योतिषशास्त्र का मुख्य प्रयोजन है । काल का प्रभाव पहचानने के लिए प्रथम उसे नापना आवश्यक होता है । इसलिए ‘कालमापन करना’ यह ज्योतिषशास्त्र का प्राथमिक चरण है और ‘कालवर्णन करना’ अंतिम चरण है ।
१ आ. काल का ‘व्यावहारिक’ एवं ‘आध्यात्मिक’ स्वरूप
व्यावहारिक दृष्टि से काल का अर्थ ‘अवधि’ होने से अध्यात्म की दृष्टि से काल का अर्थ भाग्य (प्रारब्ध) है । युग, वर्ष, ऋतु, मास, दिन, प्रहर, घंटा इत्यादि व्यावहारिक काल की ईकाई है । इसकारण दैनंदिन व्यवहार करना संभव होता है । व्यावहारिक काल सभी लोगों के लिए समान है; परंतु अध्यात्म को अभिप्रेत काल प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न है (व्यक्तिसापेक्ष है) । इसे ही हम ‘प्रारब्ध’ कहते हैं । ज्योतिष विद्या,यह जीव का प्रारब्ध समझने का शास्त्र है ।
२. ज्योतिषशास्त्र का प्राचीन स्वरूप
मूल ज्योतिषशास्त्र का ‘सिद्धांत’, ‘संहिता’ एवं ‘होरा’, ऐसे ३ स्कंध हैं । ‘सिद्धांत’ स्कंध में युगगणना, कालविभाग, ग्रहों की गति, ग्रहण इत्यादि का गणित होता है । ‘संहिता’ स्कंध में विविध नक्षत्रों में ग्रह जाने पर पृथ्वी पर होनेवाले परिणाम, पर्जन्यमान, प्राकृतिक आपदाएं, मुहूर्त आदि की जानकारी होती है । ‘होरा’ स्कंध में मनुष्य की जन्मकालीन ग्रहस्थिति पर उसके जीवन के सुख-दु:खों का विचार करने संबंधी विवेचन होता है । आधुनिक खगोलशास्त्र के आगमन के पश्चात ज्योतिषशास्त्र के ‘सिद्धांत’ स्कंध पीछे रह गया और ‘होरा’ स्कंध को ही ‘ज्योतिषशास्त्र’ के रूप में पहचाना जाता है ।
३. ज्योतिषशास्त्र द्वारा भविष्य की दिशा पहचान पाना
‘सटीक भविष्य कथन’ यह ज्योतिषशास्त्र का उद्देश्य न होकर ‘भविष्य की दिशा पहचानना’, यह उद्देश्य है । ‘व्यक्ति के भाग्य में किसी भी बात संबंधी अनुकूलता एवं प्रतिकूलता है’, यह ज्योतिषशास्त्र बताता है । मानवी जीवन की कोई भी घटना प्रारब्धकर्म एवं क्रियमाणकर्म के संयोग से होती है । ज्योतिषशास्त्र प्रारब्ध के विषय में बता सकता है; परंतु व्यक्ति के क्रियमाण के विषय में नहीं ! इसके साथ ही प्रारब्ध की बातों का सारांश बता सकता है; परंतु विवरण बताने में शास्त्र को मर्यादा है, उदा. व्यक्ति का स्वास्थ्य, संभाव्य व्याधि एवं स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल काल इस विषय में बता सकता है; परंतु वास्तव में व्याधि किन कारणों से कब होगी, यह बताना ज्याेतिषशास्त्र की मर्यादा के परे है । ऐसा होते हुए भी शास्त्र की उपयुक्तता अल्प नहीं होती; कारण व्यक्ति को स्वयं के प्रारब्ध के विषय में बुद्धि द्वारा बहुत कुछ ध्यान में नहीं आ सकता । उसके लिए ज्योतिषशास्त्र साधन है ।
जन्मकुंडलीद्वारा व्यक्ति का आरोग्य, व्यक्तित्व, विद्या, कुटुंब, विवाह, कार्यक्षेत्र, अध्यात्म इत्यादि के संदर्भ में प्रारब्ध में जो स्थिति है, उस विषय में दिग्दर्शन कर सकते हैं ।
४. ज्योतिषशास्त्र व्यक्ति को भाग्यवादी (दैववादी) बनाता है क्या ?
‘दैववाद’ अर्थात भाग्य पर निर्भर रहकर प्रयत्नों की अनदेखी करना । प्रारब्ध जीवन का अविभाज्य घटक है, तब भी सर्व भारतीय शास्त्रों ने प्रयत्नों को ही महत्त्व दिया है । प्रयत्नों को ही ‘पुरुषार्थ’ कहते हैं; परंतु प्रयत्नों की दिशा योग्य होना महत्त्वपूर्ण होता है । उसके लिए व्यक्ति को उसके प्रारब्ध की परिस्थिति की कल्पना चाहिए । प्रारब्धानुसार प्राप्त शारीरिक प्रकृति, बौद्धिक क्षमता, मनोवृत्ति, कला-कौशल्य, घराना, सामाजिक परिस्थिति इत्यादि नहीं बदलती । ज्योतिषशास्त्र के कारण व्यक्ति को उसके प्रारब्ध के अनुकूल एवं प्रतिकूल बातों का ज्ञान होता है, इसके साथ ही वर्तमान काल किन प्रयत्नों के लिए अनुकूल है, यह ध्यान में आता है । इसलिए व्यक्ति के प्रयत्नों को योग्य दिशा मिल सकती है । ज्योतिषशास्त्र यदि सटीक भविष्य बतानेवाला शास्त्र होता, तो वह निश्चितरूप से ‘दैववादी’ होता; परंतु वह भविष्य की दिशा दिखाकर प्रयत्नों के लिए पूरक है ।
अतः ज्योतिषशास्त्र की ओर ‘भविष्य कथन का शास्त्र’ इसप्रकार न देखते हुए ‘कालविधान शास्त्र’ (काल की अर्थात प्रारब्ध की अनुकूलता-प्रतिकूलता बतानेवाला शास्त्र) इस दृष्टि से देखना आवश्यक है !’